h n

हम आदिवासियों के लिए जंगल संसाधन नहीं, हमारा जीवन है : वंदना टेटे

हम आदिवासियों की जो संस्कृति रही है, वह प्रकृतिवाद पर आधारित है। कहने के लिए तो दुनिया में हम सभी लोग स्वयं को प्रकृतिवादी कहते हैं। लेकिन आप अगर देखेंगीं तो क्या वास्तव में लोग प्रकृति की पूजा कर रहे हैं? प्रकृति की पूजा कहने का मतलब क्या है? झारखंड की आदिवासी अध्येता वंदना टेटे से ज्योति पासवान की बातचीत

साक्षात्कार

आदिवासी भषाओं की अध्येता, लेखिका, कवयित्री, प्रकाशक, सामाजिक-सांस्कृतिक कार्यकर्ता वंदना टेटे के विमर्श के केंद्र में ‘आदिवासियत’ रही है। वह आदिवासियत की वैचारिकी और सौंदर्यबोध के मूल तत्त्वों की सहज तरीके से व्याख्या करती हैं। आदिवासी साहित्य की दार्शनिक अवधारणा में उनकी स्थापना है कि आदिवासियों की साहित्यिक परंपरा औपनिवेशिक और ब्राह्मणवादी शब्दावलियों और विचारों से बिल्कुल भिन्न है। आदिवासी जीवनदृष्टि पक्ष-प्रतिपक्ष को स्वीकार नहीं करता। आदिवासियों की दृष्टि समतामूलक है और उनके समुदायों में व्यक्ति केन्द्रित और शक्ति संरचना के किसी भी रूप का कोई स्थान नहीं है। उनकी प्रकाशित रचनाओं में ‘पुरखा लड़ाके’ (2005), ‘किसका राज है’ (2009), ‘झारखंड एक अंतहीन समरगाथा’ (2010) ‘असुर सिरिंग’ (2010), ‘पुरखा झारखंडी साहित्यकार और नये साक्षात्कार’ ( 2012), ‘आदिम राग’ (2013), ‘आदिवासी साहित्यः परंपरा और प्रयोजन’ (2013), ‘आदिवासी दर्शन कथाएं’ (2014), ‘आदिवासी दर्शन और साहित्य’ (सं) 2015, ‘वाचिकता, आदिवासी साहित्य एवं सौंदर्यबोध’ (सं) 2016, ‘लोकप्रिय आदिवासी कहानियां’ (सं) 2016, ‘लोकप्रिय आदिवासी कविताएं’ (सं) 2016, ‘प्रलाप’ (1935 में प्रकाशित भारत की पहली हिंदी आदिवासी कवयित्री सुशीला सामद का प्रथम काव्य संकलन) (सं) 2017, ‘कवि मन जनी मन’ (सं) 2019, और ‘हिंदी की आरंभिक आदिवासी कहानियां’ (सं) 2020 आदि शामिल हैं। युवा साहित्यकार ज्योति पासवान ने उनसे दूरभाष पर विशेष बातचीत की। प्रस्तुत है इस बातचीत का संपादित अंश

कृपया अपने जन्म और पारिवारिक पृष्ठभूमि के बारे में बतायें और प्रारंभिक शिक्षा के बारे में बतायें ।

मेरा जन्म 13 सितम्बर 1969 को अपने ननिहाल में झारखंड के सिमडेगा जिले में हुआ। उस समय यह सब-डिविजन हुआ करता था। मेरे नाना प्यारा केरकेट्टा बहमुखी प्रतिभावान व्यक्ति थे। पहले वे एक शिक्षक थे । शिक्षक के रूप में जब वे सिमडेगा में आए तब उन्होंने एक शिक्षक के साथ-साथ समाज-सुधार करने का भी कार्य किया। वे गाँव-गाँव में घूमकर लोगों को शिक्षा के लिए प्रेरित करने के साथ-साथ स्कूल के लिए जमीन दान करने के लिए भी प्रेरित किया। जब कोई आदिवासी अपनी जमीन स्कूल के लिए दान में दे देता तो लोगों के सहयोग से ही वे वहाँ पर स्कूल का निर्माण करके वहाँ शिक्षा की व्यवस्था करते थे। शुरुआती दिनों में वे ‘आदिवासी महासभा’ से जुड़े थे। बाद में उन्होंने कांग्रेस की सदस्यता ग्रहण कर ली। हालांकि उस समय उनका काफी विरोध हुआ था।

पूरा आर्टिकल यहां पढें : हम आदिवासियों के लिए जंगल संसाधन नहीं, हमारा जीवन है : वंदना टेटे

लेखक के बारे में

ज्योति पासवान

दिल्ली विश्वविद्यालय से हिंदी साहित्य में एम.ए. ज्योति पासवान काज़ी नज़रुल विश्वविद्यालय, आसनसोल, पश्चिम बंगाल में पीएचडी शोधार्थी हैं

संबंधित आलेख

सोहराय पर्व : प्रकृति, पशु और संस्कृति का अद्भुत आदिवासी उत्सव
सोहराय पर्व की परंपरा अत्यंत प्राचीन मानी जाती है। इसकी जड़ें मानव सभ्यता के उस युग से जुड़ी हैं जब मनुष्य ने खेती-बाड़ी और...
अशराफ़िया अदब को चुनौती देती ‘तश्तरी’ : पसमांदा यथार्थ की कहानियां
तश्तरी, जो आमतौर पर मुस्लिम घरों में मेहमानों को चाय-नाश्ता पेश करने, यानी इज़्ज़त और मेहमान-नवाज़ी का प्रतीक मानी जाती है, वही तश्तरी जब...
रामेश्वर अहीर, रामनरेश राम और जगदीश मास्टर के गांव एकवारी में एक दिन
जिस चौराहे पर मदन साह की दुकान है, वहां से दक्षिण में एक पतली सड़क जाती है। इस टोले में कोइरी जाति के लोग...
‘होमबाउंड’ : दमित वर्गों की व्यथा को उजागर करता अनूठा प्रयास
नीरज घेवाण और उनकी टीम ने पत्रकार बशारत पीर द्वारा लिखित और ‘न्यूयार्क टाइम्स’ में प्रकाशित एक सच्ची कहानी के आधार पर एक शानदार...
एक और मास्टर साहेब सुनरदेव पासवान के गांव में, जहां महफूज है दलितों और पिछड़ों का साझा संघर्ष
बिहार में भूमि व मजदूरी हेतु 1960 के दशक में हुए आंदोलन के प्रणेताओं में से एक जगदीश मास्टर ‘मास्टर साहब’ के नाम से...