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चार वर्षीय कोर्स : डिग्री नहीं ज्ञान चाहिए!

दलित, ओबीसी मुख्यत: श्रमशील वर्ग से आते हैं और इसमें शक नहीं कि चार साल का कोर्स उनपर आर्थिक बोझ बढाने वाला साबित होगा। इसलिए मांग यह की जानी चाहिए कि एमफिल, पीएचडी के लिए मिलने वाले जूनियर रिसर्च फेलोशिप की तर्ज पर स्नातक कक्षाओं में पहुंचने वाले दलित-ओबीसी विद्याथियों को पर्याप्त वजीफा दिया जाए

दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रस्तावित चार वर्षीय स्नातक पाठ्यक्रम को लेकर विरोध लगातार गहराता जा रहा है। विश्वविद्यालय के अध्यापकों के बाद अब राजनेता और सामाजिक कार्यकर्ता भी विरोध के सुर में सुर मिलाने लगे हैं। 31 मई को दिल्ली में ज्वाइंट एक्शन फ्रंट फॉर डेमोक्रेटिक एजुकेशन; अनुसूचित जाति, जनजाति, पिछड़ा वर्ग एवं वामपंथी पार्टियों द्वारा आयोजित एक सेमिनार में शिक्षाविद् प्रो यशपाल, जानी-मानी लेखिका अरुंधती रॉय, जेएनयू की प्रोफेसर जयंति घोष, हैदराबाद विश्वविद्यालय के प्रो हरगोपाल, जनता दल यू के अध्यक्ष शरद यादव, सीपीएम नेता सीताराम येचुरी और इंडियन जस्टिस पार्टी के प्रमुख उदितराज ने इसका विरोध करते हुए कहा कि बिना बहस किए शिक्षा में बदलाव लाना गरीब, दलित, ओबीसी, हिंदी भाषी विद्यार्थियों के साथ सरासर धोखा है।

इन लोगों का तर्क है कि यदि 4 वर्ष का स्नातक पाठ्यक्रम लागू हो जाता है तो इन तबकों के विद्यार्थियों पर अर्थिक बोझ बढ़ेगा। इनका सरोकार वाजिब है। सभी को विश्वास में लेकर बदलाव किया जाए। यह लोकतंत्र के लिए आवश्यक होना चाहिए। लेकिन अगर आपको नहीं पूछा गया तो आप विरोध पर उतारू हो जाएं तो इसे बुद्धिमानी नहीं कहा जा सकता। हम दलित, ओबीसी के लिए कैसी शिक्षा चाहते हैं, उन्हें काबिल बनाना चाहते हैं या डिग्री देना चाहते हैं। इसी तरह कुछ वर्ष पहले तक दलितों के शुभचिंतक समाजवादी अंग्रेजी भाषा का विरोध किया करते थे और उन्होंने इसे विभिन्न कक्षाओं से अनिवार्य विषय के रूप में हटवा कर ही दम लिया। उनका तर्क था कि इससे गांवों के गरीब बच्चे फेल हो जाते हैं। उनका तर्क निराधार नहीं था लेकिन क्या आज कोई यह कह सकता है कि अंग्रेजी से दूर होने के अच्छे  नतीजे आए हैं। बिहार के एक सत्ताधारी राजनेता ने कुछ साल पहले इसी तर्क पर मैट्रिक में नकल की खुली छूट दे दी थी।

चार वर्ष के कोर्स के तहत प्रथम वर्ष में 11 फाउंडेशन कोर्स पढ़ाए जाने हैं, जिनमें अंग्रेजी, गणित एवं विज्ञान अनिवार्य हैं। इसके अलावा भी इस व्यवस्था में कई और खूबियां हैं। यह एक अच्छी पहल है। वंचित तबकों से आने वाले विद्यार्थियों का फाउंडेशन प्राय: कमजोर होता है। उन्हें इस बदलाव का अधिक लाभ मिलेगा, जिन्हें इस सिलसिले में मदद की जरूरत है उनके लिए नि:शुल्क कोचिंग की व्यवस्था की जा सकती है। जैसे कि कुछ आईआईटी में है। दलित, ओबीसी मुख्यत: श्रमशील वर्ग से आते हैं और इसमें शक नहीं कि चार साल का कोर्स उनपर आर्थिक बोझ बढाने वाला साबित होगा। इसलिए मांग यह की जानी चाहिए कि एमफिल, पीएचडी के लिए मिलने वाले जूनियर रिसर्च फेलोशिप की तर्ज पर स्नातक कक्षाओं में पहुंचने वाले दलित-ओबीसी विद्याथियों को पर्याप्त वजीफा दिया जाए।

(फारवर्ड प्रेस के जुलाई 2013 अंक में प्रकाशित)

लेखक के बारे में

अशोक चौधरी

अशोक चौधरी फारवर्ड प्रेस से बतौर संपादकीय सहयोग संबद्ध रहे हैं।

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