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बीते वर्ष 2023 की फिल्मों में धार्मिकता, देशभक्ति के अतिरेक के बीच सामाजिक यथार्थ पर एक नज़र

जाति-विरोधी फिल्में समाज के लिए अहितकर रूढ़िबद्ध धारणाओं को तोड़ने और दलित-बहुजन अस्मिताओं को पुनर्निर्मित करने में सक्षम नज़र आती हैं। वे दर्शकों को सिनेमाई चरित्र-चित्रण को समालोचनात्मक बहुजन लेंस से देखने का मौका देती हैं, जिससे प्रतिरोध को प्रोत्साहन मिलता है और आत्मसम्मान में वृद्धि होती है। बता रहे हैं नीरज बुनकर

बीते वर्ष 2023 में हिंदी फिल्म निर्माताओं ने सामाजिक और पारिवारिक जटिलताओं को उकेरते विविध कथानक प्रस्तुत किए। इनमें से कुछ फिल्मों की थीम देशभक्ति भी थी, जिनमें सैनिकों और उनसे जुड़े मिथकों की भूमिका रही। फिर बायोपिक भी बने और जाति-विरोधी ऐसी फिल्में भी, जो हमारे समाज के बेचैन करने वाला सच हमारे सामने लाती हैं। 

2023 में रिलीज़ हुई हिंदी फिल्मों का यह विश्लेषण अनजाने में कुछ फिल्मों को नज़रअंदाज़ कर सकता है क्योंकि इसका फोकस ऐसी फिल्मों पर है, जिन्होंने हिंदी फिल्म उद्योग का ध्यान खींचा। इसके साथ ही, ऐसी कई फिल्में इस विश्लेषण में शामिल हो सकती हैं, जिन्हें दर्शकों का बहुत प्रतिसाद नहीं मिला, मगर जो इस विशेलेषण के संदर्भ में महत्वपूर्ण हैं। पहले भाग से आगे

भाग-2 : देशभक्ति व धार्मिक फिल्में 

पठान (निर्देशक सिद्धार्थ आनंद), जवान (अरुण कुमार उर्फ़ एटली), मिशन मजनू (शांतनु बागची) और टाइगर 3 (मनीष शर्मा) जैसी फिल्में जासूसों और सैनिकों के किस्से दिखाकर आपमें राष्ट्रवाद का भाव जगाना चाहती हैं। द वैक्सीन वॉर (निर्देशक विवेक अग्निहोत्री) और द केरला स्टोरी (निर्देशक सुदिप्तो सेन), गुज़रे कल की पुनर्व्याख्या और गलत व्याख्या करतीं हैं और इसमें देशभक्ति का तड़का भी लगातीं हैं। यह मिश्रण राष्ट्रवादियों को भाता है, जिन्हें चाहिए होते हैं अपने हीरो और यह आश्वस्ति कि अतीत का घटनाक्रम उनकी सोच को एकदम सही सिद्ध करता है। 

ओम राउत द्वारा निर्देशित आदिपुरुष, महाकाव्य रामायण की कथा फिर से सुनाती है। इस तरह के पुनर्वाचन से पहले से ही सुस्थापित ब्राह्मणवाद और उससे जन्मी सामाजिक ऊंच-नीच और मज़बूत होती है और दलित-बहुजन दृष्टिकोण से दृष्टव्य विविधतापूर्ण परिप्रेक्ष्य और व्याख्याएं अदृश्य हो जाती हैं। इन फिल्मों में एक विशिष्ट ब्राह्मणवादी वर्चस्ववादी विचारधारा के प्रति झुकाव स्पष्ट परिलक्षित होता है। यह झुकाव कुछ समुदायों और विचारधाराओं को एक विशिष्ट दर्जा देता है और अन्यों को नज़रअंदाज़ या हाशियाकृत करता साफ़ नज़र आता है। ऐसा लगता है कि ये फिल्में एक एजेंडा के तहत बनाई गईं हैं और वह एजेंडा है– सामाजिक-राजनीतिक यथार्थ का पूर्वाग्रहपूर्ण प्रस्तुतीकरण। 

राजकुमार हिरानी द्वारा निर्देशित फिल्म डंकी की शुरुआत में नायक हार्डी (जिसका किरदार शाहरुख़ खान ने अदा किया है) अपने वतन भारत के प्रति अपनी अटल वफ़ादारी की उद्घोषणा करता है। जब एक जज उसे शरण देने का प्रस्ताव देता है तो हार्डी दृढ़ता से कहता है, “मुझे मेरे देश में कोई खतरा नहीं है। वह मेरी मातृभूमि है। केवल यहां रहने की खातिर मैं उसका अपमान नहीं करूंगा।” और अपने छोटे-से भाषण का अंत वह ‘जय हिंद’ से करता है। हार्डी दृढ़तापूर्वक शरणार्थी का दर्जा अस्वीकार कर देता है और भारत लौट जाता है, जहां वह एक सैनिक के रूप में अपने देश के प्रति अपनी प्रतिबद्धता रेखांकित करता है। उसकी प्रेमिका मनु और तीन दोस्त शरणार्थी बन जाते हैं। हार्डी अपने देश को भी चाहता है और अपनी प्रेमिका, जिसने इंग्लैंड में शरणार्थी के रूप में रहना स्वीकार कर लिया है, को भी, और इस जटिल परिस्थिति से निपटना तय करता है।

गैर-आधिकारिक रास्ते से यूनाईटेड किंगडम (यूके) में घुसे ये प्रवासी कुछ मौकों पर सीवर की सफाई को एक शर्मनाक काम बताते हैं। यह इस तथ्य के बावजूद कि इंग्लैंड में सीवर की सफाई हाथ से नहीं की जाती। मगर यह कहने के पीछे दो कारण हो सकते हैं। या तो वे भारत के इस यथार्थ से नावाकिफ हैं कि वहां हाथ से सीवर साफ़ किये जाते हैं और यह एक खतरनाक और जानलेवा काम होता है। या फिर उन्हें यह काम करने वालों के प्रति कोई सहानुभूति नहीं है। दूसरी ओर मैंने इंग्लैंड में रह रहे उच्च जाति के कुछ प्रवासियों को पुराने दिनों का रुमानीकरण करते सुना है। वे उन “गुज़िश्ता अच्छे दिनों” की याद करते रहते हैं जब उन्हें खाना पकाने और साफ़-सफाई करने के लिए घरेलू कर्मचारी उपलब्ध थे। विशेषाधिकारों से युक्त जीवन को मीठी यादों की तरह देखने से ऐसा लगता है कि ये लोग उनके अपने देश में शारीरिक श्रम से जुड़े निष्ठुर यथार्थ के प्रति असंवेदनशील हैं। 

डंकी का अंत एक नाटकीय दृश्य से होता है जब हार्डी और उसके मित्र 25 साल इंग्लैंड में बिताने के बाद भारत – जिसे वे श्रद्धापूर्वक अपना घर कहते हैं – लौटते हैं। डंकी शाहरुख़ खान की स्वदेश (2004, आशुतोष गोवारिकर) की श्रेणी की फिल्म है। स्वदेश में भी प्रवासी भारतीयों की अपने देश के प्रति ललक और उससे दूर रहने की तड़प का चित्रण है। उनके भारत में आगमन के साथ पृष्ठभूमि में एक गीत गूंजता है, जिसका भाव है कि मेरी जन्मभूमि जैसा और कुछ नहीं है। यह गीत उनके देश की मिट्टी से उनके चिरस्थाई भावनात्मक जुड़ाव को दर्शाता है। यह फिल्म अवैध प्रवासियों पर केंद्रित होते हुए भी भारतीय प्रवासियों में देशभक्ति और उनके वतन की यादें जगाने का प्रयास करती है।

 

भाग-3 : वास्तविक घटनाओं पर आधारित फिल्में/बायोपिक  

2023 में रिलीज़ हुई फिल्मों में मुझे एक विशिष्ट प्रवृत्ति दिखलाई देती है और वह यह कि इनमें से जो फिल्में वास्तविक घटनाओं पर आधारित हैं, वे मुख्यतः ऊंची जातियों से जुड़े विषयों के इर्द-गिर्द घूमती हैं। यह ट्वेल्थ फेल (निर्देशक विदु विनोद चोपड़ा), शिव शास्त्री बलबोआ (निर्देशक अजयन वेणुगोपालन), गांधी गोडसे – एक युद्ध (राजकुमार संतोषी), सिर्फ एक बंदा काफी है (अपूर्व सिंह कार्की), मिशन रानीगंज (टीनू सुरेश देसाई), घूमर (आर. बल्कि) मिसेस चटर्जी वर्सिस नॉर्वे (आशिमा छिब्बर) व सैम बहादुर (मेघना गुलज़ार) में दिखलाई देता है। बायोपिक, जो असाधारण लोगों के जीवन पर बनी फिल्में होती हैं, वे भी ऊंची जातियों की कथाएं कहती हैं। चाहे वह शिव शास्त्री बलबोआ हो या गांधी गोडसे – एक युद्ध, सभी में स्वरों की विविधता, विशेषाधिकार प्राप्त जातियों के शोर में डूब जाती है।  

यह प्रवृत्ति फिल्मों की दुनिया का हिस्सा बन गई है। मगर यह अनायास नहीं हुआ है। बड़ा पर्दा, पहुंच से काते धागे से बना है और इस पर उभरते चित्र व्यावसायिकता से बुने गए हैं और ऐतिहासिक पूर्वाग्रहों से उन पर कढ़ाई की गई है। विशेषाधिकार प्राप्त समूह समाज के पिरामिड के शीर्ष पर विराजमान है, उनकी कहानियां चारों ओर उकेरी हुई हैं और उनके संघर्ष सब देख सकते हैं। हाशियाकृत समुदायों के किस्से अंधेरे में गुम हैं और बड़े परदे की रोशनी में आने के लिए तरस रहे हैं। इस स्थिति के नतीजे गंभीर हुए हैं। ऊंची जातियों के लोगों पर केंद्रित हर बायोपिक से दलितों की दिलेरी की असंख्य कहानियां और कठिनाईयों से पार पाकर फिर से खड़े हो पाने की आदिवासियों की क्षमता के अनेक किस्से पूरी तरह गायब हैं। दूसरों से प्रति सहानुभूति के जो लौ मनुष्यों के दिलों में जलती है, वह हर अनसुने किस्से के अनसुना रह जाने से मद्धम पड़ती जाती है। हम दूसरों की आपबीती, उनके घावों की टीस और उनके विजयोल्लास की ऊष्मा महसूस करने से वंचित रह जाते हैं। वह दिन कब आएगा जब हमारा सिनेमा हमारे देश के इंद्रधनुषी चरित्र का ईमानदार आईना बनेगा, जब वह गीत के हर स्वर को गुनगुनाएगा और जब वह हर कहानी को उसकी वाजिब जगह देगा?  

भाग-4 : जाति-विरोधी निर्माताओं की फिल्में 

जाति-विरोधी फिल्में, बहुजन दर्शकों को सिनेमाई निरूपणों में स्वयं को सशक्त स्वरूप में देखने का मौका देती हैं। वे बहुजनों में फिल्मों के बारे में समालोचनात्मक दृष्टिकोण के विकास को प्रोत्साहित करने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। हम यहां छह ऐसी फिल्मों की बात करेंगे जो वर्चस्वशाली सवर्ण सिनेमा में दलितों के हाशियाकृत, मूक और दमित समुदायों के रूप में चित्रण को विखंडित और परिवर्तित करने का प्रयास करतीं हैं हैं। मारी सेल्वराज द्वारा निर्देशित तमिल फिल्म मामन्नन का दलित नायक लीक से हट कर है। वह अपने निर्णय स्वयं लेता है, अपनी बात खुल कर कहता है, खुद का सम्मान करता है और उसे खुद पर गर्व है। उच्च जातियों के दमनकर्ताओं के सामने वह सीना तान कर खड़ा होता है। वो कमज़ोर और असहाय दलित की टकसाली छवि को चुनौती देता है। यह नायक, दलितों के सवर्ण निरूपण का प्रतिकार है और एक सशक्त करने वाला प्रति-आख्यान को प्रस्तुत करता है। 

सोमनाथ वाघमारे की डाक्यूमेंट्री फिल्म चैत्यभूमि (मुंबई में वह स्थान जहां आंबेडकर का अंतिम संस्कार हुआ था) के संदर्भ में ‘स्थान’ और ‘समुदाय’ की अवधारणाओं को पुनर्परिभाषित करती है। वह दलित-बहुजनों के केवल एक ‘भीड़’ या किसी भौगोलिक स्थान तक सीमित समुदाय के रूप में सवर्णों द्वारा निरूपण को पुनर्परिभाषित करती है। फिल्म चैत्यभूमि को ऐसे एक स्थान के रूप में प्रस्तुत करती है जहां दलित अपने-आप को पहचान सकते हैं, जहां वे एक समुदाय के रूप में अपनी बात रख सकते हैं और जो स्थान भूत, वर्तमान और भविष्य – तीनों को अपने में समेटे हुए है।

रंजन उमाकृष्ण कुमार द्वारा निर्देशित लघु फिल्म चंपारण मटन, परिवर्तन के उस क्षण को पकड़ती है जब शिक्षा के सहारे सशक्त हुआ दलित-बहुजन युवा अपनी आवाज़ हासिल करता है। फिल्म दिखाती है कि सत्ता समीकरणों में बदलाव के साथ किस प्रकार ये युवा अपने आख्यान स्वयं लिखने लगते हैं और विद्यमान पदक्रम को चुनौती देते हैं।

यारीगु हेलोनु ब्यादा, अजय तांबे द्वारा निर्देशित एक दमदार कन्नड़ लघु फिल्म है जो उच्च जाति की लड़की और निम्न जाति के लड़के के बीच प्रेम में जाति की जटिल भूमिका की पड़ताल करती है। फिल्म एक कॉलेज में लटके आंबेडकर के चित्र और मनुस्मृति के प्रतीकात्मक दहन के दृश्य दिखाते हुए, प्रतिरोध और जाति-विरोध का संदेश देती है। फिल्म का कथानक ऊंची जातियों के पाखंड को उजागर करता है व बताता है कि किस प्रकार वे उदारवादी, आधुनिक व खुले दिमाग के व्यक्ति के वेश में वर्चस्व और ऊंच-नीच को स्थाई बनाए रखते हैं। फिल्म सामाजिक रस्मों को चुनौती देती है और उन पूर्वाग्रहों का पर्दाफाश करती है, जो अब भी कायम हैं। निर्देशक अजय तांबे के अपने आदर्श के प्रति प्रतिबद्धता इसी से जाहिर होता है कि उन्होंने अपनी फिल्म को रिलीज़ करने के लिए मनुस्मृति दहन दिवस को चुना। आंबेडकर ने 25 दिसंबर, 1927 को सार्वजनिक रूप से सांकेतिक तौर पर मनुस्मृति जलाई थी और इसी की याद में हर साल 25 दिसंबर को यह दिवस मनाया जाता है। फिल्म के रिलीज़ के लिए इस दिन का चुनाव, प्रतिरोध की उसकी थीम से मेल खाता है और हमारा सामना इस मर्मभेदी सच से करवाता है कि जातिगत भेदभाव के खिलाफ संघर्ष अब भी जारी है।  

ज्योति निशा की डाक्यूमेंट्री बीआर अम्बेडकर : नाउ एंड देन, जाति-विरोधी आंबेडकरवाद के स्त्रीवादी तेवरों का दस्तावेज है। इसमें आंबेडकर की ऐतिहासिक अंतर्दृष्टि और आज के भारत में दलितों के संघर्ष को बहुत कुशलता से एक-दूसरे से जोड़ा गया है। यह डाक्यूमेंट्री मुख्यधारा के सिनेमा के पारंपरिक आख्यान से आगे जाकर, फिल्म का उपयोग दलितों को प्रतिनिधित्व दिलवाने और सामाजिक बदलाव के औजार के रूप में करती है। निशा स्त्रीवादी दृष्टिकोण से समानता के बारे में आंबेडकर की सोच की पड़ताल करती हैं और यह रेखांकित करती हैं कि आंबेडकर की जाति-विरोधी विचारधारा में लैंगिक अधिकारों की वकालत भी शामिल थी। डाक्यूमेंट्री, जातिवाद से उत्पन्न समस्यायों का खुलासा तो करती ही है, वर्तमान सामाजिक पदक्रम तो चुनौती भी देती है और हालात बदलने के लिए कुछ करने का आह्वान भी करती है। आंबेडकर के जीवन की महत्वपूर्ण घटनाओं और उनके व्यक्तिगत अनुभवों की एक-दूसरे से तुलना कर निशा सफलतापूर्वक ब्राह्मणवादी वर्चस्व के खिलाफ ऐतिहासिक लड़ाई को आंबेडकर के अनुयायियों के समक्ष उपस्थित समकालीन चुनौतियों के समानांतर रखती हैं। समाज की दरारों और खाईयों को भरने की ज़रुरत से प्रेरित यह फिल्म, गरिमा और सम्मान के लिए विद्यमान आंबेडकरवादी संघर्षों में एक दमदार और महत्वपूर्ण योगदान है। आखिर ये वो संघर्ष हैं जो यह सुनिश्चितकारक हो सकते हैं कि हम और रोहित वेमुला न खोएं। 

जाति-विरोधी फिल्में समाज के लिए अहितकर रूढ़ीबद्ध धारणाओं को तोड़ने और दलितबहुजन अस्मिताओं को पुनर्निर्मित करने में सक्षम नज़र आती हैं। वे दर्शकों को सिनेमाई चरित्र-चित्रण को समालोचनात्मक ‘बहुजन लेंस’ से देखने का मौका देती हैं, जिससे प्रतिरोध को प्रोत्साहन मिलता है और आत्मसम्मान में वृद्धि होती है। 

(अनुवाद : अमरीश हरदेनिया, संपादन : राजन/नवल)


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लेखक के बारे में

नीरज बुनकर

लेखक नाटिंघम ट्रेंट यूनिवर्सिटी, नॉटिंघम, यूनाईटेड किंगडम के अंग्रेजी, भाषा और दर्शनशास्त्र विभाग के डॉक्टोरल शोधार्थी हैं। इनकी पसंदीदा विषयों में औपनिवेशिक दौर के बाद के साहित्य, दलित साहित्य, जाति उन्मूलन, मौखिक इतिहास व सिनेमा आदि शामिल हैं

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