शर्मीला रेगे (1964-2013) : प्रकाश के मंद पडऩे के खिलाफ सतत् संघर्षरत रहो
शर्मीला रेगे, जो स्वयं को फुले-आम्बेडकरवादी स्त्री अधिकारवादी कहती थीं, का पुणे में 13 जुलाई, 2013 को निधन हो गया। कुछ समय पहले ही यह पता चला था कि उन्हें बड़ी आंत का कैंसर है।
अपनी पुस्तक ‘अगेंस्ट द मेडनेस ऑफ मनु’ (मनु के पागलपन के खिलाफ) की पांडुलिपि पूरी करने के बाद उन्होंने अपने विद्यार्थियों और सहकर्मियों से कहा कि अब वे शांतिपूर्वक मर सकेंगी।
वे अपने ई-मेल का अंत आम्बेडकर के इन शब्दों से किया करती थीं – ‘मेरी तुम्हें अंतिम सलाह यही है कि शिक्षित बनो, आंदोलन करो और संगठित हो, स्वयं में विश्वास रखो, जब न्याय हमारे पक्ष में है तो मुझे कोई कारण नहीं दिखता कि हम अपनी लड़ाई हार सकते हैं।’
जुलाई, 2013 में मात्र 48 वर्ष की आयु में शर्मीला रेगे की मृत्यु से हम सब को बहुत धक्का लगा है। वे एक अच्छी मित्र थीं, महान अध्येता थीं और मानवाधिकारों, लैंगिक समानता और दलित अधिकारों की प्रवक्ता थीं…वे अब हम लोगों के बीच नहीं हैं। हम सब इस क्षति को महसूस कर रहे हैं।
वे उन चंद स्त्री अधिकारवादी विद्वानों में से एक थीं जिन्होंने दलितों की आवाज को प्राथमिकता दी। यह उनकी पहली किताब ‘राईटिंग कास्ट, राईटिंग जेंडर’ और उनकी आखिरी किताब, ‘अगेंस्ट द मेडनेस ऑफ मनु’ में प्रतिबिंबित होती है। दोनों ही पुस्तकों में ब्राह्मणवादी पितृसत्तात्मक व्यवस्था के विरुद्ध आम्बेडकर के विचारधारात्मक संघर्ष की विस्तृत चर्चा है। आम्बेडकर के लेखन के चुने हुए हिस्से, शर्मीला की भूमिका के साथ प्रकाशित किए गए हैं।
पुणे विश्वविद्यालय में ‘क्रांतिज्योति सावित्री बाई फुले महिला अध्ययन केन्द्र’ की संस्थापक व मुखिया की हैसियत से उन्होंने विद्यार्थियों की कई पीढिय़ों को ‘दलित नजरिए’ से परिचित करवाया। शर्मीला की विशेष रुचि सांस्कृतिक प्रथाओं और ज्ञान की स्थानीय व मौखिक परंपराओं में थी, जिन्हें वे दुनिया के सामने लाना चाहती थीं। इसके लिए उन्होंने अनुवाद की अनेक परियोजनाएं हाथ में लीं और महत्वपूर्ण अभिलेख तैयार किए। वे सच्चे अर्थों में एक ऐसी विदूषी थीं जो अपने आदर्शों के प्रति वचनबद्ध थीं।
–गेल ऑम्वेट, वरिष्ठ समाजशास्त्री जिनके दलित बहुजन पर अग्रणी लेखन ने निस्संदेह शर्मीला रेगे को प्रेरणा दी होगी, जो कि उनकी ही तरह महाराष्ट्रीयन थीं
शर्मीला की महिलाओं से संबंधित अध्ययनों के प्रति असाधारण प्रतिबद्धता थी। सामान्यत: हमारे देश में शिक्षक ऊंचा, और ऊंचा पद पाने के लिए एक विश्वविद्यालय से दूसरे और दूसरे से तीसरे में जाते रहते हैं। वहीं रेगे ने ‘नीचे’ जाना स्वीकार किया। वे 2005 से लेकर 2008 तक समाजशास्त्र विभाग में प्राध्यापक थीं। वे समाजशास्त्र की विभागाध्यक्ष भी थीं। परंतु उसके बाद भी उन्होंने महिला अध्ययन केन्द्र में एसोसियेट प्रोफेसर का पद स्वीकार करने में जरा भी देरी नहीं लगाई। उन्होंने ऐसा इसलिए किया क्योंकि वे एक प्रतिबद्ध शिक्षक थीं और उन्हें लगा कि केन्द्र में रहकर वे उसके रचनात्मक स्वरूप की रक्षा कर सकेंगी। सिवाय चंद स्त्री अधिकारवादियों के, सभी को ये लगा कि वे पागल हैं। उन्होंने केन्द्र में रहते हुए ऐसे कार्यक्रम चलाए जिनमें जाति हमेशा असमानता की ऐसी महत्वपूर्ण मानक रही, जिसे लैंगिक मुद्दों से अलग करके नहीं देखा जा सकता। उन्होंने हमेशा महिला आंदोलन के ‘सवर्णीकरण’ और दलित आंदोलन के ‘पुंस्त्वभवन’ का विरोध किया। वे चाहती थीं कि इन दोनों आंदोलनों का समतावादी चरित्र पुनस्र्थापित हो…मुझे कभी-कभी लगता है कि कहीं ऐसा तो नहीं कि हमारे समाज का कैंसर उन लोगों के शरीर में डेरा जमा लेता है, जो समाज के प्रति फि क्रमंद होते हैं।
–उमा चक्रवर्ती, स्त्री अधिकारवादी इतिहासविद् हैं। यह श्रद्धांजलि मूलत: ‘सेमीनार’ पत्रिका में प्रकाशित हुई थी
विश्वविद्यालय जैसी पदानुक्रम पर आधारित संस्था में बिना किसी हिचकिचाहट के मुख्यधारा के अध्ययन विषय में ऊंचे पद को छोड़कर ‘निचले’ पद को स्वीकार करना, महिला अध्ययन के प्रति उनकी प्रतिबद्धता का परिचायक था। उनके नेतृत्व में सावित्री बाई फुले केन्द्र वैचारिक दृष्टि से अत्यंत जीवंत मंच बन गया, जिसमें शिक्षाविदें, फ्रीलांस अनुसंधानकर्ताओं, सामाजिक कार्यकर्ताओं, स्त्री अधिकारवादियों, अवकाश प्राप्त विद्वानों आदि सभी के लिए जगह थी।
सन् 2008 में मुंबई के एसएनडीटी महिला विश्वविद्यालय के खचाखच भरे हॉल में एनसीईआरटी द्वारा प्रायोजित ‘सावित्री बाई फु ले भाषणमाला’ के अन्तर्गत ‘तृतीय रत्न के रूप में शिक्षा: फुले-आम्बेडकरवादी, स्त्री अधिकारवादी अध्यापन विधियां’ विषय पर उनका भाषण चमत्कृत कर देने वाला था। उससे यह स्पष्ट था कि उन्हें चीजों की कितनी साफ समझ थी और वे किसी के लिए भी प्रेरणा स्रोत हो सकती थी। श्रोताओं ने-चाहे वे उनसे सहमत थे या नहीं-उनके भाषण को बहुत ध्यान से सुना और भाषण की समाप्ति के बाद कुछ ने खड़े होकर और तालियां बजाकर उनका अभिवादन किया।
–विभूति पटेल, मुंबई की एसएनडीटी वूमेन्स यूनिवर्सिटी में पढ़ाती हैं
…एक अन्य दबंग महिला अधिकारवादी वीना मजूमदार की मृत्यु से शर्मीला बहुत आहत थीं। वीना की मृत्यु उनकी मृत्यु के कुछ ही हफ्ते पहले हुई थी। वीना मजूमदार को श्रद्धांजलि देने के लिए मैंने जो कविता लिखी थी, उसे पढ़कर शर्मीला ने लिखा कि वह उन्हें बहुत पसंद आई। उन्होंने लिखा ‘हम अगले सेमेस्टर की शुरुआत तुम्हारी कविता से करेंगे और उस दिशा में आगे बढऩे की कोशिश करेंगे जिस दिशा में वीना दी हमें ले जाना चाहती थीं और जिस दिशा में हमें क्यों बढऩा चाहिए वह तुम्हारी कविता बताती है।’ पिछले कुछ हफ्तों में हमने वीना दी और शर्मीला दोनो को खो दिया। शर्मीला अब वीना दी पर लिखी कविता अपने विद्यार्थियों के सामने नहीं पढ़ सकेगी परंतु उनका काम, उनकी विरासत और उनकी सोच हमें हमेशा प्रेरणा देती रहेगी।
– उर्वशी बुटालिया, स्त्री अधिकारवादी इतिहासविद् और ‘जुबान बुक्स’ की संस्थापक हैं
गेल ऑम्वेट की श्रद्धांजलि को छोड़कर अन्य सभी श्रद्धांजलियां In memoriam: Sharmila Rege (1964 -2013) August 15, 2013 Team FI Obituary http://feministsindia.com/tag/sharmila-rege/ से ली गई हैं
फारवर्ड प्रेस के जनवरी, 2014 अंक में प्रकाशित
फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्त बहुजन मुद्दों की पुस्तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्य, संस्कृति व सामाजिक-राजनीति की व्यापक समस्याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +919968527911, ईमेल : info@forwardmagazine.in
I fully agree with you. I have recently authored a book, waiting to be published. I am looking for a publisher for the purpose. Please advise. Thank you. Sstya shri 9671313708.