संविधान के लागू होने के 75 वर्षों के बाद भी, जब हम लोकतंत्र, विकास और डिजिटल इंडिया की बातें करते हैं, तब भी किसी दलित की लाश सड़क पर पड़ी होती है, किसी दलित अधिकारी की आत्मा अपमान के बोझ तले दम तोड़ देती है, और जस्टिस बी.आर. गवई जैसे शीर्षस्थ दलित न्यायाधीश पर जूते चलाए जाते हैं। यह सिर्फ इसलिए कि उन्होंने अपने अस्तित्व की गरिमा की रक्षा करने की कोशिश की। पिछले कुछ महीनों में घटी तीन घटनाएं— रायबरेली में हरिओम वाल्मीकि की हत्या, हरियाणा के आईपीएस वाई पूरन कुमार की आत्महत्या, और सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस बी.आर. गवई पर अभद्र हमला, भारत के लोकतांत्रिक ढांचे पर तीन गहरे ज़ख़्म हैं। जाहिर तौर पर यह सिर्फ़ एक दलित उत्पीड़न नहीं, बल्कि संविधान पर सीधा आघात है। सवाल यह है कि जब न्यायपालिका के शीर्ष पद पर आसीन दलित भी सुरक्षित नहीं, तो उस किसान या मज़दूर का क्या जो अब भी मनु की ‘व्यवस्था’ के नीचे दबा है?
भारत के गांवों, शहरों, कार्यालयों और यहां तक कि न्यायालयों में भी आज एक नया मनुवाद सिर उठाता दिख रहा है। यह आज गर्व से घोषणा करता है। सनातन की रक्षा के नाम पर दलितों को अपमानित करना अब सामान्य बात बन गई है। हरिओम वाल्मीकि की हत्या करने वाले नारे लगाते हैं– “हम योगी के लोग हैं।” हरियाणा में आत्महत्या करने वाले आईपीएस अधिकारी की पत्नी को सुरक्षा नहीं, पहरा मिलता है। और न्यायाधीश पर हमले के बाद, सरकार की ओर से निंदा का एक शब्द भी नहीं आता।

तीनों घटनाएं भाजपा-शासित राज्यों में हुईं। केंद्र की मोदी सरकार ने कोई स्पष्ट प्रतिक्रिया नहीं दी। यह चुप्पी सामान्य नहीं है। यह राजनीतिक रणनीति है, क्योंकि दलित का सवाल उठाना आज ‘हिंदू एकता’ के विरुद्ध माना जाता है। हर हत्या के बाद, अपराधियों की जाति पर पर्दा डाल दिया जाता है। एफआईआर कमजोर की जाती है, और पुलिस व नौकरशाही को संकेत मिलता है कि ‘मामला दबा दो।’ यह वही सत्ता है जो ‘सबका साथ, सबका विकास’ का नारा देती है, लेकिन सभी को न्याय देने से पीछे हट जाती है।
आज जब हरियाणा में एक दलित आईपीएस अधिकारी सांस्थानिक हत्या का शिकार हो जाता है, जब सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश जातीय तानों का शिकार बनते हैं, तब मायावती अपने प्रेस बयान में भाजपा के सुर में सुर मिलाती हैं। चिराग पासवान, जीतनराम मांझी, रामदास अठावले, सभी दलित नेता सत्ता के दरवाज़ों पर मुस्कराते दिखते हैं। दलित राजनीति, जिसके प्रणेता डॉ. आंबेडकर रहे, आज सवर्ण आकाओं की जेबों में सिक्कों की तरह खनक रही है। यह चुप्पी सिर्फ़ राजनीतिक नहीं, एक तरह से की जा रही ऐतिहासिक आत्महत्या है।
सर्वविदित है कि जाति अब सिर्फ़ सामाजिक पहचान नहीं, राजनीतिक पूंजी बन गई है। दलितों को आरक्षण का भय दिखाकर सवर्ण समाज को एकजुट किया जा रहा है, और दलितों की हर आवाज़ को ‘एंटी-हिंदू एजेंडा’ बता कर कुचल दिया जा रहा है। सोशल मीडिया ट्रोल आर्मी, टीवी चैनलों की बहसें, और धार्मिक महोत्सव – सब मिलकर एक ही संदेश देते हैं कि मनुवाद लौट आया है।
इस अंधेरे में राहुल गांधी एकमात्र ऐसा राजनीतिक चेहरा हैं जो लगातार आंबेडकर और फुले की परंपरा का ज़िक्र करते हैं। उन्होंने उपरोक्त तीनों घटनाओं के संदर्भ में आवश्यक हस्तक्षेप किया है। उनकी ‘भारत जोड़ो यात्रा’ ने इस विभाजन के बीच संवाद की एक झिलमिल रोशनी जलाई थी। लेकिन यह सवाल भी उठता है कि क्या राहुल गांधी उस परिवर्तन की ताक़त बन पाएंगे या वे भी एक प्रतीक मात्र बनकर रह जाएंगे? बहरहाल, अब आवश्यकता है नए दलित नेतृत्व की, जो विचार से स्वतंत्र हो, जो सत्ता की कृपा नहीं, संविधान की शपथ को अपनी शक्ति माने। यह नेतृत्व विश्वविद्यालयों, आंदोलनों और सामाजिक मंचों से निकलेगा, ना कि राजनीतिक दलों की नियुक्ति से। दलित राजनीति को फिर से दलित समाज के पास लौटना होगा। यह केवल चुनाव नहीं, अस्तित्व की लड़ाई है।
(संपादन : नवल/अनिल)
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