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क्या देख कर दिए जाते हैं राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार?

जब सरकार किसी फिल्म को पुरस्कृत करती है तो वह एक संदेश भी देती है। इस साल का संदेश मिला-जुला है। जहां एक ओर ‘आत्मपॅम्फ्लेट’ को पुरस्कृत किया जाना सही दिशा में आगे बढ़ना है तो दूसरी ओर ‘द केरला स्टोरी’ को सम्मान दिया जाना एक अत्यंत प्रतिगामी कदम है, बता रहे हैं नीरज बुनकर

गत 1 अगस्त, 2025 को घोषित राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार, सन् 2023 में भारत में सिनेमा के क्षेत्र में उपलब्धियों को सम्मानित करते हैं। लेकिन इससे एक पुराना प्रश्न फिर उठ खड़ा हुआ है। ये पुरस्कार आखिर किस चीज़ को सम्मानित कर रहे हैं? क्या वे कला के क्षेत्र में उत्कृष्टता को सम्मानित कर रहे हैं? या फिर वे राष्ट्रवाद का चोला ओढ़े सांस्कृतिक और राजनीतिक अनुरूपता को पुरस्कृत करते हैं?

इस साल ‘द केरला स्टोरी’ के लिए उसके निर्देशक सुदिप्तो सेन को सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का पुरस्कार मिला। इस फिल्म को तथ्यों के साथ खिलवाड़ करने और उसमें अंतर्निहित सांप्रदायिकता के लिए आलोचना का सामना करना पड़ा था। उच्चतम न्यायालय ने भी यह आशंका व्यक्त की थी यह फिल्म सांप्रदायिक तनाव फैला सकती हैं और इसलिए उसमें कई खंडन (डिस्क्लेमर) शामिल करने का आदेश दिया था। मगर फिर भी उसे यह आधिकारिक सम्मान मिला। केरल के मुख्यमंत्री पिनयारी विजयन ने बिना लागलपेट के कहा, “एक ऐसी फिल्म जो सांप्रदायिक नफरत के बीज बोने और केरल के छवि पर कालिख पोतने के साफ़ इरादे से खुल्लम-खुल्ला झूठ को सच बताती है, को सम्मानित कर जूरी उस नॅरेटिव को वैधता प्रदान की है, जिसकी जड़ें संघ परिवार की विघटनकारी विचारधारा में है।” 

विजयन की आलोचना से इस संदेह को बल मिलता है कि विजेताओं के चुनाव में राजनीति की भूमिका होती है और ये पुरस्कार केवल सिनेमाई उत्कृष्टता को मान्यता नहीं देते, बल्कि वे कुछ नॅरेटिव्स को सही ठहराना चाहते हैं।

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मगर बात यह है कि इसमें नया कुछ भी नहीं है। राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों पर हमेशा से राजनीति की छाया रही है। कांग्रेस के राज में जूरी द्वारा फिल्मों के चयन में भी सरकार का प्रभाव नज़र आता था। मगर फिर भी उस दौर में असहमति के लिए थोड़ी-बहुत जगह थी। ‘फैन्ड्री’ (2O13, निर्देशक की पहली सर्वश्रेष्ठ फिल्म) और ‘पेरारियाथावर’ (2014, सामाजिक मुद्दे पर सर्वश्रेष्ठ फिल्म) को जातिगत और प्रणालीगत ऊंच-नीच को उजागर करने के लिए पुरस्कृत किया गया था।

हालांकि सन् 2014 के बाद से शुरू हुए एनडीए के शासनकाल में असहमति के लिए जगह और सिकुड़ी है। मगर फिर भी, कुछ जाति-विरोधी और राजनीति पर तीखी टिप्पणियां करती फिल्मों को पुरस्कारों की सूची में जगह मिल सकी है। इनमें शामिल हैं– ‘कोर्ट’ (2014, सर्वश्रेष्ठ फीचर फिल्म), ‘मसान’ (2015, किसी निर्देशक की सर्वश्रेष्ठ पहली फिल्म), ‘कुट्टरम कडिथाल’ (2015, सर्वश्रेष्ठ तमिल फीचर फिल्म), ‘असुरन’ (2019, सर्वश्रेष्ठ तमिल फीचर फिल्म, सर्वश्रेष्ठ पुरुष अदाकार) और ‘आत्मपॅम्फ्लेट’ (2023, किसी निर्देशक की सर्वश्रेष्ठ पहली फिल्म)। इन फिल्मों को केवल नाम के लिए सम्मानित नहीं किया गया। ये दिखातीं हैं कि किस प्रकार सांस्कृतिक घुटन के वातावरण में भी प्रभावी नॅरेटिव को दरकिनार नहीं किया जा सकता।

फिल्म ‘आत्मपॅम्फ्लेट’ का एक दृश्य

इस सिलसिले में आशीष अविनाश बेनदे की ‘आत्मपॅम्फ्लेट’ एक महत्वपूर्ण फिल्म है। यह एक युवा होते व्यक्ति में जाति-विरोधी चेतना के जागृत होने की कहानी कहती है। वह प्रवचन नहीं देती और इसलिए उसे नज़रंदाज़ करना और मुश्किल है। वह संस्थागत सीमाओं के भीतर रहते हुए प्रतिरोध को चित्रित करती है। उसे पुरस्कृत किया जाना उन लोगों की जीत है जो अपने को अदृश्य बना दिए जाने का प्रतिरोध कर रहे हैं। वह सन् 2014 के बाद से दलित फिल्म निर्माताओं द्वारा निर्मित जाति-विरोधी फिल्मों की शृंखला का हिस्सा है। संस्थागत उदासीनता या प्रतिरोध के बावजूद भी ऐसी फिल्मों की मौजूदगी बढ़ी है। ये फिल्में परायी नहीं लगतीं। वे एक दिन-प्रतिदिन ताकत बटोरती सांस्कृतिक शक्ति का प्रतिनिधित्व करती हैं, जिसे राज्य भी हाशिये पर नहीं धकेल पा रहा है।

इन सबके बावजूद समाज से टकराने वाली कुछ अन्य फिल्मों जैसे ‘पॅपिलियो बुद्ध’ (2013), को सेंसर किया गया और पुरस्कार के लिए उन पर विचार भी नहीं किया गया। हिंदुत्ववादी राष्ट्रवाद के परवान चढ़ने के बाद से किसे पुरस्कृत किया जाना है, के साथ ही यह भी महत्वपूर्ण बन गया है कि किसे चुप कर दिया जाना है। जिन फिल्मों में जातियों का नाम लिया जाता है, जिनमें राज्य द्वारा हिंसा दिखाई जाती है या बहुसंख्यकवादी राजनीति का चित्रण होता है, उन पर तो जूरी विचार ही नहीं करती और उन्हें डिस्ट्रीब्यूटर भी नहीं मिलते। ‘काला’ और ‘सैराट’ सांस्कृतिक भूचाल पैदा करने वाली फिल्में थीं, मगर उन्हें कोई पुरस्कार नहीं मिला। संस्थागत उदासीनता के बावजूद ये फिल्में पूरे देश में चर्चा का विषय बनीं। आज भी इस तरह की फिल्में या तो ओटीटी पर देखी जा सकतीं हैं या फिल्म उत्सवों में। वहां उन्हें सरकारी मान्यता की ज़रूरत नहीं रहती। पुरस्कारों के मामले में ऐसी फिल्मों को चुना जाता है जो असहमति तो दिखाती हैं मगर केवल उस हद तक जिसे बर्दाश्त किया जा सकता है, झेला जा सकता है। इसी कारण ‘आत्मपॅम्फ्लेट’ को मिला सम्मान महत्वपूर्ण है। यह बताता है कि व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन की पैरोकारी करने वाली फिल्में भी व्यस्वथा द्वारा निर्मित दीवारों में सेंध लगा सकती हैं, बशर्ते वे अपनी बात नरमी से कहें।

घोषित पुरस्कारों में एक अप्रत्याशित नाम है। और वह है शाहरुख खान का। उन्हें ‘जवान’ के लिए (‘12वीं फेल’ के लिए विक्रांत मेस्सी के साथ) सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार मिला है। शाहरुख़ खान को पहली बार राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार मिला है। ‘जवान’ ने बॉक्स ऑफिस पर झंडे नहीं गाड़े थे। वह आमलोगों की पसंद का ख्याल रखते हुए बनी एक फिल्म थी। मगर वह राज्य की हिंसा, सड़ांध मारती व्यवस्था और सांठगांठ वाले पूंजीवाद पर तीखा हमला करती है। खान, जो निसंदेह आज के भारत के सबसे जाने-पहचाने मुस्लिम फ़िल्मी सितारे हैं, को इस फिल्म के लिए, इस दौर में पुरस्कार मिलना, सचमुच अहम् है। यह बताता है कि व्यवस्था में अब भी कुछ दरारें हैं, जिनके रास्ते उसके अंदर घुसा जा सकता है। या शायद यह भी हो सकता है कि मुख्यधारा के दर्शकों को ध्यान में रखते हुए बनाई गई फिल्म होने के चलते यह फिल्म ‘कर्णन’ या ‘परियेरुम पेरुमल’, जो जातिगत हिंसा और उसके प्रतिरोध का बिना किसी लाग-लपेट के चित्रण करती हैं, की तुलना में कम खतरनाक लगती है।

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मगर हमें यह तो पूछना ही होगा कि क्या इन फिल्मों को मिली स्वीकार्यता अपवाद है या किसी सांस्कृतिक बदलाव की ओर इंगित करती है।

संस्कृति और राजनीति, दोनों में खुलेपन की जगह संकीर्णता ने ले ली है। चुनावी राजनीति ध्रुवीकृत होती जा रही है। इसके साथ ही सांस्कृतिक संस्थाएं, जिनमें प्रतिद्वंद्वी विचारों के बीच बेलगाम कुश्ती चलती रही है, को एकसार बनाने की कोशिशें हो रही हैं। एक अच्छी फिल्म को न केवल ‘राष्ट्रवादी’ लगना चाहिए वरन वह ऐसी होनी चाहिए जिससे देश के मूड में बदलाव न आए। प्रश्न यह नहीं हैं कि क्या पुरस्कार के लिए चयन की प्रक्रिया में धांधली होती है। असली प्रश्न यह है कि किस तरह के सौंदर्यशास्त्र और किस तरह की राजनीति को ‘राष्ट्रीय’ कहा जा सकता है? किस तरह के रोष को वैध कहा जा सकता है और किस तरह की चुप्पी को पुरस्कृत किया जा सकता है?

आज राष्ट्रीय पुरस्कारों के लिए चयन की प्रक्रिया में चुनिंदा फिल्मों पर विचार किया जाता है। असहमति स्वीकार्य है बशर्ते वह झेलने लायक और सीमित हो या रणनीतिक दृष्टि से उपयोगी। नंगी और तीखी आलोचना – विशेषकर जिसमें जातियों या सत्ताधारी पार्टी का नाम लिया गया हो – स्वीकार्य नहीं है। फिर भी, जब सरकार किसी फिल्म को पुरस्कृत करती है तो वह एक संदेश भी देती है। इस साल का संदेश मिला-जुला है। जहां एक ओरआत्मपॅम्फ्लेट’ को पुरस्कृत किया जाना सही दिशा में आगे बढ़ना है वहीं दूसरी ओर ‘द केरला स्टोरी’ को सम्मान दिया जाना एक अत्यंत प्रतिगामी कदम है।

तो बड़ी लडाई किसी एक पुरस्कार या जूरी के बारे में नहीं है। वह उन सांस्कृतिक संस्थाओं पर अपना दावा फिर से स्थापित करने के बारे में हैं, जिन्हें सॉफ्ट प्रोपेगंडा के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है। यह लड़ाई इसकी है कि जाति-विरोधी और बहुसंख्यकवाद-विरोधी सिनेमा, भारत के सांस्कृतिक मंच के केंद्र में होना चाहिए, उसके हाशिए पर नहीं।

(मूल अंग्रेजी से अनुवाद : अमरीश हरदेनिया, संपादन : राजन/नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

नीरज बुनकर

लेखक नाटिंघम ट्रेंट यूनिवर्सिटी, नॉटिंघम, यूनाईटेड किंगडम के अंग्रेजी, भाषा और दर्शनशास्त्र विभाग के डॉक्टोरल शोधार्थी हैं। इनकी पसंदीदा विषयों में औपनिवेशिक दौर के बाद के साहित्य, दलित साहित्य, जाति उन्मूलन, मौखिक इतिहास व सिनेमा आदि शामिल हैं

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