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वर्ष 2023 की हिंदी फिल्मों में नजर आए दलित पात्र, लेकिन हावी रही द्विज-दृष्टि

फिर कैमरा ऊंची जाति के एक पात्र हरि शंकर के आंतरिक द्वंद्व पर केंद्रित हो जाता है और दलित समुदाय की उस लड़ाई की गहराई से पड़ताल नहीं करता, जो अंततः गुठली को शिक्षा प्रणाली में शामिल करवाने में सफलता हासिल करती है। इस तरह के ट्विस्ट सवर्ण फिल्मों में बार-बार आते हैं। बता रहे हैं नीरज बुनकर

सन् 2023 में हिंदी फिल्म निर्माताओं ने सामाजिक और पारिवारिक जटिलताओं को उकेरते विविध कथानक प्रस्तुत किए। इनमें से कुछ फिल्मों की थीम देशभक्ति भी थी, जिनमें सैनिकों और उनसे जुड़े मिथक शामिल रहे। फिर बायोपिक भी बने और जाति-विरोधी ऐसी फिल्में भी, जिनमें समाज को उद्वेलित करने वाला सच सामने आया। 

सन् 2023 में रिलीज़ हुई्ं हिंदी फिल्मों का यह विश्लेषण अनजाने में कुछ फिल्मों को नज़रअंदाज़ कर सकता है क्योंकि इसका फोकस ऐसी फिल्मों पर है, जिन्होंने हिंदी फिल्म उद्योग का ध्यान खींचा। इसके साथ ही, ऐसी कई फिल्में इस विश्लेषण में शामिल हो सकती हैं, जिन्हें दर्शकों का बहुत प्रतिसाद नहीं मिला, मगर जो इस विश्लेषण के संदर्भ में महत्वपूर्ण हैं।  

भाग 1 : सामाजिक और पारिवारिक फिल्में 

अनुभव सिन्हा की फिल्म ‘भीड़’ में मुख्य पात्र, जो कि एक कर्तव्यनिष्ठ और महत्वकांक्षी पुलिस इंस्पेक्टर है, अपना काम करने के लिए ब्राह्मण पात्रों बलराम त्रिवेदी और उसकी महिला मित्र रेणु शर्मा पर निर्भर है। फिल्म के कथानक से ऐसा लगता है कि दलित पात्रों की पहचान और उनकी दशा और दिशा का निर्धारण सवर्ण करते हैं। कोविड-19 लॉकडाउन और उसके प्रभाव की बारीकी से पड़ताल करती ‘भीड़’, दलित-ब्राह्मण प्रेम संबंधों को सवर्ण लेंस से देखती है। ‘आर्टिकल 15’ में वास्तविक स्थितियों से अनभिज्ञ ऊंची जाति के मुख्य पात्र को मुक्तिदाता के रूप में प्रस्तुत करने की मुखर आलोचना से सबक लेकर, इस फिल्म में निर्देशक दलित नायक को एक ब्राह्मण पात्र के रक्षक और मसीहा के रूप में दिखाते हैं। दलित नायक का घावों से भरा अतीत, जो ऊंची जाति की उसकी महिला मित्र के साथ उसके अंतरंग दृश्यों में तक जाहिर होता है, यह रेखांकित करता है कि जाति-आधारित भेदभाव का प्रभाव लंबे समय तक बना रहता है। किसी गैर-दलित द्वारा उसे छुए जाने पर उसमें विस्मय का जो भाव जागता है, वह भी बताता है कि जातिगत उंच-नीच कैसे हमारे दिलो-दिमाग में स्थाई रूप से घर कर जाती है। ऐसा लगता है कि उसके वीरोचित कार्यों के लिए भी उसे रेणु शर्मा और बलराम त्रिवेदी के अनुमोदन की ज़रूरत पड़ती है, जिससे यह साबित होता है कि स्वयं को परिभाषित करने के लिए भी उसे सवर्ण परिप्रेक्ष्य की आवश्यकता है। यह प्रस्तुतीकरण जाति प्रथा में अंतर्निहित शक्तियों के वितरण को बढ़ावा देता है और दलित-ब्राह्मण रिश्तों के अधिक गहरे और सशक्त प्रस्तुतीकरण में बाधक है। 

अमित राय द्वारा निर्देशित ‘ओएमजी 2’ यौन शिक्षा के महत्व पर आधारित है और इस संदर्भ में विज्ञान और धर्म से जुड़ी जटिलताओं पर भी। इसमें एक दैवीय संदेशवाहक है, अदालतों की बहसें हैं और फिल्म के अंत में एक गुट दूसरे गुट पर जीत हासिल कर लेता है। यह फिल्म सवर्ण परिप्रेक्ष्य से बनाई गई फिल्मों की शृंखला में एक और कड़ी है, जो जाति से लड़ने के गांधी के तरीके को बढ़ावा देती है, जिसमें शामिल हैं– धार्मिक सुधार, हृदय परिवर्तन और यह सोच कि जाति व्यवस्था हिंदुओं का आतंरिक मामला है। फिल्म से दलित-बहुजन गायब हैं। किसी भी दलित के लिए फिल्म के एक दृश्य में हिंदू देव भगवान शिव और शिवलिंग के बगल में आंबेडकर के भित्ति चित्र को देखना पीड़ादायक हो सकता है। यह दृश्य और फिल्म का कथानक, दोनों से पता चलता है कि फिल्म निर्माता यह दिखाना चाहता है कि गांधी और हिंदू धर्म की धार्मिक ‘नैतिकता’ ने अंततः उस सामाजिक योद्धा पर विजय हासिल की जो सामाजिक न्याय की स्थापना के लिए हिंदू धार्मिक ग्रंथों को डायनामाइट से उड़ाने की बात करता था और जिसने हिंदू धर्म त्याग दिया था। 

‘लॉस्ट’ (निर्देशक अनिरुद्ध रॉय चौधरी) एक युवा महिला क्राइम रिपोर्टर विधि की कहानी है, जो ईशान नाम के एक युवा दलित थिएटर एक्टिविस्ट के गायब हो जाने के रहस्य का पर्दाफाश करना चाहती है। यह बहुआयामी कहानी, सामाजिक मूल्यों और नैतिक सिद्धांतों के विघटन पर आधारित है। विधि एक उच्च जाति से है और फिल्म की कहानी उसके रूमानी रिश्तों, प्रगतिशील आदर्शों, जन्म से उसे हासिल स्वतंत्रता, पेशे के प्रति दृढ़ निष्ठा और उसके दादा द्वारा उसे संबल प्रदान किए जाने के आसपास घूमती है। 

विधि के और अधिक स्त्रीवादी रवैया अपनाने के प्रयास और दलित समुदाय, और विशेषकर ईशान के परिवार के प्रति उसकी सहानुभूति का चित्रण अत्यंत नाटकीय बन पड़ा है। ऐसा लगता है कि ईशान और उसका परिवार सिर्फ इसलिए फ्रेम में हैं ताकि उनकी मदद से यह साबित किया जा सके कि विधि की अपने काम, अपने परिवार और अपने रूमानी रिश्तों के प्रति पूर्ण प्रतिबद्धता है। उच्च जाति के निर्देशकों की फिल्मों में दलित किरदारों को नायक-नायिका के मुकाबले गौण भूमिका दी जाती है, जिससे अपने निर्णय आप लेने की उनके अधिकार में कटौती होती है और उन्हें दलित कार्यकर्ता या कलाकार के रूप में नहीं दिखाया जा सकता। ‘आर्टिकल 15’ और ‘लॉस्ट’ जैसी फिल्मों में दलित किरदार या तो मारे जाते हैं या नक्सल बन जाते हैं, जिससे उनकी पहचान धुंधली पड़ जाती है और ऊंची जाति के किरदारों की परोपकारी की छवि निखरती है। यह निरूपण इसलिए दोषपूर्ण है, क्योंकि वह उस सत्ता और शक्ति ढांचे को बल देता है, जिसमें दलितों की आवाज़ को हाशिये पर धकेल दिया जाता है।

‘ज्विगाटो’ (निर्देशन नंदिता दास) एक ईमानदार फ़ूड डिलीवरी बॉय के बारे में है, जो अपने परिवार, जिसमें बीमार मां, पत्नी और दो बच्चे शामिल हैं, का पेट पालने की जद्दोजहद में लगा हुआ है। मुख्य नायक के समक्ष उपस्थित चुनौतियों – जिनमें परिवार की उदर पूर्ति और उसके बच्चों के एक बड़े अंग्रेजी स्कूल में पढ़ाई के खर्च का इंतजाम करना शामिल है – को फिल्म बड़ी कुशलता से बुनती है। यह विरोधाभास फिल्म की व्यक्तिपरकता पर प्रश्नचिह्न लगाती है। जहां फिल्म वर्ग विभाजन और मुख्य पात्र को होने वाली आर्थिक कठिनाइयों का चित्रण करती है, वहीं वह हाशियाकृत समुदायों जैसे कचरा बीनने वाला लड़का और उसके पिता के विरोधाभासी यथार्थ को भी दिखाती है। 

नंदिता दास सिर्फ एक विशेष परिप्रेक्ष्य से अवसरों और विशेषाधिकारों की उपलब्धता में विषमताओं को देखतीं हैं। साफ़-सफाई करने वाले समुदाय के बच्चों की शिक्षा और यहां तक कि ढ़ंग के कपड़े भी उपलब्ध नहीं हैं, वे इस पर प्रश्न नहीं उठातीं। बिखरे बालों और फटे-पुराने कपड़े पहने एक बच्चे के बरक्स बढ़िया यूनिफार्म पहन कर स्कूल जाते हुए मुख्य पात्र के बच्चों को दिखाकर फिल्म एक टकसाली धारणा को पुष्ट करती है, जो हाशियाकृत समुदायों के लिए हानिकारक है। फिल्म केवल आर्थिक पक्ष पर केंद्रित है और जाति और इन समुदायों पर उसके लंबे और गहरे प्रभाव को नज़रअंदाज़ करती है। ‘ज्विगाटो’ में सोशल एक्टिविज्म, जैसे सरकार के विरुद्ध प्रदर्शन का चित्रण भी है। प्रतिरोध को अभिव्यक्त करने के लिए फिल्म में गानों, फैज़ की कविताओं की पंक्तियों वाले प्लेकार्ड और मजदूर किसान शक्ति संगठन (एमकेएसएस) के बैनर का इस्तेमाल किया गया है। एमकेएसएस राजस्थान का एक चर्चित जनांदोलन था, जिसका नेतृत्व अरुणा रॉय ने किया था। इस तरह यह फिल्म सामाजिक मुद्दों पर टिप्पणी है जो श्रमजीवी वर्ग के संघर्षों और प्रणालीगत अन्याय के खिलाफ सामूहिक प्रतिरोध की जरूरत पर प्रकाश डालती है। अगर कोई विदेशी ‘ज्विगाटो’ देखे तो उसे लग सकता है कि भारत में वर्गीय अंतर, जाति के प्रभाव को शून्य कर देते हैं। मुख्य पात्र और उसकी पत्नी, दोनों हिंदू हैं और उनके साथ भेदभाव करनेवाले भी हिंदू ही हैं, मगर धनिक वर्ग के। निर्देशक जान-बूझकर जातिगत विभाजनों को धुंधला कर देती हैं और ऐसे कथ्यपरक तत्वों का प्रयोग करतीं हैं, जो जाति से जुड़े सरोकारों से हमें दूर ले जाते हैं। इससे ऐसा लगता है कि फिल्म यह संदेश देती है कि भारत में सामाजिक-आर्थिक विषमताओं से निपटने में वामपंथ की ओर झुकी विचारधारा उपयोगी है।

वहीं इशरत आर. खान द्वारा निर्देशित ‘गुठली लड्डू’ की हृदयस्पर्शी कथा एक दलित बच्चा गुठली पर केंद्रित है, जिसकी पढ़ाई-लिखाई करने की उत्कट इच्छा है। गुठली के पिता की एक दलित सरकारी अधिकारी से मुलाकात होती है। उससे प्रेरित होकर वह उसके गांव में आरएसएस से संबद्ध सरस्वती विद्या मंदिर में गुठली का दाखिला करवाने के लिए पैसे जोड़ता है। मगर असली बाधा पैसा नहीं वरन् गहरे तक जड़ें जमाए जातिगत भेदभाव है, जिससे निपटना ज़रूरी है। गुठली को अपमानित करने के लिए उच्च जातियों के बच्चे उसे बार-बार भंगी कहकर बुलाते हैं। भंगी एक अपमानजनक शब्द है, जिसका इस्तेमाल साफ़-सफाई का काम करने वाले दलितों के लिए किया जाता है और यह आज भी बदस्तूर जारी है। 

एक ब्राह्मण अध्यापक हरि शंकर वाजपेई ‘हरिजन’ शब्द की लाक्षणिक व्याख्या प्रस्तुत करता है, जिससे इस धारणा को मजबूती मिलती है कि दलित, ब्राह्मणों के अधीन हैं। फिल्म सामाजिक अंतर्संबंधों की पड़ताल करती है और बताती है कि दलितों को ‘हरिजन’ का नाम देकर गांधी क्या संदेश देना चाहते थे।  

हरि शंकर गुठली के पिता मंगरू से कहता है, “ईश्वर किसी के साथ भेदभाव नहीं करता। भेदभाव तो मनुष्य करते हैं।” अपने सिद्धांतों, जो गांधीवादी प्रतीत होते हैं, से प्रेरित होकर हरि शंकर, मंगरू से शुरू कर गांव के दलितों को उनके अधिकारों के बारे में जागरूक बनाता है। हरि शंकर के मूल्यों को आत्मसात कर, मंगरू पूरे समाज को यह अहसास करवाता है कि संविधान सभी को, चाहे वे किसी भी जाति के हों, बराबरी का दर्जा देता है। वह कहता है कि कोई व्यक्ति चाहे ऊंची जाति से हो या नीची जाति से, उसका वोट एक बराबर और एक कीमत का होता है। एक व्यक्ति पूछता है कि दलित समुदाय के वोट ऊंची जातियों के वोट के बराबर कैसे हो सकते हैं जब दलित थोड़े से पैसों और शराब के बदले अपना वोट दे देते हैं। यहां फिर वही रूढ़ धारणा है कि दलित अशिक्षित, गरीब, भूखे और असहाय होते हैं और अपना वोट बेच देते हैं। फिर कैमरा ऊंची जाति के एक पात्र हरि शंकर के आंतरिक द्वंद्व पर केंद्रित हो जाता है और दलित समुदाय की उस लड़ाई की गहराई से पड़ताल नहीं करता, जो अंततः गुठली को शिक्षा प्रणाली में शामिल करवाने में सफलता हासिल करती है। इस तरह के ट्विस्ट सवर्ण फिल्मों में बार-बार आते हैं – जिनका उद्देश्य होता है ऊंची जातियों के ‘मानवीय दृष्टिकोण’ का प्रदर्शन और उन्हें मुक्तिदाता और परिवर्तन के वाहक के रूप में प्रस्तुत करना।   

इस बीच, गुठली के दलित दोस्त लड्डू, की गटर साफ़ करते समय मौत हो जाती है। यह प्रतीक है इस बात का कि कई दलित बच्चों को किस तरह के खतरों का सामना करना पड़ता है और किस तरह, व्यवस्था उन्हें शिक्षा के अधिकार से वंचित रखती है। फिल्म के शीर्षक ‘गुठली लड्डू’ का प्रतीकात्मक महत्व है। यह आम की गुठली की ओर इशारा करता है जिसे गूदा खाने के बाद फ़ेंक दिया जाता है। सवर्ण फिल्म निर्माता द्वारा ऐसे नाम, जो महत्वहीनता और आत्मसम्मान के अभाव का सूचक हैं, का प्रयोग आशुतोष गोवारिकर की 2001 में रिलीज़ हुई फिल्म ‘लगान’ द्वारा स्थापित परंपरा का भाग हैं। ‘लगान’ में भी एक पात्र का नाम कचरा था – अर्थात ऐसा व्यक्ति, जिसकी कोई अहमियत नहीं है और जिसे उपयोग के बाद फेंका जा सकता है। नकारात्मक संकेतार्थों वाले नामों के प्रयोग से पता चलता है कि किसी कथानक में नाम भी दमन और अवमूल्यन के उपकरण हो सकते हैं।

कथानक यह भी बताता है कि दलित बच्चों में जाति के बारे में चेतना काफी कम उम्र से ही आ जाती है। एक दृश्य में गुठली की मां उसे समझाती है कि उसकी जाति का उसे उपलब्ध शैक्षणिक अवसरों से क्या संबंध है। फिल्म जातिगत पहचान पर चिंतन को प्रोत्साहन देती है, ठीक वैसे ही जैसे ‘आर्टिकल 15’ में एसपी अयान रंजन पूछता है, “मैं कौन हूं? मेरी जाति क्या है?”  

दलित किरदारों, विशेषकर गुठली और लड्डू को फटे-पुराने कपड़े पहने दिखाया गया है, जो उनके सामाजिक-आर्थिक संघर्ष का प्रतीक हैं। उनके चेहरे को काला दिखाया गया है। इसका उद्देश्य है उन्हें ‘असली दलित’ की तरह दिखाना। दलितों के प्रस्तुतीकरण के इस पहलू की पड़ताल राजेश राजमणि की फिल्म ‘द डिस्क्रीट चार्म ऑफ़ द सवर्ण’ करती है। 

फिल्म की थीम ‘सबको शिक्षा का सामान अधिकार’ है, मगर गांधी के हरिजनों की तरह, दलितों को फटे और गंदे कपड़े पहने दिखाया गया है, जिन्हें उम्मीद है कि विशेषाधिकार प्राप्त जातियों के साथ मेल-मिलाप और सामंजस्य से उनकी स्थिति में सुधार होगा। अगर किसी दलित पात्र को अच्छे पद पर दिखाया भी गया है, तो वह जल्द ही गायब हो जाता है। उदाहरण के लिए दलित सरकारी अफसर, मंगरू को कुछ ज्ञान बांटता है और फिर दर्शकों को कभी नहीं दिखता। उसे मंगरू से कोई सहानुभूति नहीं है।  

दलितों को हरिजन का नाम गांधी ने दिया था, मगर आंबेडकर ने उसे ख़ारिज कर दिया था क्योंकि उन्हें लगता था कि यह नाम यथास्थिति को बनाए रखनेवाला है और दलितों में जागरूकता नहीं लाता है। इससे दलित सशक्तिकरण के संदर्भ में गांधीवादी विचारधारा की सीमाएं जाहिर होती हैं। हम दलित दर्शकों को प्रेरित करने की बजाय, यह नाम घावों को फिर हरा कर देता है और हमें अतीत में ले जाता है।   

यशोवर्धन मिश्रा द्वारा निर्देशित कटहल, व्यंग्यात्मक हास्य फिल्म है, जो भारत में लालफीताशाही की पड़ताल के बहाने देश के सामाजिक और आर्थिक ताने-बाने की पड़ताल भी करती है। कथानक के केंद्र में है निडर पुलिस इंस्पेक्टर महिमा बसोर (सान्या मल्होत्रा), जो पेचीदा व्यवस्था से पार पाने के लिए दृढ़प्रतिज्ञ है। एक दलित महिला को मुख्य पात्र बनाने का फिल्म का प्रयास प्रशंसनीय है, मगर कमी यह है कि फिल्म दलित समुदाय के बारे में कुछ रूढ़ धारणाओं को पुष्ट करती है और योग्यता बनाम आरक्षण के विवाद को ठीक से प्रस्तुत नहीं कर पाती।

सुधीर मिश्रा द्वारा निर्देशित ‘अफवाह’ सोशल मीडिया में दुष्प्रचार और ईको चैंबर्स की बहुतायत पर हमें सावधान करती एक समयानुकूल फिल्म है। फिल्म अफवाहों के घातक प्रभाव की पड़ताल करती है और यह भी बताती है कि पहले से ही विभाजित हमारे समाज में वे अराजकता का कारण बन सकती हैं। फिल्म में दिखाया गया है कि राजस्थान की राजनीति में राजपूतों का कितना अधिक प्रभाव है और सत्ता में बने रहने के लिए वे किस तरह के हथकंडों का प्रयोग करते हैं। फिल्म दिखाती है कि किस तरह के प्रपंच रचे जाते है, किस तरह हिंदुओं और मुसलमानों के बीच सांप्रदायिक तनाव बढ़ाया जाता है और लव-जिहाद जैसे विवादास्पद मुद्दों को हवा दी जाती है ताकि हिंसा भड़के। फिल्म में राजस्थान के स्थान पर एक काल्पनिक नाम ‘वेस्टर्न प्रोविंस’ का इस्तेमाल किया गया है, जो औपनिवेशिक काल का नाम लगता है और जो एक तरह से यह संदेश देता है कि स्वाधीनता और लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था के आगाज़ के बावजूद, राजपूत राजघरानों का राज कायम है। ऐसा लगता है कि सुधीर मिश्र ने अनुराग कश्यप की फिल्म ‘गुलाल’ से प्रेरणा ली है, जो स्वतंत्रता के बाद राजपूतों द्वारा अपनी सत्ता फिर से कायम करने और राजपूताना रियासत की पुनर्स्थापना की कथा कहती है। जिन मुद्दों को ये फिल्में सामने लातीं हैं और जिस तरह वे राजस्थान के इतिहास को केवल राजपूतों से जोड़ती हैं, वह एकतरफा है, जिसमें राजस्थान के शेष निवासियों की परंपराओं और उनके बीच के अंतरों को नज़रअंदाज़ किया गया है।  

राहुल वी. चित्तेला द्वारा निर्देशित फिल्म ‘गुलमोहर’ बत्रा परिवार के अपने पैतृक निवास को छोड़ने की कहानी सुनाती है। समय बदल चुका है और जीवन में अवश्यंभावी परिवर्तन आ चुके हैं। इस सबके बीच गुलमोहर का पेड़, बत्रा परिवार में आ रहे बदलावों का प्रतीक है। फिल्म में बत्रा परिवार के संघर्षों और उनमें परिवार की जीत की कहानियां कुछ दर्शकों को पसंद आ सकती हैं, मगर इस फिल्म में ‘दूसरे भारत’ अर्थात दलितों और अन्य हिंदू और मुसलमान नीची जातियों व दूसरे अल्पसंख्यक वर्गों के लोगों के अनुभवों के लिए कोई जगह नहीं है। ये लोग केवल बत्रा परिवार के नौकर हैं। फिल्म में आगे पता चलता है कि नायक अरुण, बत्रा परिवार का गोद लिया हुआ पुत्र है। यह जानने के बाद भी कि वह गोद ली हुई संतान है, अरुण अपनी असली पहचान को अपनी कंगाल-बदहाल जैविक पिता को नहीं बताता, जो सड़क किनारे खाने का ठेला चलाता है। इस तरह यह फिल्म, सामाजिक ढांचे, सत्ताधारियों की नीतियों और अपने जीवन की दिशा निर्धारित करने में किसी व्यक्ति की भूमिका के बजाय, नियति को प्रधानता देती है। फिल्म का फोकस केवल अरुण की सफलता पर है – उसके मूल परिवार पर नहीं, जिसके बारे में हमें बाद में पता चलता है। इस प्रकार यह फिल्म मोबिलिटी अर्थात समाज में आगे बढ़ने की प्रक्रिया की संकीर्ण और अधूरी समझ को प्रदर्शित करती है।   

जहां एक ओर फिल्म के नायक की मूल सामाजिक हैसियत, ऊंची जातियों में प्रगतिशील और उदारवादी प्रवृतियों को दिखती है वहीं दूसरी तरफ पूरी फिल्म मूलतः बत्रा परिवार के पारिवारिक परिवेश और उनके घर ‘गुलमोहर’ से उनकी विदाई से उद्भूत चुनौतियों के आसपास घूमती रहती है, जिसमें गुज़रे कल की मनोहारी यादें शामिल हैं। फिल्म के कथानक का चुनाव, 1956 के फिल्म ‘सुजाता’ की याद दिलाता है जिसका मूल स्वर यह है कि हाशियाकृत तबकों के व्यक्तियों को सवर्णों की दुनिया में स्वागत का मतलब उन्हें ‘अपनाना’ और फिर उन्हें सवर्ण मानकों में ढाल कर सवर्ण बनाना है। 

संदीप रेड्डी वंगा द्वारा निर्देशित फिल्म ‘एनिमल’ की अति-पुरुषत्व और महिलाओं के वस्तुकरण के लिए आलोचना हुई है। फिल्म में अपरोक्ष रूप से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की नीतियों, जैसे आत्मनिर्भर भारत और मेड इन इंडिया, को बढ़ावा दिया गया है। हिंसा और रोमांस के दृश्यों के बीच, निर्माता ने अत्यंत होशियारी से फिल्म में ऐसे तत्त्व शामिल किये हैं जिनसे मोदी सरकार के प्रति वफ़ादारी को प्रोत्साहन मिलता है। विचारधारात्मक स्तर पर अपने स्टैंड को और साफ़ करते हुए फिल्म में खलनायक को एक मुसलमान बताया गया है। इस प्रकार यह फिल्म, हिंदू राष्ट्र, जिसकी परिकल्पना वर्तमान सरकार में मज़बूत हुई है, की स्थापना के आख्यान को आगे बढ़ाने में अपना योगदान देती है। फिल्म में मुख्य किरदार की नाजायज़ और अनुचित हरकतों को औचित्यपूर्ण ठहराने के लिए कबीर के एक दोहे का उपयोग किया गया है। फिल्म का नायक रणविजय, एक अन्य ऊंची जाति की महिला गीतांजलि से विवाह करता है। यह किसी भी तरह से कोई क्रांतिकारी या अनोखा काम नहीं है, मगर फिल्म में इस पर फोकस से ऐसा दिखाने का प्रयास किया गया है कि निर्माता भारत में जातिगत रिश्तों की पड़ताल कर रहा है। अगर यह प्रगतिशीलता दिखाने का प्रयास है, तो यह अत्यंत खोखला बन पड़ा है।   

नीतेश तिवारी के निर्देशन में बनी फिल्म ‘बवाल’, अजय नामक इतिहास के एक शिक्षक के बारे में है जो अपनी छवि से आसक्त है और अपने बिखरते विवाह और उसके द्वारा एक विद्यार्थी को चांटा मारने से भड़के विवाद से बचने के लिए, मिर्गी के रोग से पीड़ित अपनी पत्नी के साथ यूरोप की यात्रा पर निकल जाता है। यूरोप की उनकी यात्रा के दौरान दोनों का सामना इतिहास के भयावह पन्नों (जर्मनी में यहूदियों के कत्लेआम) से होता है, जिसके बाद निशा (पत्नी) की चुप्पी टूट जाती है और उनके रिश्तों में एक नया मोड़ आता है। अजय और निशा दोनों ऊंची जाति से है और केवल उन पर फोकस कर यह फिल्म विशेषाधिकार प्राप्त जातियों के बुलबुले में कैद हो जाती है। समाज के विभिन्न तबकों और स्तरों, और विशेषकर जातिगत पदक्रम के सबसे निचले पायदान पर खड़े लोगों, के संदर्भ में जाति की भूमिका की सूक्ष्म परख करने में यह फिल्म असफल है। दलित-बहुजन समुदायों के अनुभव, जिनमें उनके साथ प्रणालीगत भेदभाव, हाशियाकरण और सामाजिक बहिष्करण से जनित अनुभव शामिल हैं, कथानक से पूरी तरह गायब हैं। फिल्म में द्वितीय विश्वयुद्ध को दमन की व्यापक थीम को परिभाषित करने के लिए संदर्भ के तौर पर इस्तेमाल किया गया है, मगर वह भारत में जाति आधारित अत्याचारों को इतिहास से मिटाने के प्रयासों को दरकिनार करती है।  

‘द ग्रेट इंडियन फैमिली’ (निर्देशक विजय कृष्ण आचार्य), एक धर्मपरायण हिंदू गायक वेद व्यास त्रिपाठी के जीवन की कथा है। जब उसे पता चलता है कि जन्म से वह मुसलमान है, तो उसकी दुनिया टूट कर बिखर जाती है। उसके सामने पहचान का संकट है और उसके एक साथी गायिका के साथ रूमानी रिश्ते हैं। इन सबके बीच, उसे अपने धर्म, अपनी विरासत और नव-उद्घाटित सत्य, इन सबसे सामंजस्य बैठाना है और वह भी एक ऐसे समाज में, जो अपनी जटिलताओं में उलझा हुआ है। बेहतरीन अदाकारी और प्रासंगिक थीम के बावजूद, समीक्षकों ने फिल्म पर मिश्रित प्रतिक्रिया दी। इसका कारण था– ऊबड़-खाबड़ कथानक। फिल्म के कथानक का मूल स्वर समावेशिता है, मगर स्पॉटलाइट एक बार फिर सवर्णों की प्रगतिशीलता और उदारवादिता पर है। 

यही हाल ज़ोया अख्तर निर्देशित फिल्म ‘द आर्चीज’ का है, जो हमें 1960 के दशक की यात्रा पर ले जाती है। यह फिल्म एंग्लो-इंडियन समुदाय के इतिहास और उनकी अस्मिता से जुड़े मुद्दों को भी अपने कथानक में समेटे हुए है। इसके किरदार असमंजस में हैं। वे दो संस्कृतियों के बीच झूल रहे हैं, जिसमें से किसी में भी वे अपने को फिट नहीं पाते। वे नहीं समझ पा रहे हैं कि दोनों में कौन-सी संस्कृति उनकी अपनी है या वे किसके हैं। एक सुप्रसिद्ध अमरीकी कॉमिक शृंखला पर आधारित यह फिल्म, रईस उच्च जातियों के आदर्श लोक की कथा है, जो महानगरों के मध्यम वर्गीय मिलीनिअल्स (सन् 1980 से लेकर 1990 के दशक के मध्य में जन्मे लोगों) और जनरेशन ज़ेड (सन् 1996 से लेकर 2010 के बीच जन्मे लोगों) को भा रही है। गुज़रे ज़माने की यादें उन्हें भली लग रही हैं। इस फिल्म ने बॉलीवुड के शीर्ष सितारों के बच्चों को अपना करियर शुरू करने का मंच भी दिया है। इनमें शामिल हैं– शाहरुख़ खान की बेटी सुहाना खान, श्रीदेवी की बेटी ख़ुशी कपूर और अमिताभ बच्चन के पोते अगस्त्य नंदा।    

यह विश्लेषण एक महत्वपूर्ण मसले पर केंद्रित है और वह यह कि ऊंची जातियों के फिल्म निर्माता सामाजिक और आर्थिक समस्याओं को अपनी फिल्मों के केंद्र में तो रखते हैं, लेकिन उनकी जड़ में नहीं जाते। इससे दर्शक भ्रमित होते हैं और एक मायावी दर्शन उपजता है, जो सामाजिक सुधार की गांधीवादी परिकल्पना से जुड़ा हुआ है। इस कथानक पर आधारित फिल्मों में से कुछ उच्च जातियों के परिवारों, उनके आतंरिक द्वंद्वों, सांस्कृतिक मसलों और सामाजिक अनुशासन की पड़ताल करतीं हैं और इस तरह परंपरा के महत्व पर जोर देती हैं। ये कथानक, सांस्कृतिक मूल्यों को चिरस्थायी बनाने वाले हैं और व्यापक सामाजिक संदर्भ में, परिवार के ढांचे पर बल देते हैं।

(नोट: मैंने ‘सवर्ण परिप्रेक्ष्य’ शब्द समूह का प्रयोग उच्च जातियों के फिल्म निर्माताओं द्वारा दलित-बहुजन किरदारों के उनकी फिल्मों में स्थान को परिभाषित और निरुपित करने के लिए किया है। ‘सवर्ण परिप्रेक्ष्य’ (सवर्ण गेज़) शब्द का प्रयोग, उच्च जातियों के हिंदुओं (सवर्णों) के गैर-उच्च जातियों के व्यक्तियों (दलित, आदिवासी व ओबीसी) को देखने के तरीके के लिए किया जाता है। इसमें शामिल है उनके प्रति दया का भाव, उनके साथ कृपापूर्ण व्यवहार करने और उन्हें अपने से अलग मानने या उन्हें अपना हिस्सा बनाने की प्रवृत्ति) 

(अंग्रेजी से अनुवाद: अमरीश हरदेनिया, संपादन : राजन/नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

नीरज बुनकर

लेखक नाटिंघम ट्रेंट यूनिवर्सिटी, नॉटिंघम, यूनाईटेड किंगडम के अंग्रेजी, भाषा और दर्शनशास्त्र विभाग के डॉक्टोरल शोधार्थी हैं। इनकी पसंदीदा विषयों में औपनिवेशिक दौर के बाद के साहित्य, दलित साहित्य, जाति उन्मूलन, मौखिक इतिहास व सिनेमा आदि शामिल हैं

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