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महिलाओं की अस्मिता से खिलवाड़ कर कैसा देश बनाना चाहते हैं हमारे हुक्मरान?

‘सुल्ली डील्स’ के बाद अब ‘बुल्ली बाई’ ऐप में कुछ नए एंगल जोड़ दिए गए हैं। उन्हें सिर्फ़ अल्पसंख्यक महिलाओं को टारगेट नहीं करना, उन्हें सिक्खों और किसानों को भी नीचा दिखाना है, जिनकी ज़िद और जज़्बे ने प्रधानमंत्री को भी माफ़ी मांगने पर मजबूर किया। वरिष्ठ कथाकार सुधा अरोड़ा की टिप्पणी

इधर चौतरफ़ा ‘बुल्ली बाई’ नाम से तैयार किये गए मोबाइल ऐप को लेकर राजनीतिक माहौल में एक ओर आक्रोश का माहौल है, दूसरी ओर एक बड़ी जमात अपनी इस नई खुराफाती ईजाद पर लहालोट है। बदसलूकी के चरम पर पहुंचा हुआ यह ऐप भारतीय संस्कृति, तहज़ीब और नैतिक मूल्यों के तो परखच्चे उड़ा ही रहा है, बहुत से ज़रूरी सवालों को भी जन्म दे रहा है। ये सवाल सिर्फ़ महिलाओं की अस्मिता से जुड़े सवाल नहीं हैं, ये सवाल हमारे देश के दिन-पर-दिन होते हुए पतन और क्षरण को बयां कर रहे हैं। इससे आका़ओं का एक बड़ा तबका लहालोट है कि आखिर बरसों की मशक्कत के बाद वे 18-22 वर्ष के युवाओं के अंदर खास धर्म व तबकों के लोगों के प्रति, स्त्रियों के प्रति इतना जहर भरने में कामयाब रहे।

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लेखक के बारे में

सुधा अरोड़ा

चर्चित कथाकार सुधा अरोड़ा का जन्म 4 अक्टूबर, 1946 को अविभाजित भारत के लाहौर में हुआ। कलकत्ता विश्वविद्यालय से उच्च शिक्षा प्राप्त करने के उपरांत बतौर प्राध्यापक अध्यापन कार्य किया। उनके एक दर्जन से अधिक कहानी-संग्रह प्रकाशित हैं, जिनमें 'महानगर की मैथिली', 'काला शुक्रवार', 'रहोगी तुम वही' आदि बहुचर्चित रहे हैं। उनकी कृतियों में उनका उपन्यास 'यहीं कहीं था घर' भी शामिल है। इसके अलावा 'आम औरत : ज़िंदा सवाल' और 'एक औरत की नोटबुक' में उनके स्त्री-विमर्श-संबंधी आलेखों का संकलन है। उनकी कहानियां अनेक भारतीय भाषाओं के अतिरिक्त अंग्रेज़ी, फ्रेंच, पोलिश, चेक, जापानी, डच, जर्मन, इतालवी तथा ताजिकी भाषाओं में अनूदित हैं। कहानियों के अलावा सुधा अरोड़ा के प्रकाशित काव्य संग्रह हैं– 'रचेंगे हम साझा इतिहास', 'कम से कम एक दरवाज़ा' और 'यात्रा पर औरत'।

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