बिहार विधान सभा चुनाव का मतदान संपन्न हो गया है। मतगणना आगामी 14 नवंबर को होगी। कल मंगलवार की शाम ही एक्जिट पोल की रिपोर्ट आई। लेकिन रिपोर्टों का हंगामा मतदान प्रतिशत में ओझल हो गया। हर तरफ वोटरों के उत्साह को लेकर बाजार गर्म है। लोगों के मन में सवाल है कि आखिर बिहार के वोटरों में मतदान को लेकर ऐसा जुनून कैसे पैदा हो गया? इस बढ़े हुए मतदान प्रतिशत को सरकार के समर्थन या विरोध के रूप में भी देखा जाने लगा। इधर चुनाव आयोग ने तत्परता दिखाते हुए मतदान के लगभग 4 घंटा बाद ही देर रात 10 बजे तक वोटरों की संख्या और प्रतिशत का डाटा भी जारी कर दिया। हालांकि आयोग ने कहा है कि इसमें सर्विस वोटर और डाक वोटरों की संख्या शामिल नहीं है। इन सबको मिलाकर बाद में डाटा जारी किया जाएगा।
दोनों चरणों को मिलाकर 66.91 (लगभग 67) प्रतिशत मतदाताओं ने अपने मताधिकार का इस्तेमाल किया। यह संख्या 7 करोड़ 45 लाख 26 हजार 858 है। आयोग के मुताबिक, इतिहास में पहली बार दोनों चरणों में कुल संख्या के अनुपात में पुरुषों की तुलना में महिलाओं ने ज्यादा मतदान किया। जारी आंकड़े के अनुसार 3 करोड़ 51 लाख 45 हजार 791 महिलाओं (71.6) प्रतिशत और 3 करोड़ 93 लाख 79 हजार 366 पुरुषों (62.8 प्रतिशत) ने मतदान किया।
अब सवाल उठता है कि मतदान प्रतिशत में इतना इजाफा कैसे हुआ। इस इजाफे की दो प्रमुख वजहें रहीं। पहली वजह है कि एसआईआर के दौरान निष्क्रिय वोटरों के नाम हटाए गए। चुनाव आयोग ने ऐसे वोटरों को दो जगहों पर सूची में नाम होने, मृत या स्थानांतरित मान कर नाम काट दिया था। इस कारण वोटरों की संख्या में कटौती हो गई। निष्क्रिय वोटों के कटने के बाद स्वाभाविक रूप से सक्रिय वोटों की संख्या ज्यादा हो गई। इसलिए प्रतिशत में बढ़ोत्तरी दिख रही है। और दूसरी सबसे बड़ी वजह रही कि तीन महीनों तक चले एसआईआर के दौरान नाम काटे जाने, जोड़े जाने, कोर्ट-कचहरी और आंदोलनों के कारण वोटरों में अपने वोट के प्रति चेतना आई। उसके अंदर एक भय भी पैदा हो गया कि वोट नहीं देंगे तो नाम कट जाएगा। इस भय और हंगामे के कारण लोग वोट देने के लिए बूथ तक गए। यह स्वत:स्फूर्त था। इसमें किसी पार्टी या नेता का कोई योगदान नहीं था। और न किसी नेता या पार्टी के पक्ष या खिलाफ में जनता का जनादेश है। जब लोग वोट देने बूथ पर जाएंगे तो किसी को वोट (नोटा भी इनमें शामिल है) डालकर ही आएंगे।

कोई वोटर किसी को वोट क्यों देता है? इसकी भी अपनी-अपनी व्याख्या है। वोटर का अपना सरोकार भी होता है। वह जाति का होता है, पार्टी का होता है, स्थानीय वजहों से भी होता है। यह समझने की पहल आमतौर पर नहीं की जाती है। इस चुनाव में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के फिर से मुख्यमंत्री बनने की संभावना पर भाजपा के द्वारा संशय खड़ा किया गया था। इस कारण एनडीए का वोटर खास कर जदयू का वोटर कंफ्यूज ही रहा। वह अपनी पार्टी के प्रति प्रतिबद्ध रहा, लेकिन वही प्रतिबद्धता सहयोगी दलों के साथ रही हो, इसको लेकर भी स्पष्ट रूप से दावा नहीं किया जा सकता। इसके विपरीत महागठबंधन के खेमे में तेजस्वी यादव के लीडरशिप को लेकर कोई संशय नहीं था। बल्कि सभी सहयोगी दलों ने तेजस्वी यादव को मुख्यमंत्री बनाने के लिए ही वोट मांगा। इसका लाभ भी महागठबंधन को मिलने की संभावना है।
इस बार के चुनाव प्रचार में भाजपा ने मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को ज्यादा तरजीह देने के बजाय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह पर चुनाव को केंद्रित रखा। अखबारों में प्रकाशित विज्ञापनों में भी फोकस में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ही रहे। इससे परेशान होकर जदयू ने भी अपनी ओर से विज्ञापन प्रकाशित किया, जिसके केंद्र में नीतीश कुमार को रखा गया और यह प्रदर्शित किया गया कि फिर से नीतीश कुमार के मुख्यमंत्रित्व में ही सरकार बनेगी।
इस चुनाव में जाति ही केंद्रीय विषय रही। जाति की पार्टी, पार्टी की जाति, जाति का उम्मीदवार और उम्मीदवार की जाति के आसपास पूरा चुनाव अभियान घूमता रहा। इस चुनाव में कोईरी की तरह भूमिहार भी जाति के उम्मीदवार को लेकर ज्यादा प्रतिबद्ध दिखा। भूमिहारों ने सरकार बनाने से ज्यादा विधायक बनाने पर जोर दिया। जहां-जहां भी भूमिहार के उम्मीदवार थे, वहां भूमिहारों ने वोट दिया। जहां दोनों तरफ भूमिहार थे, वहां उनका झुकाव एनडीए की ओर रहा, लेकिन महागठबंधन के साथ भी एक बड़ा समूह खड़ा दिखा। यही प्रवृत्ति कोईरी में भी रही है। इस चुनाव में चमार महागठबंधन के साथ खड़े थे, क्योंकि उनकी सत्ता की लड़ाई पासवानों से रही है। वे हर जगह पासवानों के खिलाफ दिखे। पूरे प्रदेश में यादव और मुसलमानों में वोटों का बिखराव नहीं था। वे एकमुश्त लालटेन और उसके सहयोगी के साथ थे। इस चुनाव में राजपूत दुविधा में रहे। उसका वोट व्यवहार राज्य व्यापी न होकर स्थानीय स्तर के समीकरणों से प्रभावित रहा। ब्राह्मण और कायस्थ पूरे प्रदेश में भाजपा के साथ रहे। जबकि बनिया भी समग्र रूप से भाजपा के साथ खड़े रहे, लेकिन महागठबंधन के बनिया उम्मीदवारों को भी निराश नहीं किया। कुर्मी जदयू के साथ डटे रहे।
निस्संदेह विधान सभा चुनाव में एसआईआर के कारण उपजी परिस्थितियों ने वोटरों को बूथ तक पहुंचने के लिए प्रेरित किया। इसके साथ ही बूथ तक पहुंचे लोग जाति के सरोकार के साथ राजनीतिक सरोकार में भी अपने लिए सहूलियत तलाशते नजर आए। वोट की प्रवृत्ति और प्रभाव का वास्तविक आकलन मतगणना के बाद ही सामने आएगा।
(संपादन : नवल/अनिल)
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