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बिहार विधानसभा चुनाव और मुस्लिम प्रतिनिधित्व का प्रश्न

डॉ. आंबेडकर बार-बार इस बात पर ज़ोर देते थे कि भारतीय समाज जात-पात की असमानता पर आधारित है, इसलिए कोई एक नेता, जो किसी न किसी जाति में पैदा हुआ हो, सबके हक़ की गारंटी नहीं दे सकता। उनका साफ़ मानना था कि दबे-कुचले, कमज़ोर और अल्पसंख्यक वर्गों के अधिकारों का संरक्षण तभी संभव है, जब वे स्वयं पंचायत से लेकर संसद तक नीति-निर्धारण और क़ानून बनाने की प्रक्रिया में बराबरी से शामिल हों। बता रहे हैं अभय कुमार

बिहार विधानसभा चुनाव अब कुछ ही महीने दूर हैं, लेकिन राजनीतिक गतिविधियां पहले से ही तेज़ हो चुकी हैं। एक ओर कांग्रेस नेता राहुल गांधी ‘वोट चोरी’ के खिलाफ राज्य का दौरा कर रहे हैं, तो दूसरी ओर भाजपा और आरएसएस के कार्यकर्ता बदलती हुई ‘डेमोग्राफी’ का भय दिखाकर बहुसंख्यक वर्ग को अपने पक्ष में संगठित करने की मुहिम में जुटे हैं। यह चुनाव सत्तारूढ़ दल जदयू के लिए भी बेहद निर्णायक साबित हो सकते हैं, क्योंकि भाजपा लगातार अपनी सहयोगी पार्टी पर हावी होती जा रही है। बिहार में पैर जमाने के लिए भाजपा ने शुरुआत में इसी पार्टी का सहारा लिया था। राजद की कमान युवा नेता तेजस्वी यादव के हाथों में है। उनके समर्थक उन्हें मुख्यमंत्री पद का सबसे मज़बूत दावेदार बता रहे हैं।

चिराग़ पासवान (लोक जनशक्ति पार्टी-रामविलास) और मुकेश सहनी (विकासशील इंसान पार्टी) बिहार की राजनीति के अहम खिलाड़ी माने जाते हैं, मगर उनकी राजनीति विचारधारा से ज़्यादा ‘प्रैक्टिकल पॉलिटिक्स’ पर आधारित नज़र आती है। पिछली बार भाकपा माले ने उल्लेखनीय सफलता ज़रूर हासिल की थी, लेकिन राजनीतिक विश्लेषक इसे उनके स्वतंत्र सामाजिक आधार का परिणाम नहीं मानते, बल्कि महागठबंधन के साथ सामाजिक न्याय के मुद्दे पर साझेदारी का नतीजा बताते हैं।

बिहार की राजनीति में दल चाहे कितने भी हों और उनकी नीतियां कितनी भी अलग-अलग क्यों न दिखें, एक बात लगभग सभी में समान है – मुसलमानों के प्रभावी और अनुपातिक प्रतिनिधित्व पर उनकी चुप्पी। राज्य की आबादी में मुसलमान लगभग 17 प्रतिशत हैं और इस हिसाब से सत्ता में उनकी हिस्सेदारी वज़नदार होनी चाहिए, लेकिन राजनीतिक विमर्श में उनके मुद्दे नदारद हैं। अनुपात के आधार पर मुसलमानों के कम से कम 40 प्रतिनिधि विधानसभा में होने चाहिए, जबकि उनकी संख्या 20 से भी कम है।

ये आंकड़े साफ़ बताते हैं कि उनकी आधी से ज़्यादा सीटें हड़प ली जाती हैं और मौजूदा हालात में भी इस रवैये में बदलाव की कोई संभावना दिखाई नहीं देती। राजनीतिक नेताओं की तरफ़ से अब तक कोई गंभीर कोशिश सामने नहीं आई और वे अब भी मुसलमानों का नाम लेने से कतराते हैं। भारतीय राजनीति इस समय एक जटिल भंवर में उलझी हुई है, जहां सांप्रदायिक पार्टियां हर चुनाव में मुसलमानों को ‘खलनायक’ बनाकर बहुसंख्यक वर्ग का वोट बटोर लेती हैं, जबकि सेक्युलर विपक्षी दल सांप्रदायिक ताक़तों के ख़िलाफ़ संघर्ष में सेक्युलरिज़्म का पूरा बोझ मुसलमानों के कंधों पर डाल देते हैं और इस प्रक्रिया में अल्पसंख्यकों के जायज़ हितों की बलि चढ़ा देते हैं।

एक अहम मसला राज्य के पसमांदा मुसलमानों का भी है। बिहार में हुए जातिगत सर्वेक्षण के आंकड़ों के हिसाब से मुसलमानों की कुल आबादी में पसमांदा समाज की हिस्सेदारी करीब 72.52 प्रतिशत है। यह समाज सेक्युलर पार्टियों से इस कारण भी नाराज है, क्योंकि उसे यह लगता है कि सेक्युलर पार्टियाें में अशराफों को कम ही सही, हिस्सेदारी मिल जाती है। लेकिन ये पार्टियां उनके हितों को नजरअंदाज करती हैं। भाजपा मुसलमानों में ऐसे विरोधाभासों को हवा दे रही है। जबकि भाजपा के बारे में सभी वाकिफ हैं कि अपवादों को छोड़ दें तो वह किसी मुसलमान को टिकट नहीं देती।

वोटर अधिकार यात्रा के दौरान बिहार के मुंगेर जिले में खानकाह रहमानी के सज्जादानशीं सैयद फैसल अली रहमानी से मिलते राहुल गांधी व तेजस्वी यादव

हिस्सेदारी नहीं देने के पीछे की यह सोच इसी आधार पर टिकी है कि पीड़ित वर्गों के पास समर्थन देने के सिवा कोई विकल्प नहीं है। मुसलमानों के साथ यही हो रहा है – सेक्युलर पार्टियों के पोस्टरों और बैनरों से मुस्लिम नेताओं की तस्वीरें ग़ायब होती जा रही हैं, सभाओं के मंच पर या तो उन्हें बुलाया ही नहीं जाता, और अगर बुलाया भी जाए तो पार्टी अध्यक्ष से दूर किसी कोने में छोटी-सी कुर्सी पर बैठा दिया जाता है। उनका असली किरदार न बोलना होता है और न ही समुदाय की नुमाइंदगी करना; बस तालियां बजाना उनका शग़ल बना दिया गया है।

आज की सेक्युलर पार्टियां ऐसे मुस्लिम चेहरों को ही आगे बढ़ाती हैं जिनके पास न अपनी ज़बान होती है और न स्वतंत्र सोच। वे शीर्ष नेतृत्व की बातों को तोते की तरह दोहराना ही तरक़्क़ी की सीढ़ी समझते हैं। पार्टी के भीतर बहस और विमर्श की संस्कृति मरती जा रही है। दुखद पहलू यह भी है कि मुख्यधारा की पार्टियों के अल्पसंख्यक नेताओं के पास न तो देश-दुनिया की गहरी समझ है और न ही उसे हासिल करने की कोई इच्छा नज़र आती है। सोशल मीडिया पर पार्टी नेतृत्व के ट्वीट और पोस्ट शेयर करना ही वे अपनी क़ौम और मिल्लत की सेवा मान बैठे हैं।

दूसरी तरफ़, वे मुस्लिम नौजवान जो सोचने-समझने की क्षमता रखते हैं, भारत के इतिहास और राजनीति से वाक़िफ़ हैं और जिनके दिलों में यह जज़्बा है कि मुसलमानों समेत गरीब-गुरबाें को उनका जायज़ हक़ मिले – ऐसे नौजवानों को सांप्रदायिक पार्टियां देशद्रोही और कट्टरपंथी ठहराकर बदनाम करती हैं और कई को जेलों में भी डाल देती हैं। वहीं सेक्युलर पार्टियां, अपने मज़लूम-नवाज़ (वंचितों के उद्धारकर्ता) और ग़रीब-परवर (गरीबों के हितैषी) होने के दावों के बावजूद, किसी न किसी बहाने उन्हें आगे बढ़ने से रोक देती हैं।

सेक्युलर पार्टियां चाहती हैं कि मुसलमान अपने हक़ के लिए ख़ुद खड़ा न हो, बल्कि उन्हें वोट देकर संतुष्ट हो जाए। अफ़सोस की बात यह है कि मुस्लिम पहचान के नाम पर बनी और मुस्लिम क़ियादत वाली कुछ पार्टियां भी नई सोच और जोश रखने वाले पढ़े-लिखे मुस्लिम नौजवानों को अपने क़रीब नहीं आने देतीं और तरह-तरह के बहाने बनाकर उन्हें टिकट देने से बचती हैं, ताकि पार्टी पर उनकी ख़ानदानी इजारेदारी क़ायम रहे। तथाकथित मुस्लिम पार्टियां हिंदुत्व की आलोचना तो करती हैं, मगर उनका ढांचा भी पसमांदा समाज की भागीदारी के संदर्भ में कमोबेश वही होता है, जो सवर्ण नेतृत्व वाली पार्टियों का है।

इन कठिन हालात में हमें डॉ. भीमराव आंबेडकर को याद करना चाहिए। 27 जनवरी, 1919 को उन्होंने ‘साउथबरो कमीशन’ के सामने पेशी दी, जिसे चुनावी अधिकारों के प्रश्न पर विचार करने के लिए गठित किया गया था। वहां उन्होंने दलितों की नुमाइंदगी के हक़ में मज़बूत दलीलें रखीं। डॉ. आंबेडकर ने कहा था– “केवल निर्वाचक होना ही काफी नहीं है। विधि-निर्माता होना भी आवश्यक है। अन्यथा विधि-निर्माता उन लोगों के स्वामी बन जाएंगे, जो केवल निर्वाचक होंगे।” (बाबासाहेब डॉ. अंबेडकर : संपूर्ण वाङ्मय, खंड-2, पृष्ठ 10)

डॉ. आंबेडकर बार-बार इस बात पर ज़ोर देते थे कि भारतीय समाज जात-पात की असमानता पर आधारित है, इसलिए कोई एक नेता, जो किसी न किसी जाति में पैदा हुआ हो, सबके हक़ की गारंटी नहीं दे सकता। उनका साफ़ मानना था कि दबे-कुचले, कमज़ोर और अल्पसंख्यक वर्गों के अधिकारों का संरक्षण तभी संभव है, जब वे स्वयं पंचायत से लेकर संसद तक नीति-निर्धारण और क़ानून बनाने की प्रक्रिया में बराबरी से शामिल हों।

आज मुख्यधारा की लगभग सभी राजनीतिक पार्टियां स्वयं को डॉ. आंबेडकर का सबसे बड़ा अनुयायी बताती हैं, लेकिन जिन सवालों को आंबेडकर सबसे अहम मानते थे, उनसे वे जानबूझकर किनारा करते हैं। डॉ. आंबेडकर लोकतंत्र की सफलता को हमेशा अल्पसंख्यकों के अधिकारों – जिनमें उनका प्रभावी और अनुपातिक प्रतिनिधित्व शामिल है – से जोड़कर देखते थे। उनका कहना था कि सिर्फ़ अच्छा क़ानून बना लेना न्याय की गारंटी नहीं है; असली न्याय तभी संभव है जब वंचित और हाशिये पर पड़े तबकों के प्रतिनिधि उस क़ानून को लागू करने की स्थिति में हों। ऐसे में सवाल यह है कि बिहार चुनाव के दौरान टिकटों के बंटवारे के समय क्या राजनीतिक दल डॉ. आंबेडकर की इन अनमोल बातों को सचमुच याद रखेंगे?

(संपादन : राजन/नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

अभय कुमार

जेएनयू, नई दिल्ली से पीएचडी अभय कुमार संप्रति सम-सामयिक विषयों पर विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के लिए स्वतंत्र लेखन करते हैं।

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