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सन् 1938 का महिला सम्मलेन, जिसमें रामासामी को स्त्रियों ने दी ‘पेरियार’ की उपाधि

महिलाएं केवल पेरियार की प्रशंसक नहीं थीं। वे सामाजिक मुक्ति के उनके आंदोलन में शामिल थीं, उसमें भागीदार थीं। उनके नेतृत्व में सम्मलेन का आयोजन इस बात का प्रतीक था कि महिलाओं की चेतना जागृत हो रही थी और वे नई सामाजिक व्यवस्था को आकार देने के अभियान में भाग लेने के लिए तैयार थीं। बता रही हैं जी. सरस्वती

तमिलनाडु में सामाजिक परिवर्तन की राह कई मंजिलों से रौशन थी। इनमें सबसे अहम मंजिलों में से एक था– 13 नवंबर, 1938 को चेन्नई में आयोजित महिला सम्मेलन। रौशन-ख्याल तमिल महिलाओं का यह समागम, हिंदी-विरोधी आंदोलन के समर्थन में आयोजित किया गया था, जिसे भाषाई समानता और सांस्कृतिक आत्मसम्मान की रक्षा के लिए शुरू किया गया था।

अपनी बात को मजबूती और मुखरता से रखने और जागरूक होने के उस दौर में आयोजित इस सम्मेलन में एक महत्वपूर्ण निर्णय लिया गया। वह यह कि सम्मेलन में ई.वी. रामासामी को सम्मानित किया जाएगा, जिनके निर्भीक नेतृत्व ने हजारों लोगों को वर्चस्व के हर स्वरुप का प्रतिरोध करने के प्रेरणा दी थी। इसी सम्मेलन में उन्हें ‘पेरियार’ की उपाधि से नवाज़ा गया था। ‘पेरियार’ का अर्थ होता है महान नेता। यह न केवल उनके प्रति आभार जताने की अभिव्यक्ति थी, वरन् महिलाओं को उनके सदियों पुराने दमन और उनके साथ असमानता के व्यवहार से मुक्ति दिलवाने में उनकी असाधारण भूमिका का स्वीकार भी था।

इस सम्मलेन में पारित प्रस्ताव में कहा गया था–

“भारत में अनेक समाज सुधारक हुए हैं। जो नेक काम वे लोग नहीं कर सके थे, उन्हें आज हमारे श्रद्धेय नेता ई.वी. रामासामी द्वारा किया जा रहा है। चूंकि दक्षिण भारत में उनके बराबर या उनसे ऊंचे कद का कोई नेता नहीं है। अतः यह सम्मलेन सभी से अत्यंत आग्रहपूर्वक अपील करता है कि जब भी उनका नाम लिखा या बोला जाए तब उसके पहले ‘पेरियार’ (अर्थात महान नेता) – इस आदरसूचक उपाधि का इस्तेमाल किया जाए।”

यह प्रस्ताव केवल तमिल महिलाओं में पेरियार के प्रति प्रशंसा भाव का सूचक नहीं है। इससे यह भी पता चलता है कि पेरियार के सामाजिक न्याय के आदर्श से तमिल महिलाओं का कितना गहरा भावनात्मक और बौद्धिक लगाव था।

जागरूक महिलाओं का नेतृत्व

यह सम्मलेन कई मायनों में मील का पत्थर था। इसकी अध्यक्षता सुप्रसिद्ध तमिल विद्वान मरैमलाई अडिगल की बेटी नीलम्बिकई ने की थी – यह एक तरह से तमिल विद्वता और समाज सुधार के संगम का प्रतीक था। सम्मलेन का आयोजन अग्रणी नारीवादी और सामाजिक कार्यकर्ता अन्नई मीनमबई सिवराज और महिला शिक्षा व अधिकारों के शुरुआती पैरोकारों में से एक डॉ. धर्ममबल ने मिलकर किया था।

‘विदुथलाई’ अखबार के 16 नवंबर, 1938 के अंक में प्रकाशित तस्वीर

ये महिलाएं केवल पेरियार की प्रशंसक नहीं थीं। वे सामाजिक मुक्ति के उनके आंदोलन में शामिल थीं, उसमें भागीदार थीं। उनके नेतृत्व में सम्मलेन का आयोजन इस बात का प्रतीक था कि महिलाओं की चेतना जागृत हो रही थी और वे नई सामाजिक व्यवस्था को आकार देने के अभियान में भाग लेने के लिए तैयार थीं। ई.वी. रामासामी को ‘पेरियार’ की उपाधि से नवाज़ कर वे दुनिया को बता रही थीं कि पेरियार केवल पुरुषों के नेता नहीं हैं, वरन् महिलाओं के उद्धारक और उनकी गरिमा के रक्षक भी हैं।

‘पेरियार’ का अर्थ और प्रतीकात्मकता

‘पेरियार’ का शाब्दिक अर्थ होता है ‘महान नेता’। मगर आगे चलकर इस शब्द ने एक विस्तारित अर्थ ले लिया – वह एक विचार बन गया, एक नैतिक प्राधिकार और प्रतिरोध का प्रतीक बन गया। वह बिना डर के सच बोलने, समानता और तार्किकता का प्रतीक बन गया। रामासामी को इस उपाधि से अलंकृत कर तमिलनाडु की महिलाएं उन्हें बेड़ियों से मुक्त करवाने में पेरियार के बेमिसाल योगदान को मान्यता दे रही थीं। इनमें शामिल था बालविवाह, जातिगत भेदभाव, पितृसत्तात्मक रस्मों-रिवाजों और महिलाओं को शिक्षा से वंचित रखने का उनका विरोध।

पेरियार का यह मानना था कि कोई समाज तब तक उन्नति नहीं कर सकता जब तक कि उसकी महिलाएं अज्ञानता और सामाजिक पराधीनता से मुक्त नहीं हो जातीं। उन्होंने जिस तरह से महिला शिक्षा, महिलाओं को संपत्ति के अधिकार और सामाजिक जीवन में उनकी भागीदारी की वकालत की, वह उस काल के लिए क्रांतिकारी थी। सन् 1938 में जो महिलाएं चेन्नई में इकट्ठा हुई थीं, उन्होंने पेरियार की शिक्षाओं की परिवर्तनकारी भूमिका का प्रत्यक्ष अनुभव किया था और इसलिए उन्होंने पेरियार को इस उपाधि से नवाज़ कर महिलाओं की एक पूरी पीढ़ी की उनके प्रति श्रद्धा को अभिव्यक्त किया।

1938 के प्रस्ताव की धरोहर

सन् 1938 का महिला सम्मेलन दक्षिण भारत में समाज सुधार के इतिहास के सबसे चमकीले अध्यायों में से एक था। इस मौके पर महिलाओं ने उन्हें मुक्ति दिलवाने में उसकी भूमिका के लिए एक पुरुष को औपचारिक रूप से सम्मानित किया। यह एक अनूठा और अत्यंत प्रभावी कदम था। महिलाओं द्वारा ही उन्हें ‘पेरियार’ की उपाधि से नवाज़ा जाना इस उपाधि को अद्वितीय नैतिक सार्थकता प्रदान करता है।

यह सम्मेलन तत्समय की तमिल महिलाओं की बौद्धिक परिपक्वता को भी रेखांकित करता है। महिलाएं केवल पेरियार के प्रति अपने भक्तिभाव का प्रदर्शन नहीं कर रहीं थीं। वे एक राजनीतिक घोषणा कर रही थीं। वे यह कह रही थीं कि वे अपने अधिकारों और समाज में अपनी भूमिका से वाकिफ हैं और उन नेताओं को अच्छी तरह से पहचानती हैं जो सच्चे अर्थों में उनकी उन्नति के लिए काम कर रहे हैं।

उस दिन के बाद से, ई.वी. रामासामी केवल एक समाज सुधारक नहीं रहे – वे अब पेरियार थे – महान नेता। इस नाम ने कई पीढ़ियों को समानता, तार्किकतावाद और आत्मसम्मान के लिए लड़ने की प्रेरणा दी।

सन् 1938 का महिला सम्मेलन, सुधारक और सुधार से लाभान्वित होने वालों, नेता और अनुयायियों के बीच परस्पर सम्मान का दैदीप्यमान उदाहरण है। तमिल महिलाओं ने ई.वी. रामासामी को सामूहिक रूप से मान्यता और सम्मान देकर, न्याय, हिम्मत और करुणा के आदर्शों – पेरियार जिसके मूर्त रूप थे – को अमरत्व प्रदान किया।

आज आठ दशक बाद भी उस प्रस्ताव की गूंज सुनी जा सकती है। वह प्रस्ताव हमें यह याद दिलाता है कि महानता स्व-घोषित नहीं होती। असली महानता तो वह है जिससे वे कृतज्ञ लोग आपको अलंकृत करते हैं जिनके जीवन में आप परिवर्तन लाए हैं।

(मूल अंग्रेजी लेख ‘ओबीसी वॉइस’ पत्रिका के नवंबर, 2025 के अंक में प्रकाशित है)

(अनुवाद : अमरीश हरदेनिया, संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

जी. सरस्वती

लेखिका यूनियन बैंक ऑफ़ इंडिया बैकवर्ड एम्प्लाइज वेलफेयर एसोसिएशन, तमिलनाडु की कोषाध्यक्ष हैं

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