h n

विधायकों-नेताओं के नाम खुला पत्र – झारखंड के 25 साल : कौन खाया, कौन खोया?

आप, झारखंड के राजनीतिक नेतागण, इसके लिए मुख्य रूप से ज़िम्मेदार हैं। झारखंड आंदोलन के दिग्गजों से प्रेरणा और सीख लेने और आम लोगों के लिए काम करने के बजाय, आपने खुद को अमीर बनाने के लिए शोषकों से हाथ मिला लिया है। पढ़ें, झारखंड जनाधिकार महासभा द्वारा जारी यह खुला पत्र

[यह खुला पत्र झारखंड जनाधिकार महासभा द्वारा जारी किया गया है। इस पत्र पर झारखंड के अनेक सामाजिक कार्यकर्ताओं के हस्ताक्षर हैं। इनमें शामिल हैं– अजय एक्का, अलोका कुजूर, अमन मरांडी, अफज़ल अनीस, अम्बिका यादव, अम्बिता किस्कू, अपूर्वा, अरुनांशु बनर्जी, अशोक वर्मा, भरत भूषण चौधरी, बिंसय मुंडा, बिरसिंग महतो, चार्लेस मुर्मू, चंद्रदेव हेम्ब्रम, दिनेश मुर्मू, एलिना होरो, जेम्स हेरेंज, जॉर्ज मोनिपल्ली, ज्यां द्रेज़, ज्योति बहन, ज्योति कुजूर, कुमार चन्द्र मार्डी, लीना, मंथन, मनोज भुइयां, मेरी हंसदा, मुन्नी देवी, मीना मुर्मू, नरेश पहाड़िया, प्रवीर पीटर, प्रेम बबलू सोरेन, पी एम टोनी, पुनीत मिंज, नन्द किशोर गंझू, परन, प्रवीर पीटर, रिया तुलिका पिंगुआ, राजा भाई, रंजीत किंडो, रमेश जेराई, रोज खाखा, रोज मधु तिर्की, रमेश मलतो, रेजिना इन्द्वर, रेशमी देवी, राम कविन्द्र, संदीप प्रधान, संगीता बेक, सिराज दत्ता, शशि कुमार, संतोषी लकड़ा, सिसिलिया लकड़ा, शंकर मलतो, टॉम कावला, टिमोथी मलतो, विनोद कुमार और विवेक कुमार]

सभी पार्टियों के विधायक और राजनीतिक नेतागण,

झारखंड की स्थापना की 25वीं सालगिरह के मौके पर हम आपको यह बताने के लिए लिख रहे हैं कि हम आपके काम से कितने निराश हैं, और आपसे अपील करते हैं कि आप अपने तरीके सुधारें।

झारखंड का बनना एक लंबे संघर्ष का नतीजा था। सभी समुदायों के जनहितैषी लोगों ने इस आंदोलन में अहम भूमिका निभाई। कई लोगों ने इसके लिए अपनी जान कुर्बान कर दी। उनका सपना था कि झारखंड बनने से इस इलाके के आदिवासी-मूलवासी अपने मूल्यों के अनुसार विकास कर पाएंगे – आज़ादी, समानता, दोस्ती और प्रकृति के साथ तालमेल के मूल्य। झारखंड की आज़ादी से बाहरी लोगों के शोषण का भी अंत होना था।

पच्चीस साल बाद, यह सपना मात्र बन कर रह गया है। इसमें कोई शक नहीं कि झारखंड में ज़्यादातर लोग आज 25 साल पहले के मुकाबले थोड़ी बेहतर स्थिति में हैं। लेकिन लाखों लोग आज भी घोर गरीबी में जी रहे हैं। और आज का झारखंड वैसा नहीं है जैसा उसे होना चाहिए था। छोटानागपुर और संथाल परगना की खूबसूरत सभ्यता खत्म होने के खतरे में है क्योंकि ताकतवर कंपनियां इसकी ज़मीन, खनिज और दूसरे प्राकृतिक संसाधनों पर नज़र गड़ाए हुए हैं। झारखंड के आज़ाद और स्वाभिमानी किसान मज़दूर बन रहे हैं और बदहाल शहरों की ओर जा रहे हैं। जल्द ही, झारखंड का अनोखापन खत्म हो जाएगा और बाकी भारत से अलग शायद ही कुछ बचेगा, सिवाय इसके कि यह ज़्यादा गरीब होगा।

आप, झारखंड के राजनीतिक नेतागण, इसके लिए मुख्य रूप से ज़िम्मेदार हैं। झारखंड आंदोलन के दिग्गजों से प्रेरणा और सीख लेने और आम लोगों के लिए काम करने के बजाय, आपने खुद को अमीर बनाने के लिए शोषकों से हाथ मिला लिया है। आप स्थानीय लोगों की कीमत पर झारखंड के कीमती संसाधनों को लालची कंपनियों और व्यापारियों को बेच रहे हैं। आपने सार्वजनिक शिक्षा व्यवस्था को बर्बाद होने दिया है, जिससे लाखों युवाओं को प्रवासी मज़दूर बनने पर मजबूर होना पड़ा है। आपने भ्रष्ट ठेकेदारों के साथ मिलकर नरेगा को लूटा है, जिससे लाखों लोगों से उनके काम का अधिकार छीन लिया गया है। पच्चीस सालों में, आप पेसा के लिए नियम बनाने में नाकाम रहे हैं। आपने सीएनटी-एसपीटी एक्ट और वन अधिकार अधिनियम का घोर उल्लंघन होने दिया है। आपने बड़े-बड़े ठेकाओं से खूब पैसा कमाया है, जबकि पीने का पानी, नाली और फुटपाथ जैसी बुनियादी सुविधाएं हर जगह, यहां तक कि रांची में भी गायब हैं।

12 दिसंबर, 2024 को झारखंड विधान सभा के सभी सदस्यों की सामूहिक तस्वीर (साभार : कल्पना सोरेन)

आप में से कुछ लोगों ने झारखंड के लोगों को बांटा भी है और अपनी ताकत बढ़ाने के लिए उन्हें एक-दूसरे के खिलाफ भड़काया है। ‘धन नहीं, एकता सही’, झारखंड संघर्ष के लोकप्रिय नारों में से एक था। आज इस एकता का बहुत कम हिस्सा बचा है। जब लोग आपस में लड़ते हैं तो शोषण करने वालों की मौज हो जाती है।

जब तक राजनीतिक नेता अपना तरीका नहीं बदलते, तब तक हालात सुधरने की उम्मीद नहीं है। हम आप में से कुछ लोगों को पहले से ही अपना साथी मानते हैं, और दूसरों से भी हमें कुछ उम्मीद है। लेकिन अगर आप सब ने अपना रवैया नहीं सुधारा, तो कहीं ऐसा न हो कि आप पूर्ण रूप से नकार दिए जाएं। हम उम्मीद कर रहे हैं कि नेतृत्व की एक नई पीढ़ी सामने आएगी, जिसमें ऐसे पुरुष और औरतें होंगी, जो लोगों के हितों को दिल से समझते हैं। हम पहले से ही आप में से कुछ लोगों को उनमें गिनते हैं, लेकिन ज़्यादा नहीं। अपनी तरफ से, हम अपने तरीके से बदलाव के लिए काम करते रहेंगे।


फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्‍त बहुजन मुद्दों की पुस्‍तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्‍स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्‍य, संस्‍क‍ृति व सामाजिक-राजनीति की व्‍यापक समस्‍याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्‍स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +917827427311, ईमेल : info@forwardmagazine.in

लेखक के बारे में

एफपी डेस्‍क

संबंधित आलेख

बिहार विधानसभा चुनाव : जाति के बाजार में एसआईआर का जलवा
इस चुनाव में जाति ही केंद्रीय विषय रही। जाति की पार्टी, पार्टी की जाति, जाति का उम्‍मीदवार और उम्‍मीदवार की जाति के आसपास पूरा...
बिहार चुनाव : एनडीए जीता तो बढ़ जाएगी विधान सभा में ऊंची जातियों की हिस्सेदारी
वर्ष 1990 में जब बिहार के सामाजिक-राजनीतिक परिदृश्य में एक मोड़ आता है और लालू यादव सत्ता की बागडोर संभालते हैं तो विधान सभा...
बिहार में भाजपा : कुर्मी के बजाय भूमिहार के माथे पर ताज की रणनीति
ललन सिंह जब अकड़-अकड़ कर मोकामा को अनंतमय कर देने और विरोधी वोटरों को घरों में बंद कर देने की बात कर रहे थे...
राहुल गांधी और एक दलित छात्र के बीच बातचीत
बिहार का अच्छा होना या देश का अच्छा होना तब तक हमारे लिए कोई मायने नहीं रखता जब तक हमारा समाज आगे नहीं बढ़ेगा,...
झारखंड उप चुनाव : जनता के हितों की नहीं, नेताओं की प्रतिष्ठा की लड़ाई
घाटशिला में भाजपा के पास एक मुद्दा यह था कि वह झामुमो के वंशवाद पर आक्रमण करती, लेकिन चंपई सोरेन के पुत्र को मैदान...