बुद्ध और मौर्य शासनकाल में बिहार को ज्ञान की भूमि का दर्जा हासिल था। यह इतिहास में वर्णित है कि नालंदा और विक्रमशिला जैसे विश्वविद्यालयों का प्रकाश कभी पूरे एशिया को रौशन करता था। लेकिन वर्तमान इसके ठीक विपरीत है। खासकर आज़ादी के बाद उच्च शिक्षा के मामले में बिहार की तस्वीर लगातार धुंधली होती चली गई। वर्ष 1990 से पहले की स्थिति देखें तो पटना विश्वविद्यालय (1917) जैसे कुछ पुराने संस्थानों को छोड़कर गिने-चुने विश्वविद्यालय ही थे। उच्च शिक्षा में नामांकन दर मुश्किल से 5-7 प्रतिशत थी। शोध और अनुसंधान का तो नामोनिशान ही नहीं था, क्योंकि हमारे विश्वविद्यालयों के पास न तो आधुनिक प्रयोगशालाएं थीं, न समृद्ध पुस्तकालय। नतीजतन शोध प्रकाशन और पेटेंट के मामले में बिहार की भूमिका नगण्य ही रही।
शैक्षणिक रूप से सबसे चिंताजनक हालातों के शिकार दलित, पिछड़े और अति पिछड़े वर्गों के शिक्षार्थी रहे। सामाजिक और आर्थिक बाधाओं के चलते इन समुदायों के लिए उच्च शिक्षा लंबे समय तक एक सपने जैसी बनी रही। उनका नामांकन दर 2-3 प्रतिशत से भी कम था और उनके लिए किसी विशेष छात्रवृत्ति या शोध के अवसरों की कोई व्यवस्था नहीं थी। विश्वविद्यालयों में ऊंची जातियों का वर्चस्व था। सत्तर के दशक में कर्पूरी ठाकुर के मुख्यमंत्री बनने और अंग्रेजी की बाध्यता खत्म करने की कदम ने दलितों और पिछड़ों को कॉलेजों तक पहुंचाने में मददगार साबित हुई।
सन् 1990 में जब लालू प्रसाद यादव की सरकार बनी, तो इनके शासनकाल में पहले से चल रहे विश्वविद्यालयों को विस्तारित करने के उपरांत तीन अन्य विश्वविद्यालय सामने आए– छपरा में जयप्रकाश विश्वविद्यालय (1990), मधेपुरा में भूपेंद्र नारायण मंडल विश्वविद्यालय (1992), और आरा में वीर कुंवर सिंह विश्वविद्यालय (1992)। इन प्रयासों का नतीजा यह हुआ कि उच्च शिक्षा में छात्रों का नामांकन बढ़कर लगभग 8-10 प्रतिशत तक पहुंच गया। हालांकि, इस विस्तार के बावजूद एक बड़ी कमी यह रही कि शिक्षा का बजट बहुत सीमित था, विशेषकर शोध (रिसर्च) के लिए कोई पैसा ही नहीं दिया गया।
बिहार में शिक्षा की यह एक दुखद हकीकत है कि दो अलग-अलग विचारधाराओं वाली सरकारें भी उच्च शिक्षा और शोध की तस्वीर बदलने में नाकाम रहीं। लालू यादव के दौर में सामाजिक समावेश तो हुआ, लेकिन गुणवत्ता और शोध को पूरी तरह नजर अंदाज कर दिया गया। इसके बाद 2005 में आई जदयू-भाजपा के शासन काल में शिक्षा बजट बढ़ा। लेकिन यह वृद्धि भी दलित, पिछड़े और अति पिछड़ों को शोध तक पहुंचाने में मददगार साबित नहीं हुई।
बिहार की जातिगत जनगणना एक गहरी सामाजिक सच्चाई को उजागर करती है। यहां की एक बड़ी आबादी – लगभग 80 प्रतिशत – एससी, एसटी, ईबीसी और ओबीसी समुदायों की है, लेकिन उच्च शिक्षा के अवसरों से वंचित है। यह चिंताजनक है कि बिहार में इन समुदायों के केवल 9 प्रतिशत छात्र ही 12वीं कक्षा तक पहुंच पाते हैं, जो उच्च शिक्षा की पहली सीढ़ी है। ग्रेजुएशन और उससे आगे की पढ़ाई करने वालों की संख्या तो और भी कम है, जो राष्ट्रीय सर्वे के अनुसार कुल आबादी का महज़ 2-5 प्रतिशत अनुमानित है। शोध और पीएचडी तक पहुंचने वालों का आंकड़ा तो 1 प्रतिशत से भी कम हो सकता है। सबसे दुखद स्थिति दलित समुदाय के छात्रों की है। जहां ओबीसी और ईबीसी के लगभग 16 प्रतिशत बच्चे 12वीं तक पहुंच पाते हैं, वहीं दलित समुदाय में यह आंकड़ा केवल 5.76 प्रतिशत है। यह दिखाता है कि समाज का एक बड़ा हिस्सा उच्च शिक्षा और बेहतर भविष्य की दौड़ में बहुत पीछे छूट गया है।
वैश्विक और राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में बिहार की उच्च शिक्षा (शोध)
बिहार में उच्च शिक्षा और शोध की बदहाली आज एक गंभीर चुनौती है, जो सीधे तौर पर दलितों, पिछड़ों और अति पिछड़े समाज से आने वाले समुदाय के प्रगति में अवरोधक बन रही है। यह उपेक्षा इन वंचित वर्गों को भुगतना पड़ रहा है, जिनके लिए शिक्षा ही सामाजिक उन्नति का एकमात्र साधन है। पिछले 20 वर्षों में सत्ता में रही राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) सरकार शोध के लिए आवश्यक बुनियादी ढांचा जैसे कि फेलोशिप, आधुनिक प्रयोगशालाएं, पुस्तकालय और योग्य शिक्षकों की कमी को दूर करने में पूरी तरह विफल रही हैं। जिसका नतीजा यह है कि इमारतें तो हैं, पर उनमें भविष्य गढ़ने वाली गुणवत्तापूर्ण शिक्षा और अनुसंधान का अभाव है, जिसका खामियाजा आज पूरा राज्य भुगत रहा है।
बिहार उच्च शिक्षा के मामले में देश से बहुत पीछे चल रहा है। अखिल भारतीय उच्च शिक्षा सर्वेक्षण, 2021-22 की रिपोर्ट के अनुसार, जहां पूरे भारत में उच्च शिक्षा में सकल नामांकन अनुपात 28.4 प्रतिशत है, वहीं बिहार में यह आंकड़ा चिंताजनक रूप से केवल 17.1 प्रतिशत है, जो कि राष्ट्रीय औसत का आधा है।
राष्ट्रीय संस्थागत रैंकिंग फ्रेमवर्क, 2025 रिपोर्ट में बिहार के निराशाजनक प्रदर्शन और भी अधिक स्पष्ट रूप से उजागर होता है–
- केंद्र सरकार द्वारा संचालित आईआईटी पटना ही एकमात्र ऐसा संस्थान है, जो देश के उत्कृष्ट उच्च शिक्षण संस्थानों की सूची में शीर्ष 100 में (36वें स्थान पर) अपनी जगह बना सका।
- कभी प्रतिष्ठित रही पटना यूनिवर्सिटी (जो आज भी केंद्रीय विश्वविद्यालय बनाने की लड़ाई लड़ रहा है) टॉप 100 की सूची से बाहर हो गई है। राज्य का एक भी कॉलेज टॉप 100 में नहीं है।
- राजेंद्र प्रसाद सेंट्रल एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी को देश भर के कृषि विकास संस्थानों में 14वां स्थान हासिल है, जबकि बिहार एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी 36वें स्थान पर है।
- इससे भी बड़ी चिंता की बात यह है कि तिलका मांझी भागलपुर विश्वविद्यालय, मगध यूनिवर्सिटी, ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय और जयप्रकाश यूनिवर्सिटी जैसे कई बड़े विश्वविद्यालयों ने तो रैंकिंग में हिस्सा ही नहीं लिया, जो उनकी राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिस्पर्धा करने में असमर्थता को दिखाता है।
- डॉ. बी.आर. आंबेडकर बिहार यूनिवर्सिटी ने पहली बार पंजीकरण कराया, लेकिन उसे कोई रैंक नहीं मिली।
- वहीं कॉलेज श्रेणी में, पटना वीमेंस कॉलेज एकमात्र संस्थान है जो 101-159 बैंड में जगह बना सका।
सनद रहे कि प्रांत में राज्य सरकार के अधीन 17 विश्वविद्यालय, चार केंद्रीय विश्वविद्यालय और 7 निजी विश्वविद्यालय शामिल हैं। इसके अतिरिक्त, राज्य में केंद्र सरकार द्वारा संचालित आईआईटी पटना, एनआईटी पटना और एम्स (पटना) जैसे राष्ट्रीय महत्व के संस्थान भी हैं। हालांकि, इन संस्थानों की संख्या के बावजूद, इनकी गुणवत्ता और स्थिति चिंताजनक है। अधिकांश राज्याधीन विश्वविद्यालयों में शिक्षक-छात्र अनुपात 1:50 से भी अधिक है, और अकादमिक सत्रों में देरी एक आम समस्या है। इस कारण छात्र बेहतर अवसरों की तलाश में पलायन कर रहे हैं। कुल मिलाकर बिहार के अधिकांश विश्वविद्यालय बुनियादी ढांचे, योग्य शिक्षकों की कमी और अपर्याप्त फंडिंग जैसी समस्याओं के कारण राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिस्पर्धा से बाहर हो गए हैं। सरकार द्वारा शिक्षा बजट बढ़ाने के दावों के बावजूद, ये आंकड़े जमीनी हकीकत को दर्शाते हैं।

गुणवत्ता पर लगा प्रश्नचिह्न, नैक की रिपोर्ट
राष्ट्रीय मूल्यांकन एवं प्रत्यायन परिषद (नैक) की रिपोर्ट बिहार की उच्च शिक्षा की गुणवत्ता पर एक आधिकारिक मुहर लगाती है। राज्य के अधिकांश विश्वविद्यालयों को ‘बी’ या उससे भी निचला ग्रेड मिला है। चिंता की बात यह है कि बिहार के किसी भी विश्वविद्यालय को सर्वोच्च ‘A++’ ग्रेड प्राप्त नहीं हुआ है। यह शिक्षण, शोध, बुनियादी ढांचे और प्रशासनिक व्यवस्था की गंभीर कमियों को उजागर करती है।
इस बीच कल्पना कीजिए कि बिहार के एक छोटे-से गांव के एक प्रतिभाशाली युवा की, जिसकी आंखों में देश के लिए कुछ नया करने का सपना है। वह पीएचडी करके शोध की दुनिया में अपना नाम कमाना चाहता है, लेकिन जैसे ही वह अपने राज्य के किसी विश्वविद्यालय में कदम रखता है, उसका सामना एक कठोर और निराशाजनक सच्चाई से होता है। यह कहानी सिर्फ एक छात्र की नहीं, बल्कि बिहार के उन हजारों शोधार्थियों की है, जो एक टूटे हुए तंत्र के बीच अपना भविष्य तलाश रहे हैं।
सामाजिक असमानता प्रभाव और शोध में दलित, पिछड़े और अति पिछड़े छात्रों का प्रतिनिधित्व
समाज में व्याप्त सामाजिक असमानता का प्रभाव दलित, पिछड़े और अति पिछड़े वर्गों के शोधार्थियों पर पड़ रहा है। इन समुदायों के लिए शोध हेतु छात्रवृत्ति और फेलोशिप जैसी योजनाओं की कमी है, जिससे वे शिक्षा और शोध के माध्यम से आगे बढ़ने से वंचित रह जाते हैं। सामाजिक न्याय का नारा बिहार की राजनीति में दशकों से गूंज रहा है, लेकिन उच्च शिक्षा और शोध के क्षेत्र में यह नारा खोखला प्रतीत होता है। जब हम आंकड़ों पर नज़र डालते हैं, तो तस्वीर और भी भयावह हो जाती है।
बिहार की जाति आधारित जनगणना, 2023 ने सामाजिक-आर्थिक असमानताओं को उजागर किया है, खासकर शिक्षा के क्षेत्र में। सर्वे के अनुसार, केवल 3-4 प्रतिशत लोग स्नातकोत्तर (पोस्ट ग्रेजुएट) या उससे ऊपर की शिक्षा प्राप्त कर पाए हैं, जो बिहार में उच्च शिक्षा की दयनीय स्थिति को दर्शाता है। दलित, आदिवासी, पिछड़े, और अति पिछड़े समुदायों का इस क्षेत्र में प्रतिनिधित्व अत्यंत कम है। राष्ट्रीय स्तर पर ऑल इंडिया सर्वे ऑन हायर एजुकेशन (एआईएसएचए), 2021-22 के आंकड़े बताते हैं कि पीएचडी में दलित (9.8 प्रतिशत), आदिवासी (4.2 प्रतिशत), और ओबीसी (35.9 प्रतिशत) का हिस्सा भी सामान्य वर्ग की तुलना में कम है।
बिहार में यह स्थिति और भी गंभीर है, जहां पीएचडी स्तर पर डेटा स्पष्ट नहीं है, लेकिन उच्च शिक्षा में कम प्रतिनिधित्व से अनुमान लगाया जा सकता है कि पीएचडी नामांकन 1 प्रतिशत से भी कम होगा। इस संदर्भ में, मंडल आंदोलन के प्रमुख चेहरों में से एक, बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की नीतियों और उनकी विरासत की आलोचना जरूरी हो जाती है, क्योंकि उनके नेतृत्व में भी इन समुदायों की उच्च शिक्षा तक पहुंच में अपेक्षित सुधार नहीं हुआ है।
बिहार में सामाजिक न्याय का नारा उच्च शिक्षा की दहलीज पर आकर अक्सर दम तोड़ देता है। भले ही कॉलेजों में दलित, पिछड़े और अति पिछड़े छात्रों का नामांकन बढ़ा हो, लेकिन जब ज्ञान सृजन के सर्वोच्च केंद्र, यानी शोध (पीएचडी) की बात आती है, तो वे एक अदृश्य दीवार से टकराकर रह जाते हैं। यह सिर्फ एक अकादमिक बहस नहीं, बल्कि बिहार की आने वाली पीढ़ियों के भविष्य का सवाल है। जब तक शोध और नवाचार को प्राथमिकता नहीं दी जाएगी, बिहार ज्ञान-आधारित अर्थव्यवस्था की दौड़ में पिछड़ता रहेगा, और इसका सबसे भारी खामियाजा हमारे समाज के सबसे कमजोर और वंचित वर्गों के छात्रों को भुगतना पड़ेगा।
शोध अवसरों में भेदभाव
बिहार के विश्वविद्यालयों में दलित, ओबीसी और ईबीसी छात्रों के साथ संस्थागत भेदभाव होता है। एक अध्ययन (2025) के अनुसार, एससी छात्रों को क्लासरूम में कठिनाई का सामना करना पड़ता है क्योंकि ज्यादातर शिक्षक उच्च जातियों से हैं और संवेदनशीलता की कमी रखते हैं। कई दलित छात्र पीएचडी पर्यवेक्षकों से पर्याप्त सहायता न मिलने के कारण अपनी पढ़ाई बीच में ही छोड़ देते हैं।
वैश्विक व राष्ट्रीय दौड़ में हांफता बिहार
आज जब चीन और अमेरिका जैसे देश अपनी जीडीपी का 3-4 प्रतिशत हिस्सा शोध और नवाचार पर खर्च करके दुनिया को नई दिशा दे रहे हैं, तब भारत का यह आंकड़ा मात्र 0.7 प्रतिशत पर सिमटा हुआ है। इस दौड़ में बिहार का योगदान तो लगभग शून्य है। यह केवल आंकड़ों का अंतर नहीं, यह निवेश में बड़ा अंतर भारत और विशेष रूप से बिहार को वैश्विक शोध मानचित्र पर पीछे छोड़ रहा है।
केंद्र सरकार अति महत्वाकांक्षी योजना ‘वन नेशन, वन सब्सक्रिप्शन’ शोधार्थियों तक 13 हजार से अधिक अंतरराष्ट्रीय जर्नलों को मुफ्त पहुंचाने का दावा करती है। लेकिन आज इंटरनेट युग में वास्तविक स्थिति यह है कि बिहार के अधिकांश विश्वविद्यालयों में व्यवस्थित इंटरनेट की सुविधा तक नहीं है। नतीजतन बुनियादी ढांचा के अभाव में बिहार के शोधार्थी इस योजना का लाभ नहीं उठा पा रहे हैं। योग्य शिक्षकों की भारी कमी और धूल खाती प्रयोगशालाएं इस संकट को और भी गहरा कर देती हैं।
जो आंकड़े प्रकाशन और पेटेंट की है वह बिहार में शोध की गुणवत्ता की सच्चाई बयान करता है। किसी भी शोध की सफलता उसके प्रकाशन और पेटेंट से मापी जाती है। इस पैमाने पर बिहार की स्थिति बेहद चिंताजनक है–
- शोध प्रकाशन : स्कॉपस के 2023-24 के आंकड़ों के अनुसार, जहां तमिलनाडु जैसे राज्य ने 50,000 से अधिक शोध पत्र प्रकाशित किए, वहीं बिहार में यह मात्र 5,000 के आसपास सिमट गई। यह राष्ट्रीय औसत से 70 प्रतिशत कम है, जो दिखाता है कि यहां शोध सिर्फ डिग्री पाने की एक औपचारिकता बनकर रह गया है।
- पेटेंट फाइलिंग : नवाचार का सबसे बड़ा प्रमाण पेटेंट होता है। इस मामले में बिहार 2018-19 में मात्र 200 आवेदनों के साथ देश में सबसे निचले पायदान पर था। यह स्थिति दर्शाती है कि राज्य में मौलिक और उपयोगी शोध को बढ़ावा देने वाला माहौल ही नहीं है।
राज्य और केंद्र सरकार की योजनाओं व नीतियों का जमीनी असर और उपाय
यह असमानता सिर्फ सामाजिक नहीं, बल्कि गहरी संस्थागत भी है। एक ओर आईआईटी, पटना और एनआईटी, पटना जैसे केंद्रीय संस्थान हैं, जहां दुनिया भर के शोध-पत्र (जर्नल्स) एक क्लिक पर उपलब्ध हैं। वहीं दूसरी ओर, राज्य के विश्वविद्यालयों में पढ़ने वाला एक मेधावी छात्र ज्ञान के इन स्रोतों के लिए तरसता है। यह स्थिति केवल कुछ डिग्रियां कम होने का मामला नहीं, बल्कि बिहार के बौद्धिक भविष्य पर लगा एक प्रश्नचिह्न है। जब तक सरकार विश्वविद्यालयों को सिर्फ डिग्री बांटने की मशीन समझने की मानसिकता से बाहर आकर, उन्हें शोध और नवाचार का केंद्र बनाने को प्राथमिकता नहीं देगी, तब तक राज्य का बौद्धिक और आर्थिक पिछड़ापन एक कड़वी हकीकत बना रहेगा।
वैसे कागजों पर तो बिहार में शिक्षा का बजट हर साल बढ़ता हुआ दिखता है। 2025-26 के लिए भी लगभग 61,000 करोड़ रुपये का आवंटन किया गया है। लेकिन इस भारी-भरकम राशि का बड़ा हिस्सा शिक्षकों के वेतन, पुराने कर्जों का ब्याज चुकाने और इमारतों की ईंट-गारे में ही खर्च हो जाता है। उच्च शिक्षा विभाग के बजट में पीएचडी और शोध के लिए अलग से आवंटन का विवरण नहीं दिया गया है; शोध और नवाचार के हिस्से में जो आता है, वह ऊंट के मुंह में जीरे जैसा है। बिहार सरकार ने 2000 से 2025 तक शिक्षा बजट में उल्लेखनीय वृद्धि की है। 2000-05 के दौरान, शिक्षा बजट कुल व्यय का 10-12 प्रतिशत था, जबकि 2025-26 में यह बढ़कर 21.7 प्रतिशत हो गया है। लेकिन सरकार शोध कार्यों के लिए अलग से राशि आवंटित नहीं करती है।
इस पिछड़ेपन के पीछे कई गंभीर कारण और हैं
बिहार में उच्च शिक्षा और शोध की स्थिति संरचनात्मक और तकनीकी चुनौतियों के कारण और भी खराब हुई है। डिजिटल संसाधनों और आधुनिक प्रयोगशालाओं की कमी ने शोध की गुणवत्ता को बुरी तरह प्रभावित किया है। फंडिंग का अकाल एक बड़ी समस्या है। बिहार के शिक्षा बजट का एक बड़ा हिस्सा स्कूली शिक्षा पर केंद्रित है, जो जरूरी है, लेकिन इस प्रक्रिया में उच्च शिक्षा और शोध को नजर अंदाज कर दिया गया है। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) की 2023 की रिपोर्ट के अनुसार, बिहार के विश्वविद्यालयों को मिलने वाला रिसर्च फंड राष्ट्रीय औसत से 60 प्रतिशत कम है। यहां राज्य द्वारा संचालित विश्वविद्यालयों से पीएचडी करने पर शोधार्थियों को फेलोशिप नहीं मिलता है, जिसके कारण दलित, आदिवासी, पिछड़े व अति पिछड़े वर्गों के छात्रों के लिए शोध जारी रखना एक असंभव संघर्ष बन जाता है। शिक्षा बजट को जीडीपी का 6 प्रतिशत तक बढ़ाने के साथ ही, शोध और विकास के लिए एक अलग फंड आवंटित करना जरूरी है। छात्रवृत्ति को पारदर्शी बनाकर यह सुनिश्चित करना होगा कि इसका लाभ हर योग्य छात्र तक पहुंचे। लेकिन भ्रष्टाचार, अपर्याप्त फंडिंग और कमजोर नीतियों ने इन चुनौतियों को और बढ़ाया है, जिससे बिहार के छात्र और शोधकर्ता देश की मुख्यधारा से अलग-थलग पड़ गए हैं।
एक बड़ा संकट शिक्षकों का भी है। एक अच्छा शोध एक अच्छे गाइड के बिना संभव नहीं है। लेकिन प्रशासनिक और सरकारी नाकामी की वजह से बिहार राज्य विश्वविद्यालय सेवा आयोग द्वारा 2020 में 4,638 सहायक प्रोफेसरों की भर्ती के लिए विज्ञापन निकाला गया था, लेकिन चार साल बाद भी यह प्रक्रिया अधूरी है। इसका नतीजा यह है कि एक-एक गाइड पर क्षमता से कई गुना अधिक शोधार्थियों का बोझ है, जिससे शोध की गुणवत्ता बुरी तरह प्रभावित हो रही है। विश्वविद्यालयों में नियुक्तियों को पारदर्शी बनाना और भर्ती घोटालों को रोकने के लिए सख्त कदम उठाना आवश्यक है।
ऐसे ही एक कारण सरकार के द्वारा शोध कर रहे शोधार्थियों को फेलोशिप नहीं मिलना है, जिसका सीधा असर दलितों, पिछड़ों और अति पिछड़े और गरीब वर्ग से आने वाले छात्रों पर पड़ता है। वस्तुतः वे बीच में पीएचडी छोड़ने पर मजबूर होते है। दलित, पिछड़े और अति पिछड़े छात्रों के लिए पीएचडी फेलोशिप में आरक्षण और विशेष मेंटरशिप कार्यक्रम शुरू करने चाहिए।
डिजिटल संसाधनों का अभाव और पुरानी प्रयोगशालाएं व पुराने अनुपयोगी उपकरणों के संकट से भी बिहार के विश्वविद्यालय जूझ रहे हैं। एक रिपोर्ट के अनुसार, बिहार के केवल 20 प्रतिशत ग्रामीण स्कूलों और कॉलेजों में इंटरनेट कनेक्टिविटी उपलब्ध है, और 70 प्रतिशत से अधिक संस्थानों में डिजिटल लाइब्रेरी या ऑनलाइन डेटाबेस तक पहुंच नहीं है। बिहार के अधिकांश विश्वविद्यालयों में प्रयोगशालाएं और उपकरण दशकों पुराने हैं, जो आधुनिक शोध की जरूरतों को पूरा नहीं करते। राज्य के विश्वविद्यालयों में 1980-90 के दशक के उपकरण ही उपयोग में हैं। जिन विश्वविद्यालयों में नए उपकरण आए, वहां पर एक्सपर्ट के अभाव में इनका इस्तेमाल नहीं हो रहा है। इन कमियों के कारण बिहार का शोध उत्पादन और पेटेंट फाइलिंग राष्ट्रीय औसत से बहुत कम है।
बी.आर. आंबेडकर विश्वविद्यालय, मुजफ्फरपुर में कार्यरत डॉ. आतिफ रब्बानी बताते हैं कि सरकार को शोध में दिलचस्पी नहीं हैं। सरकार वैसे कामों को तरजीह देती है जो जनता को सामने से दिखे। शिक्षा और शोध में निवेश एक बेहतर समाज के निर्माण में मुख्य भूमिका निभाता है। लेकिन यह किसी इमारत, फ्लाइओवर या सड़क की तरह तुरंत नहीं देखा जा सकता है। बिहार के लगभग सभी विश्वविद्यालयों में शोध की स्थिति दयनीय है। बुनियादी संरचना जैसे आधुनिक पुस्तकालय, लैब, हाई स्पीड इंटरनेट आदि मौजूद नहीं है। ऐसे में जर्नल, आर्टिकल और शोध सामग्री की उपलब्धता पर बात करना बेमानी लगता है।
मगध विश्वविद्यालय में भौतिकी में शोध कर रहे पंचम बताते है कि हमारे यहां कोर्स वर्क की परीक्षा हुए लगभग दो महीने से ऊपर हो गए हैं, परंतु अभी तक परिणाम जारी नहीं हुआ है। हमारे विभाग की स्थिति दयनीय है। लैब में मशीनें नहीं हैं। जो हैं, वे आज के तकनीक के आधार पर बहुत पुरानी और खराब हो चुकी हैं। बिहार सरकार शोधार्थियों को कोई फेलोशिप नहीं देती है। केंद्र सरकार शोधार्थियों के लिए ऑनलाइन जर्नल और मैगज़ीन की उपलब्धता के लिए ‘वन नेशन वन सब्सक्रिप्शन’ की बात करती है, लेकिन हमारे यहां वाईफाई और इंटरनेट नहीं है, जिससे इसको एक्सेस किया जा सके। दलित और पिछड़े समुदाय से आने वाले छात्रों को जातीय भेदभाव झेलना पड़ता है। यहां पर नियमित सेमिनार आयोजित नहीं होते हैं। इंटरनेशनल और नेशनल सहभागिता नहीं है।
भूपेंद्र नारायण मंडल विश्वविद्यालय से राजनीतिशास्त्र में शोध कर रहे नीरज बताते हैं कि कैंपस में इंटरनेट के नाम पर खानापूर्ति किया गया है। देश व राज्यभर में जिस तरीके से संचार सुविधाओं में गति आई है, उसके हिसाब से हमारे विश्वविद्यालय में इंटरनेट सुविधा नहीं है। शोधार्थियों के लिए सबसे महत्वपूर्ण जर्नल होते है परंतु हमारे यहां ऐसी कोई सुविधा नहीं है। देश के अलग-अलग शोध संस्थानों में शोधार्थियों को संस्थान के डोमेन से ईमेल आईडी उपलब्ध कराया जाता है, परंतु जब हमारे यहां वाईफाई की सुविधा ही दुरुस्त नहीं है तब हमारे लिए ईमेल आईडी जैसी ऑनलाइन सुविधाएं अकल्पनीय है।
इसी विश्वविद्यालय से फिज़िक्स में नैनो टेक्नॉलोजी में शोध कर रहे अरमान बताते हैं कि एमएचआरडी दावा करती है कि देश स्तर पर शोध को बेहतर बनाने के लिए ‘वन नेशन वन सब्सक्रिप्शन’ सिस्टम लागू किया गया है। लेकिन जिस विश्वविद्यालय में इंटरनेट, वाईफाई और कंप्यूटर लैब जैसे बुनियादी सुविधाएं मौजूद नहीं हैं, उस जगह पर ‘वन नेशन वन सब्सक्रिप्शन’ की बात बेमानी है। अरमान आगे बताते हैं कि फिज़िक्स के लैब में करोड़ों की मशीन पड़ी है, परंतु इन मशीनों को चलाना कोई जानता ही नहीं है। हम कह सकते हैं कि टेकनिशियन के अभाव में मशीनें धूल फांक रही हैं। अरमान यह भी बताते हैं कि रिसर्च के लिए बुनियादी सुविधाओं के नहीं रहने के कारण छात्र साइंस जैसे विषयों में थ्योरी से जुड़े टॉपिक चुनते हैं।
वहीं, मुंगेर विश्वविद्यालय से राजनीति शास्त्र में शोध कर रहे मयंक बताते है कि बिहार का उच्च शिक्षा पूरे तरह से चौपट है। दलितों, पिछड़ों अति पिछड़ों और गरीब घर से आने वाले छात्रों को भिन्न तरह कि चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। हम हमारी प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा के स्तर पर ही संसधानों के अभाव और अयोग्य शिक्षकों के कारण गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के अभाव से जूझते हैं, जिसका खामियाजा हमें उच्च शिक्षा प्राप्त करने दौरान झेलना पड़ता है। बिहार में लंबे अर्से के बाद पीएचडी में नामांकन शुरू हुआ है। राज्य के लगभग सभी विश्वविद्यालयों में गुणवत्तापूर्ण शोध की परंपरा खत्म हो चुकी है।
बहरहाल, पिछले 20 वर्षों में, बिहार में जदयू-भाजपा गठबंधन ने उच्च शिक्षा और शोध के क्षेत्र को जानबूझकर नजर अंदाज किया है। जहां एक ओर भाजपा ने सामाजिक न्याय के सिद्धांतों को लगातार हाशिए पर रखा है, वहीं मंडल आंदोलन से निकले नीतीश कुमार भी इस क्षेत्र में सामाजिक न्याय को स्थापित करने में विफल रहे हैं। इसका सबसे बड़ा खामियाजा दलित, पिछड़े और अति पिछड़े वर्गों को भुगतना पड़ा है, जिन्हें शिक्षा और शोध के माध्यम से अपनी सामाजिक स्थिति बेहतर करने का मौका मिलना चाहिए था। सरकार ने इमारतों और कॉलेजों का निर्माण तो किया, लेकिन शोध के लिए आवश्यक बुनियादी ढांचे जैसे कि आधुनिक प्रयोगशालाएं, डिजिटल संसाधन और योग्य शिक्षकों की कमी को बरक़रार रखा। बजट में बढ़ोतरी के दावों के बावजूद, जमीनी हकीकत यह है कि इन निधियों का बड़ा हिस्सा भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गया है। इस राजनीतिक उदासीनता का सीधा असर वंचित समुदायों पर पड़ा है। उन्हें न केवल वित्तीय सहायता की कमी का सामना करना पड़ता है, बल्कि जाति और लिंग आधारित पूर्वाग्रहों के कारण शोध के अवसरों से भी वंचित रखा जाता है।
(संपादन : नवल/अनिल)
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