दैनिक जागरण में आप एक महत्वपूर्ण पद पर हैं। ओबीसी तबके से होने के कारण यह सफर कितना आसान या कठिन रहा?
दैनिक जागरण में मेरा सफर अपेक्षाकृत आसान रहा, क्योंकि करियर की शुरुआत में ही मेरा संपर्क अपने संपादक नरेंद्र मोहनजी से हो गया था। मेरा मानना है कि जो अपना काम जानता है और उसे अच्छे से करता भी है उसका सफर आसान ही होता है। अपवाद हर जगह हैं और अच्छे-खराब लोग भी सब जगह हैं।
क्या कारण है कि मुख्यधारा के मीडिया में पिछड़े, दलित और आदिवासियों का प्रतिनिधित्व न के बराबर है और आज तक कोई दलित संपादक नहीं बन पाया?
यह एक कटु यथार्थ है लेकिन यह स्थिति अन्य गैर-सरकारी क्षेत्रों में भी है। इन तबकों के लोगों को प्रतिनिधित्व देने के लिए कोई विशेष प्रयास भी नहीं हो रहे हैं। निजी क्षेत्र इस सिलसिले में अपनी जिम्मेदारी समझने से इनकार करने के साथ ही इस तथ्य की भी अनदेखी कर रहा है कि अमेरिका में एफरमेटिव एक्शन के जरिए सरकार के साथ-साथ किस तरह निजी क्षेत्रों ने भी वंचित तबकों को अवसर प्रदान किए हैं। मीडिया समेत निजी क्षेत्र जब तक समाज के सभी वर्गों को प्रतिनिधित्व देने के बारे में अपने स्तर पर विशेष प्रयास नहीं करता तब तक हालात बदलने वाले नहीं हैं। जहां तक दलित वरिष्ठ संपादकों के नहीं होने की बात है तो यह जाहिर है कि जब मीडिया में दलितों की भागीदारी ही कम है तो फिर उनके संपादक बनने की गुंजाइश अपने आप कम हो जाती है। हां, कोई दलित उद्यमी अपना मीडिया संस्थान खड़ा करे तो यह काम आसानी से संभव है। यह अचरज की बात है कि अभी तक इस इस दिशा में किसी ने कोई पहल नहीं की।
योग्यता के बारे में आपका क्या ख्याल है?
काबिलियत अथवा योग्यता को नए सिरे से परिभाषित करने की जरूरत है। अक्सर योग्यता को मेधाशक्ति का पर्याय मान लिया जाता है, जबकि सच्चाई यह है कि योग्यता अवसरों की उपलब्धता और माहौल से तय होती है। समान क्षमता वाले दो छात्रों में से यदि एक ग्रामीण इलाके का हो और अभावों से भी ग्रस्त हो और दूसरा किसी महानगर का हो और तमाम सुविधाओं से लैस हो तो उसका योग्यता की दौड़ में आगे निकलना तय है।
(फारवर्ड प्रेस के जून 2013 अंक में प्रकाशित)