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‘निर्मल पाठक की घर वापसी’ : एक घिसी-पिटी गांधी की ‘हरिजनवादी’ कहानी

फिल्मों व धारावाहिकाें में दलितों में हमेशा चेतना सवर्ण समुदाय से आने वाले पात्रों के दखल के बाद ही क्यों आती है? जिस गांव के लोग इतने जागरूक हों कि एक सरकारी विद्यालय में आंबेडकर की बड़ी-सी प्रतिमा लगा सकते हैं तो क्या उनके अंदर इतनी भी जागरूकता नहीं है कि वे अपने ऊपर होने वाले अत्याचार को समझ सकें और उसके खिलाफ कुछ करने का साहस कर सकें? उन्हें आंबेडकर के होते हुए गांधी का हरिजन बनने की जरूरत ही क्यों पड़ती है? पढ़ें, नीरज बंकर की समीक्षा

जहां एक ओर ‘ओवर द टॉप’ (ओटीटी) प्लेटफार्म ने दुनियाभर की फिल्मों, वेब सीरीज आदि के माध्यम से भारतीयों को वैश्विक दृष्टिकोण दिया, वहीं दूसरी और भारतीय सवर्ण निर्माताओं ने इसे भी अपनी दक़ियानूसी और संकुचित दृष्टिकोण के जाल में बांध लिया। जबकि ओटीटी प्लेटफार्म पर एंटी-कास्ट (जाति-विरोधी) पृष्ठभूमि से आनेवाले निर्माताओं और कलाकारों ने जहां ऐसी फ़िल्में पेश कीं, जो पूर्व में जितनी भी जाति और इससे जुड़े मुद्दे पर बनी फिल्में हैं, उन सबको आईना दिखाया तथा उनके इस तरह के सामाजिक पहलुओं पर फिल्म बनाने के पैमाने को ही बदल डाला। उन्होंने दिखाया है कि एक दलित ग़रीब तो हो सकता है, मगर लाचार नहीं। वह अपनी आवाज ख़ुद उठाना जानता है। उसे किसी सवर्ण मसीहा की ज़रूरत नहीं है। इसका सबसे बढ़िया उदाहरण हैं– कर्नन, असुरन, काला, कबाली, एवं जय भीम आदि। इस तरह की फिल्मों की सूची अब लंबी हो चुकी है और इसमें वृद्धि अनवरत जारी है।

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लेखक के बारे में

नीरज बुनकर

लेखक नाटिंघम ट्रेंट यूनिवर्सिटी, नॉटिंघम, यूनाईटेड किंगडम के अंग्रेजी, भाषा और दर्शनशास्त्र विभाग के डॉक्टोरल शोधार्थी हैं। इनकी पसंदीदा विषयों में औपनिवेशिक दौर के बाद के साहित्य, दलित साहित्य, जाति उन्मूलन, मौखिक इतिहास व सिनेमा आदि शामिल हैं

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