मुझसे एक बार पूछा गया था कि क्या मैं किसी गांव कीन एक गली के बंद होने की पूरी दास्तान को लिख सकता हूं। सवाल पूछने की वजह थी। वह यह कि जो महिलाएं सूरज के दिखने से पहले लोटा लेकर नहीं निकल पाती थीं उन्हें फिर दिनभर अपना पेट साफ करने का मौका नहीं मिल पाता था। ढेर सारी महिलाएं रोजाना ही अंधेरा होने तक बेचैन रहती थीं। लेकिन एक पत्रकार के सामने दिक्कत यह थी कि छह लाख से ज्यादा गांवों वाले इस देश में एक गांव की गली के बंद होने की दास्तान को संचार के कौन से माध्यम तरहीज देंगे। हर पत्रकार पर यह दबाव होता है कि वह जनसंचार के जिन माध्यमों के लिए लिखना चाहता है, उन्हें वह विषय पसंद आना चाहिए। पत्रकार की किसी न किसी जनसंचार माध्यम पर निर्भरता को ही पत्रकारिता का नाम दिया जाता है।
लगभग ऐसा ही सवाल मेरे सामने फिर आया है कि क्या मैं किसी एक गांव के किसी एक रास्ते के बंद होने की कहानी लिख सकता हूं। जब बंद गली की दास्तान लिखने के लिए मुझसे कहा गया था तो मैंने उसे सिर्फ एक गली की दास्तान के रूप में नहीं देखा था बल्कि उसे देश के सभी गांवों में वैसी गलियों के बंद होने और उससे जुड़ी महिलाओं की दास्तान के रूप में देखा था। सीमाएं किसी विषय को समझने और समझाने में ही निहित होती हैं। रास्तों के बंद होने की दास्तान सैकड़ों-हजारों गांवों में हो सकती है क्योंकि यह रास्तों के बंद होने की कहानी ही नहीं है बल्कि दमन का एक रूप है। रास्तों के बंद होने से जिस तरह दलितों का दमन किया जाता रहा है वैसे ही गली को बंद कर महिलाओं का दमन किया जाता रहा है। इस जमाने में रास्ते, गांव में व्यक्ति या व्यक्तियों के आने-जाने का एक माध्यम भर ही नहीं हैं बल्कि गांव में एक नए जीवन और एक नई सामाजिक संरचना के घुसने और बाहर आने का एक जरिया भी हैं।
जब हम स्कूल में पढ़ रहे थे तब हमें रेल और सड़क पर दौडऩे वाले वाहनों के बारे में बताया जाता था कि ये संचार के साधन हैं। संचार के माध्यमों का विकास हुआ है लेकिन वह विकास किसके लिए हुआ है? इसके आंकड़े हमें नहीं मिलते। रास्ते और पक्के रास्ते गांव के दक्खिन टोले तक कितने पहुंचे हैं? महीने भर में मुझे दो गांवों के रास्तों के बंद होने की दास्तान सुनने को मिली। मजे की बात तो यह भी है कि यह दास्तान पत्रकारों ने सुनाई। वह इस तरह कि वे अपने गांव के दक्खिन टोले से निकलकर समाचारपत्रों को छापने वाली राजधानियों में तो पहुंच गए हैं लेकिन वे जब भी अपने गांव जाते हैं तो उन्हें यह एहसास करना पड़ता है कि वे दक्खिन टोले वाले हैं जहां आने-जाने का रास्ता आदिम जमाने से ही नहीं बना है।
एक ने लिखा-ग्राम सिमरीडीह, पोस्ट+थाना वारसलीगंज, जिला : नवादा, मंडल गया, राज्य : बिहार,-जनसंख्या 8,05130। महाशय, ग्राम सिमरीडीह में लगभग 200 घरों की आबादी है जिसमें लगभग साठ घर दलित (मुशहर व चमार) हैं। बाकी भूमिहार जाति के हैं। दलितों का रास्ता (व्यक्ति का नाम) घर के पास से है जिसे उसने चार महीने पहले रास्ते पर दीवार खड़ी करके बंद कर दिया। वह दबंग व्यक्ति है। दीवार खड़ी करने के समय दलितों ने प्रखंड से लेकर जिला तक प्रदर्शन किया। प्रखंड के अधिकारी मौके पर आए। उनके सामने तय हुआ कि उस व्यक्ति के घर से थोड़ी दूर स्थित सरकारी जमीन पर से दलितों को रास्ता मिलेगा। उसके बाद उस जमीन पर रोड भी पास हो गया। मई में रोड बनाने की बात हुई थी। लेकिन वह व्यक्ति अब रोड बनाने नहीं दे रहा है। उस जमीन पर भी उसका अवैध कब्जा है। प्रशासन भी कुछ नहीं कर रहा है। बरसात का मौसम आने वाला है, जिससे दलितों को भारी परेशानी होगी। सूखे में तो किसी तरह आना-जाना हो रहा है। दलित जाएं तो कहा जाएं? कुछ करिए।
दूसरे ने भी जो लिखा केवल उसमें गांव और प्रदेश का नाम भर बदला लगता है। वे लिखते हैं : खदेरू बाबा! वह जाति से धोबी थे। दिल्ली के
भारतीय जनसंचार संस्थान में मेरे दाखिले के बारे में उनको किसी ने बताया था। उन्हें बताया गया था कि पत्रकारिता की पढ़ाई के बाद मेरे पास जिला कलेक्टर से भी ज्यादा पावर होगा। दीपावली की छुट्टी में घर पर था। एक दिन, शाम के वक्त, वे मिलने पहुंचे। आसपास बैठे दूसरे लोगों के चले जाने के बाद उन्होंने धीरे से पूछा, ‘बाबू सुननी हअईं की तू बहुत अच्छा जगही पर पढ़त बालअ, तनी डीएम साहेब पर जोर डाली के इअ सड़किया बन जाइत।’ उन्होंने पूरे अधिकारपूर्ण अनुरोध के साथ यह बात कही।
दरअसल, सड़क का संकट उनके लिए सिर्फ आने-जाने की सुविधा का सवाल नहीं था। बल्कि यह आत्मस्वाभिमान और सामंती दबाव से उबरने का संघर्ष था।
बहू-बेटियों की विदाई दरवाजे से हो, यह एक पिता का सपना होता है। मगर उत्तरप्रदेश में देवरिया जिले के गांव खड़ेसर की तकरीबन आधी आबादी के लिए यह आज भी सपना सरीखा है। खड़ेसर गांव में सड़क के सहारे किसी के दरवाजे पर किसी साधन से पहुंचना संभव नहीं है। गांव में दिक्कत तब बढ़ जाती है, जब कोई बीमार हो जाता है। खदेरू बाबा ने बताया था कि सरकारी नक्शे में सड़क है लेकिन अगल-बगल के लोगों ने उस जमीन पर कब्जा कर रखा है। वे इसे अपना खेत बताते हैं। इन्हीं खेतों के बीच में पगडंडियां हैं जिससे गांव वाले मुश्किल से बाहर निकलते हैं। बरसात में तो इनकी हालत बदतर हो जाती है। इसे भी अक्सर बंद कर दिया जाता है या रास्ते में कांटे रख दिए जाते हैं। जिनका खेत रास्ते में पड़ता है, वे दलित परिवारों को इस पगडंडी को बंद करने की अक्सर धमकी देते हैं। अपने यहां काम करने का दबाव डालते हैं और अभद्रता से पेश आते हैं।
रास्ते की दास्तान दलित और महिलाएं ही जानती हैं। केरल के पथनामथिट्टा जिले में जून 2013 में घूमंतू आदिवासी अयप्पन की पत्नी सुधा बीमार थीं। परिवहन व्यवस्था न होने की वजह से गर्भवती पत्नी को पीठ पर लादकर उन्होंने चालीस किलोमीटर का लंबा सफर तय किया। भारी बारिश के बीच कोन्नी के जंगलों को पार करते हुए अयह्रश्वपन सुबह पत्नी को लेकर पथनामथिट्टा के जिला अस्पताल पहुंचे। बाद में सुधा को कोट्टायम मेडिकल कॉलेज भेजा गया। उनकी जान तो बच गई मगर बच्चा नहीं। बिहार में गया जिले के गहलौर गांव के दशरथ मांझी की पत्नी फगुनी देवी को पहाड़ पारकर पानी लेने जाना पड़ता था। एक दिन वे फिसलकर गिर गईं। मटका टूट गया और उन्हें गहरी चोट आई। फगुनी देवी को लगी यह चोट दशरथ बाबा को एक संकल्प दे गई। उन्होंने पूरी जिंदगी लगा दी और अपनी छैनी-हथौड
की बदौलत 27 फुट ऊंचा पहाड़ काटकर 365 फुट लंबा एवं 30 फुट चौड़ा रास्ता बना दिया। पहाड़ी को 80 किलोमीटर घूमकर जाने के रास्ते को तीन किलोमीटर में समेट दिया।
भारतीय समाज में रास्तों के लिए संघर्ष की गाथाएं किसी युद्ध में लड़ाई लडऩे से ज्यादा लंबी हैं। वारसलीगंज और खड़ेसर का नाम इसीलिए लिखा गया क्योंकि वहां से दो लिखने वाले निकल पड़े। गहलौर में रास्ता इसीलिए बन गया क्योंकि वहां दशरथ मांझी ने छैनी-हथौड
उठा लिया। अयप्पन ने अपनी पत्नी की जान बचा ली क्योंकि उसकी पीठ में दम बाकी था। न जाने कितनी दास्तान रास्तों में भरे पड़े हैं। लेकिन उन्हें कौन लिखेगा? कैसे रास्ते बनेंगे? कौन रोजाना गांव के एक नए नाम के साथ दस्तक देगा और बताएगा कि किस एक व्यक्ति ने किस एक समूह और समाज के चलने-फिरने व आने-जाने के रास्ते पर अपना हुक्का गाड़ रखा है।
फारवर्ड प्रेस के जुलाई, 2014 अंक में प्रकाशित)
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