h n

प्रेमचंद के विचारों का वास्तविक वाहक कौन?

प्रगतिशील केवल सामाजिक न्याय की लकीर पीट रहे हैं। उन्हें डर है कि दलित और स्त्री विमर्श की मार तो वे झेल ही नहीं पा रहे हैं, ओबीसी विमर्श स्थापित हो गया तो उनका क्या हश्र होगा

मासिक पत्रिका हंस, जून 2013 के अंक में सृजन परिक्रमा के अंतर्गत अस्मितावादी राजनीति और साहित्य शीर्षक से दिनेश कुमार की रपट पढऩे को मिली। इस रपट, जिसमें सद्य: प्रकाशित कुछ पत्रिकाओं पर समीक्षात्मक टिप्पणियां की गई हैं, में उन्होंने मासिक पत्रिका फारवर्ड प्रेस, अप्रैल 2013 बहुजन साहित्य वार्षिकी के बारे में एक प्रतिक्रिया व्यक्त की है– “प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन में सभापति के रूप में बोलते हुए प्रेमचन्द ने कहा था कि साहित्य राजनीति के पीछे चलने वाली सच्चाई नहीं, बल्कि उसके आगे मशाल दिखाती सच्चाई है। ऐसा कहकर प्रेमचन्द साहित्य और राजनीति के बीच के रिश्ते को भी परिभाषित कर रहे थे। हिन्दी में प्रेमचन्द की इस पंक्ति को तोतारटंत की तरह बार-बार दोहराया तो गया है पर व्यवहार में हमने ठीक इसके उलट ही किया है। क्या यह बतलाने की जरूरत है कि आज साहित्य पूरी तरह राजनीति का पिछलग्गू बन चुका है। साहित्य का उपयोग हम अपनी-अपनी राजनीति को मजबूत करने के लिए कर रहे हैं। क्या यह साहित्य का निम्नतर और दोयम दर्जे का उपयोग नहीं है, पर ऐसा लगता है कि अस्मितावादी राजनीति के गर्भ से पैदा हुए अस्मितावादी साहित्य वाले इस दौर में इस तरह के प्रश्न अप्रासंगिक हो गए हैं। एक सुचिंतित रणनीति के तहत साहित्य को राजनीति के अधीनस्थ बनाए जाने का उपक्रम किया जा रहा है। फारवर्ड प्रेस की बहुजन साहित्य वार्षिकी को इसी प्रयास के संदर्भ में देखा जाना चाहिए।” हंस के पृष्ठ 93 पर अपने कथन की सार्थकता को सिद्ध करने के लिए दिनेश कुमार ने आगे यह कहा है-यह देखना दिलचस्प है कि तुलसीराम से लेकर ओमप्रकाश वाल्मीकि तक लगभग सभी दलित रचनाकारों और विचारकों ने ओबीसी विमर्श को खारिज किया है और खगेन्द्र ठाकुर और चौथीराम यादव जैसे आलोचकों ने इसे अनुचित बताया है।

दिनेश कुमार की टिप्पणी से लगता है कि उन्होंने साहित्य के वर्तमान परिदृश्य पर समग्र रूप से चिन्ता व्यक्त की है लेकिन ऐसा नहीं है। यदि ऐसा होता तो वह हंस सहित उन सभी पत्रिकाओं पर समान प्रतिक्रिया व्यक्त करते, क्योंकि इनमें से कोई भी प्रेमचंद द्वारा अपेक्षित भूमिका का निर्वहन नहीं कर रही हैं। मैं दिनेश कुमार को चुनौती देता हूं कि वह अगला लेख लिखकर मुझे गलत साबित करें। सच तो यह है कि जाने-अनजाने फारवर्ड प्रेस ही प्रेमचन्द के उक्त कथन की अपेक्षाओं पर खरी उतर रही है। लेकिन दिनेश कुमार को यह दिखाई नहीं दे रहा है तो उनकी समझ पर तरस ही खाया जा सकता है। इस पर आगे चर्चा की जाएगी लेकिन उसके पहले उन लोगों के बारे में थोड़ा सा खुलासा समीचीन होगा जिन्हें नाम के साथ इंगित किया गया है।

तुलसीराम निश्चित ही एक ही बड़ा नाम है लेकिन साहित्यिक उपलब्धि के नाम पर उनके खाते में उनकी आत्मकथा के अतिरिक्त और क्या है? वैसे भी वह साहित्यकार कम राजनीतिक चिंतक अधिक हैं। यह बात उनके द्वारा दिए गए उत्तर से ही स्पष्ट है। उनकी आत्मकथा के चर्चित होने के पीछे सबसे बड़ा हाथ नामवर सिंह का है, जिन्होंने उसकी प्रशंसा कर दी। फिर क्या था। सारी भक्तमंडली जय-जयकार करने लगी। तुलसीरामजी स्वत: अपनी आत्मकथा को लेकर मुग्धता के शिकार हैं जो निश्चित ही उनके निष्पक्ष चिंतन पर सवालिया निशान लगाता है। वैसे भी यह जगजाहिर है कि वह नामवर सिंह के पिछलग्गू हैं और नामवर दलित और स्त्री विमर्श को घृणित कृत्य मानते हैं। इसलिए उनकी बातों को गम्भीरता से लेने की जरूरत नहीं है। उन्हें दलित और दलित साहित्य से उसी प्रकार वितृष्णा है जैसी उनके अगुवा को है।

जहां तक ओमप्रकाश वाल्मीकि का सवाल है तो उन्होंने ओबीसी विमर्श को खारिज नहीं किया है। यह बात उनके इस कथन से स्पष्ट है-मैं यह कहना चाहूंगा कि इस तरह के प्रयास सार्थक हैं, क्योंकि यह पत्रिका पिछड़े, दलितों की आवाज बुलंद कर रही है। वर्तमान में जिसकी बहुत जरूरत है। ऐसा कदम उठाने और ऐसी कोशिश करने से ही सामाजिक परिवर्तन सम्भव है। पत्रकारिता के क्षेत्र में यह पत्रिका निश्चित रूप से एक दिन मील का पत्थर साबित होगी। फारवर्ड प्रेस, अप्रैल 2013, पृष्ठ 51 पर यदि उन्होंने ओबीसी के लोगों को दलित साहित्य को समझने की सलाह दी है तो इससे यह मतलब तो नहीं निकलता कि उन्होंने ओबीसी विमर्श को खारिज कर दिया।

खगेन्द्र ठाकुर के लेख का क्या मंतव्य निकाला जाए, यही स्पष्ट नहीं है। वह भी प्रगतिशील लेखक संघ की उसी प्रजाति के हैं जो अपनी आंखों पर प्रेमचन्द का चश्मा लगाकर पैदा होते हैं। उनको फारवर्ड प्रेस के अभियान से कुछ लेना-देना नहीं है। जब उनके आराध्य ही दलित बहुजन के नायक और उनके साहित्यिक-सामाजिक योगदान से अनभिज्ञ थे तो उनकी परम्परा पर चलने वाले खगेन्द्र ठाकुर से कैसे उम्मीद की जा सकती है कि वह अपने ज्ञान का विस्तार करें। वह प्रेमचन्द की परम्परा को अतिक्रमित करने का साहस भी नहीं कर सकते। चौथीराम यादव ने अपने लेख के केन्द्र में केवल दलित विमर्श को रखा है। उनके कथन का स्पष्ट आशय यह है कि कोई भी लेखक किसी भी विषयवस्तु पर रचना कर सकता है, जाति के आधार पर इसका एकाधिकारी बंटवारा अनुचित है। दिनेश कुमार इसे समझ नहीं पाए।

दिनेश कुमार ने जब प्रेमचन्द को याद किया है तो उन्हें प्रगतिशील लेखक संघ के इतिहास के बारे में भी पता होगा। क्या वह किसी ऐसे कालखंड को रेखांकित कर सकते हैं जब राजनीति ने साहित्य की अधीनता स्वीकार की हो। वास्तविकता यह है कि एक से एक दिग्गज साहित्यकार पार्टी के कोपभाजन बनकर निकाल दिए गए। यह सिलसिला पिछली राष्ट्रीय कार्यकारिणी के गठन के समय भी बदस्तूर देखने को मिला जब शमीम फैजी ने अपने राजनीतिक आतंक के बल पर राष्ट्रीय महासचिव का चुनाव करवा दिया था। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के विभाजन के कारण प्रगतिशील लेखक संघ भी बंट गया था, इसे भी दिनेश कुमार जानते होंगे।

इतना तो स्पष्ट है कि दिनेश कुमार फारवर्ड प्रेस के नियमित पाठक नहीं हैं, अन्यथा इसके बारे में उनकी वही राय होती जैसी वह चाहते हैं। वह यह देखकर प्रसन्न होते यह पत्रिका राजनीति को लगातार आईना दिखाते हुए उसके सामने मशाल लेकर चलती हुई सच्चाई की भूमिका में ही है। सरकारी कमियों को, कमजोरियों को, फर्जी आंकड़ेबाजी को, थोथी दलीलों को, खोखले व झूठे वादों को उजागर कर सरकार को कठघरे में खड़ा कर रही है। इस पत्रिका का सबसे बड़ा योगदान यह है कि यह सांस्कृतिक क्रान्ति के बहुत बड़े गैप को भरने का काम कर रही है। बहुजन समाज की सभ्यताएं, संस्कृति और इतिहास को सामने ला रही है। सामाजिक न्याय के बहुजन पुरोधाओं के महत्व को इनके बीच स्थापित कर रही है। इसकी ओर न तो प्रेमचन्द का ही ध्यान गया था और न उनके अनुयायी ही इनका संज्ञान ले रहे हैं। वे केवल सामाजिक न्याय की लकीर पीट रहे हैं। उन्हें डर है कि दलित और स्त्री विमर्श की मार तो वे झेल ही नहीं पा रहे हैं, ओबीसी विमर्श स्थापित हो गया तो उनका क्या हश्र होगा। फारवर्ड प्रेस का अभियान समय की सबसे बड़ी मांग है। निश्चित रूप से यह सांस्कृतिक क्रान्ति की पूरक है जो अंतत: बहुजन समाज में वैचारिक साम्यता स्थापित करके उन्हें एक मंच पर लाने में सफल होगी और राजनीतिक तिकड़म और सौदेबाजी की धार भी कुंद होगी। फिर सबसे अहम सवाल तो यही है कि जब ओबीसी विमर्श आकार ले रहा है तो कोई अन्य विमर्शकार चाहे वह दलित हो, चाहे गैर दलित इसके विरुद्ध स्थगनादेश देने वाला कौन होता है? यदि ये महानुभाव इस प्रकार की टिप्पणियों में अपना समय बर्बाद करने के स्थान पर हिन्दू धर्मग्रन्थों और उनसे प्रेरित साहित्य के विनाश-बहिष्कार का अभियान चलाते तो देश और समाज की सूरत बदल जाती। दिनेश कुमार यदि इस देश के समाज का मर्ज समझ जाएं तो उन्हें प्रेमचन्द का अंधानुकरण करने की निरर्थकता भी स्वीकार करने में देर नहीं लगेगी।

(फारवर्ड प्रेस के जुलाई 2013 अंक में प्रकाशित)

लेखक के बारे में

मूलचंद सोनकर

मूलचंद सोनकर सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता हैं तथा दलित मुददों पर अपनी उल्लेखनीय टिप्पणियों के लिए जाने जाते हैं

संबंधित आलेख

ब्राह्मण-ग्रंथों का अंत्यपरीक्षण (संदर्भ : श्रमणत्व और संन्यास, अंतिम भाग)
तिकड़ी में शामिल करने के बावजूद शिव को देवलोक में नहीं बसाया गया। वैसे भी जब एक शूद्र गांव के भीतर नहीं बस सकता...
ब्राह्मणवादी वर्चस्ववाद के खिलाफ था तमिलनाडु में हिंदी विरोध
जस्टिस पार्टी और फिर पेरियार ने, वहां ब्राह्मणवाद की पूरी तरह घेरेबंदी कर दी थी। वस्तुत: राजभाषा और राष्ट्रवाद जैसे नारे तो महज ब्राह्मणवाद...
फुले को आदर्श माननेवाले ओबीसी और मराठा बुद्धिजीवियों की हार है गणेशोत्सव
तिलक द्वारा शुरू किए गए इस उत्सव को उनके शिष्यों द्वारा लगातार विकसित किया गया और बढ़ाया गया, लेकिन जोतीराव फुले और शाहूजी महाराज...
ब्राह्मण-ग्रंथों का अंत्यपरीक्षण (संदर्भ : श्रमणत्व और संन्यास, पहला भाग)
जब कर्मकांड ब्राह्मणों की आजीविका और पद-प्रतिष्ठा का माध्यम बन गए, तो प्रवृत्तिमूलक शाखा को भारत की प्रधान अध्यात्म परंपरा सिद्ध करने के लिए...
तंगलान : जाति और उपनिवेशवाद का सच खोदती एक फिल्म
पारंपरिक लिखित इतिहास के हाशिए पर रहे समूहों को केंद्र में रखकर बनाई गई पा. रंजीत की नई फिल्म ‘तंगलान’ भारत के अतीत और...