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न्यायपालिका में प्रतिबंधित

देश की उच्च न्यायिक संस्थायें कुछ घरानों के हाथों में सिमटी नजर आती हैं। इस कुलीनतंत्र को सरकार भी समाप्त नहीं करना चाहती। सरकार द्वारा प्रस्तावित सुधारों में आरक्षण नियमों का अनुपालन सुनिश्चित करवाना शामिल नहीं हैं

सरकार उच्च न्यायपालिका में न्यायाधीशों की नियुक्ति की प्रक्रिया में सुधार करना चाह्ती है और कोलीजियम पद्धति के स्थान पर उच्च न्यायालयों व उच्चतम न्यायालय में न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए नये नियम बनाना चाहती है। सरकार और उच्चतम न्यायालय में इस बारे में मतभेद हैं। कोलीजियम पद्धति में न्यायाधीश ही न्यायाधीश की नियुक्ति करते हैं। देश में संविधान का अनुपालन सुनिश्चित करने के लिए बनी यह संस्था अपने यहाँ नियुक्तियों पर एकाधिकार क्यों चाहती है? क्या कारण है कि आरक्षण जैसी समावेशी व्यवस्था को न्यायपालिका में तरजीह नहीं दी गई? योग्यता के नाम पर देश की उच्च न्यायिक संस्थायें कुछ घरानों के हाथों में सिमटी नजर आती हैं। इस कुलीनतंत्र को सरकार भी समाप्त नहीं करना चाहती। सरकार द्वारा प्रस्तावित सुधारों में आरक्षण नियमों का अनुपालन सुनिश्चित करवाना शामिल नहीं हैं।

PB-240815

उच्च और उच्चतम न्यायालयों में आरक्षण की अनदेखी से राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग चिंतित है। आयोग ने इस विषय पर अपनी 11 दिसंबर, 2014 को प्रस्तुत रपट में चिंता व्यक्त की है। उसके अनुसार, न्यायपालिका का वर्तमान ढांचा, सामाजिक समानता और न्याय के राष्ट्रीय उद्देश्य को परा नहीं करता। आयोग के अनुसार, ‘दुर्भाग्य से, अधिकांश न्यायाधीशों को समाज के उन्हीं वर्गों से लिया जाता है जो युगों पुराने सामाजिक पूर्वाग्रहों से ग्रस्त हैं। अधिकांश मामले में ऐसे न्यायाधीशों के वर्ग हित और सामाजिक अवरोध, उनके द्वारा बौद्धिक ईमानदारी और सत्यनिष्ठा से अपने निर्णय सुनाने में बाधक बनते हैं। हाल ही में मद्रास उच्च न्यायालय के न्यायाधीश सीएस कर्णन, जो अनुसूचित जाति के हैं, को ऊंची जाति के अपने साथी न्यायाधीशों के हाथों उत्पीडऩ का शिकार होना पड़ा। छतीसगढ़ के 17 जिला न्यायाधीशों, जो कि सभी अनुसूचित जाति/जनजाति के हैं, को कथित रूप से बिना किसी वैध कारण के सेवाच्युत कर दिया गया, जबकि उनका 5 से 10 वर्षों का सेवाकाल बाकी था और वे उच्च न्यायालय न्यायाधीश के रूप में पदोन्नत हो सकते थे।

आयोग का यह भी मानना है कि न्यायालय, अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के लोगों की ह्त्या के दोषी व्यक्तियों को मृत्युदण्ड देने से कतराते हैं। अब तक न्यायपालिका की समाज के वंचित वर्गों के प्रति न तो सहानुभूति रही है और ना ही निष्पक्ष।’आयोग ने 15 मार्च 2000 को दी गई करिया मुंडा रिपोर्ट के आधार पर न्यायालयों के कर्मचारियों की सामाजिक पृष्ठभूमि पर भी चिंता जताई है।

आयोग के अनुसार ‘बंबई उच्च न्यायालय और दिल्ली उच्च न्यायालय, 61 वर्षों से आरक्षण नीति का पालन नहीं कर रहे हैं। मद्रास और राजस्थान उच्च न्यायालयों में राजपत्रित पदों पर नियुक्ति और पदोन्नति में अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के लिए कोई आरक्षण नहीं है। इलाहाबाद, आन्ध्रप्रदेश, केरल, पंजाब एवं हरियाणा, पटना और मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय पदोन्नति में आरक्षण का अनुपालन नहीं करते हैं।’

वर्ष 2011 में, देश के 21 उच्च न्यायालयों में कुल 850 जजों में से केवल 24 जज अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के थे और 14 उच्च न्यायालयों में अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति का एक भी न्यायाधीश नहीं था। इसी प्रकार, उच्चतम न्यायालय, जिसमें न्यायाधीशों की पदसंख्या 31, में एक भी न्यायाधीश अनुसूचित जाति/जनजाति का नहीं था।

अपनी विस्तृत रिपोर्ट में आयोग ने सिफारिश की है कि केशवानंद भारती मामले (1973, एससीआरआई, सप्लीमेंटरी, पृष्ठ 830) में निर्णय के अनुसार, उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों को राज्य माना जाये तथा जजों की नियुक्ति के लिए कोलीजियम पद्धति को ख़त्म कर राष्ट्रीय न्यायिक आयोग का गठन किया जाये, जिसमें अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अन्य पिछड़ा वर्ग तथा अल्पसंख्यक श्रेणी का एक-एक सदस्य हो। साथ ही उच्च न्यायालय एवं उच्चतम न्यायालय में नियुक्तियां करते समय राष्ट्रीय न्यायिक आयोग को यह ध्यान रखना होगा तथा देखना होगा कि न्यूनतम आरक्षण 49.5 प्रतिशत – अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए 27 प्रतिशत, अनुसूचित जाति के लिए 15 प्रतिशत तथा अनुसूचित जनजाति के लिए 7.5 प्रतिशत आरक्षण – का अनुपालन किया जाये। नई नियुक्तियों की शुरुआत अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति से की जानी चाहिए (50 प्रतिशत की सीमा तक) और यह तब तक जारी रहनी चाहिए, जब तक कि अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के लिए 22.5 प्रतिशत आरक्षण हासिल हो जाये।

न्यायिक संस्थानों में नियुक्तियों में जातिवाद का प्रभाव नहीं पड़े, इसके लिए आयोग ने यह अनुशंसा की है कि उच्च न्यायालयों और उच्चतम न्यायालय में जजों की नियुक्ति के लिए अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के व्यक्तियों को अंतिम रूप से अस्वीकार करने से पहले उन्हें अस्वीकार करने के कारणों का रिकार्ड रखा जाये। निष्पक्षता सुनिश्चित करने के लिए परीक्षा संचालित की जानी चाहिए तथा साक्षात्कार की वीडियोग्राफी की जानी चाहिए।

आयोग के इन सुझावों पर सरकार का रुख स्पष्ट नहीं हो सका है लेकिन कोलीजियम पद्धति के प्रति अनुराग प्रदर्शित करती न्यायपालिका से इनका अनुपालन सुनिश्चित करवाना आसान नहीं होगा।

सर्वोच्च न्यायालय में जाति प्रतिनिधित्व

वर्ष 1950-70 1971-89 1950-89
जाति प्रतिशत प्रतिशत प्रतिशत
ब्राह्मण  40.0  45.2  42.9
अन्य द्विज  57.1  42.9  49.4
अनुसूचित जाति  0.0  4.6  2.6
अनुसूचित जनजाति  0.0  0.0  0.0
पिछड़ा वर्ग  2.9  6.8  5.2

स्रोत: गैडबोइज जूनियर, 2011, (जिंदल जर्नल ऑफ  पब्लिक पॉलिसी)

उच्च न्यायालयों में अनुसूचित जाति व जनजाति के कर्मचारियों के प्रतिनिधित्व का जहां तक संबंध है, स्थिति बहुत ही निराशाजनक है, जिनका ब्यौरा दिनांक 15.3.2000 को संसद में प्रस्तुत करिया मुंडा की रिपोर्ट में दिया गया है, वह निम्नवत् है : –

क्र.सं. उच्च न्यायालय कर्मचारियों की कुल संख्या अजा कर्मचारी अजजा कर्मचारी
संख्या प्रतिशत संख्या प्रतिशत
1 इलाहाबाद  2583
2 आंध्र प्रद 1304(231ओबीसी)  106  8.12  9  0.69
3 बॉम्बे  2171  238  10.96  23  1.06
4 कलकत्ता  563  38  6.75  8  1.42
5 दिल्ली
6 गुवाहाटी  462  41  8.87  37  8.00
7 गुजरात  685  60  8.76  43  6.28
8 हिमाचल प्रदेश  351  55  15.67  2  0.57
9 जम्मू एवं कश्मीर  354  22  6.22  11  3.11
10 कर्नाटक  1253  103  8.22  20  1.60
11 केरल  400  30  7.50  –  –
12 मध्य प्रदेश 1224(ओबीसी )  48  3.92  21  1.72
13 मद्रास  1277  146  11.43  2  0.15
14 उड़ीसा  595  68  11.43  5  0.84
15 पटना  1151  115  10  49  4.25
16 पंजाब और हरियाणा  684 70(अजा +अजजा) 10.23(अजा +अजजा)
17 राजस्थान  933  42  4.50  5  0.54
18 सिक्किम  107  9  8.41  37  31.58

 

फारवर्ड प्रेस के जनवरी, 2016 अंक में प्रकाशित 

लेखक के बारे में

रवीन्द्र मीणा

केंद सरकार की नौकरियों व उच्च अध्ययन संस्थानों में आरक्षण के प्रावधानों के उल्लंघन पर पैनी नजर रखने वाले रवींद्र मीणा सोशल मीडिया पर आदिवासी मुद्दों पर लिखने वालों में जाने पहचाने नाम हैं। वे आरक्षण संबंधी आंकडों के विश्लेषण के लिए भी चर्चित रहे हैं

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