झारखण्ड में नवम्बर-दिसंबर 2014 में हुए विधानसभा चुनाव का जनादेश क्या है? चुनाव में मोदी लहर की क्या भूमिका रही? क्या यह लहर केवल मीडिया द्वारा निर्मित मिथक थी या इसने परिणामों पर निर्णायक प्रभाव डाला? इन प्रश्नों का उत्तर देने से पहले यह समझना होगा कि राज्य में कौन-सी पार्टी किस सामाजिक वर्ग का प्रतिनिधित्व करती है।
आदिवासी इलाके और राजनीतिक पार्टियां
झारखंड विधानसभा की 81 में से 28 सीटें आदिवासियों और नौ अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षित हैं। आदिवासियों के लिए आरक्षित सभी सीटें हो, मुंडा, खडिय़ा, उरांव और संथाल समुदायों के परंपरागत बसाहट वाले इलाकों में हैं, यद्यपि राज्य में पहाडिय़ा, असुर, बिरहोर, बिरजिया जैसे अन्य आदिम आदिवासी समुदाय भी हैं तथापि सीटों का बंटवारा सिर्फ चार बड़ी आदिवासी आबादियों – हो, मुंडा, संताल और उरांव – के बीच ही होता है। इनमें से करीब आधे विधानसभा क्षेत्रों की सीमाएं बिहार, पश्चिम बंगाल, ओडि़सा और छत्तीसगढ़ से लगती हैं। ये सीटें एक तरह से राज्य के औद्योगिक और शहरी इलाकों को घेरे हुए हैं।
आदिवासी सीटों में से संथा बहुल क्षेत्र में भाजपा सिर्फ दो सीटें हासिल कर सकी दुमका और बोरियो में। पोटका, खूंटी और सिमडेगा के हो (कोल्हान), मुंडा और खडिय़ा इलाकों में भाजपा को एक-एक सीट मिली है। इसके अलावा, खिजरी, मांडर, सिसई, गुमला और मनिका में भी भाजपा जीती है। उरांव बाहुल्य इन विधानसभा क्षेत्रों में सिर्फ सिसई और गुमला के भीतरी इलाकों में थोड़ी-बहुत खडिय़ा आबादी है। मुंडा क्षेत्र के तमाड़ और उरांव क्षेत्र के लोहरदगा सीटों पर आल झारखंड स्टूडेंट्स यूनियन (आजसू) विजयी हुई है। कोल्हान की एक सीट गीता कोड़ा ने और खडिय़ा-मुंडा क्षेत्र की कोलेबीरा सीट एनोस एक्का ने जीती हैं,ये दोनों निर्दलीय हैं। भाजपा को मिली 11 आदिवासी सीटों में से बोरियो को छोड़कर सभी सीटें नगरीय, कस्बे-बाजार, या जिला मुख्यालय हैं या फिर पड़ोसी राज्यों की सीमाओं से बिल्कुल सटी हैं। वहीं, झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) उन सभी 13 सीटों पर विजयी हुई है, जो कि आदिवासी चेतना और संघर्ष के सघन इलाके हैं। शेष जिन छह सीटों पर झामुमो उम्मीदवार जीते हैं, वे हैं नाला, मांडू, डुमरी, गोमिया, बहरागोड़ा और सिल्ली। इनमें भी गोमिया और मांडू विधानसभा क्षेत्रों में खदानों और उद्योगों के कारण थोड़ी बहुत बाहरी आबादी है। अन्य सभी आदिवासी व मूलनिवासी सदान बहुल क्षेत्र है। इस प्रकार झामुमो को मिलीं 19 में से 13 सीटें सघन आदिवासी इलाकों में और चार सघन सदान क्षेत्रों में हैं। सदान और बाहरी मिश्रित सिर्फ दो ही सीटें झामुमो को मिली हैं। यानी झारखंड आंदोलन के मूल उद्देश्यों से भटक जाने के बावजूद, झामुमो को झारखंड के अधिसंख्यक आदिवासी समुदायों और सदान समाज ने अपना राजनीतिक प्रतिनिधि स्वीकार किया है। झामुमो के साथ बाहरी लोगों की दूरी बरकरार है बल्कि बढ़ी है।
दलित किसके साथ हैं?
अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षित नौ सीटों में से भाजपा ने पांच छतरपुर, कांके, जमुआ, देवघर व चतरा, झाविमो ने तीन लातेहार, सिमरिया व चंदनकियारी और आजसू ने जुगसलाई सीट जीती है। वहीं, कांग्रेस के मुस्लिम उम्मीदवार पाकुड़ और जामताड़ा से जीते हैं। साफ़ है कि दलित, स्वाभाविक रूप से हिंदू नेतृत्व वाले भाजपा और झाविमो के साथ हैं, तो मुस्लिम, कांग्रेस के साथ। बिरसा और आम्बेडकर में यहाँ दूरी बनी हुई है, झामुमो से दलितों का को कोई लेना-देना नहीं है।
ओबीसी की पसंद
झाविमो ने अनुसूचित जाति की तीन और सामान्य वर्ग की पांच सीटों पर जीत हासिल की है। सिमरिया, चंदनकियारी और लातेहार अनुसूचित जाति की सीटें हैं तो हटिया, डाल्टनगंज व सारठ सामान्य वर्ग कीं। सामान्य वर्ग के पांचों विजयी उम्मीदवार ओबीसी हैं। इस प्रकार, झाविमो को मिली सभी आठ सीटें मूलवासी सदान और बाहरी मिश्रित आबादी वाली हैं।
कांग्रेस ने इस चुनाव में सिर्फ छह सीटें जीती हैं। पांकी, बरही, बड़कागांव, जरमुंडी, पाकुड़ और जामताड़ा की। ये सभी सामान्य सीटें हैं। इन सीटों पर विजेताओं में से दो मुस्लिम हैं और एक महिला। जबकि छह में से चार संभवत: ओबीसी समुदाय से आते हैं। इनमें भी लगभग सभी विधानसभा क्षेत्रों में बहिरागतों की घुसपैठ है।
चुनावी दौड़ में चैथे नंबर पर रही आजसू की पांच सीटों में से एक अनुसूचित जाति (जुगसलाई), दो आदिवासी (तमाड़ और लोहरदगा) और दो सामान्य (रामगढ़ और डाल्टनगंज) हैं। इनमें से चार सदान बहुल हैं। रामगढ़ में बाहरी आबादी बहुत है, तो डाल्टनगंज के मतदाताओं में सदानों के साथ बहिरागतों की संख्या भी अच्छी-खासी है। वहीं, हुसैनाबाद से पहली बार बसपा का खाता खोलने वाले विजयी उम्मीदवार भी ओबीसी से आते हैं।
कुल मिलाकर झारखंड के मूलवासी सदानों में से अधिकांश, बड़ी संख्या में ओबीसी और बहिरागतों में से कुछ झाविमो और आजसू के साथ है। ओबीसी का कुछ हिस्सा भाजपा के साथ है। ओबीसी भी झामुमो के साथ नहीं हैं।
दिकुओं की पसंद
भाजपा की 37 सीटों में से यदि हम अजजा-अजा की 16 सीटें निकाल दें तो सामान्य वर्ग की 21 सीटें बचती हैंए जो मुख्यत: औद्योगिक, शहरी, बाहरी आबादी से अतिक्रमित और बिहार-बंगाल के सीमावर्ती विधानसभा क्षेत्र है। जैसे, रांची, धनबाद, बोकारो, बेरमो, गिरिडीह, कोडरमा, जमशेदपुर, घाटशिला, दुमका, गुमला आदि। लगभग यही स्थिति उन आदिवासी सीटों की भी है, जिनपर भाजपा को जीत मिली है। झाविमो, कांग्रेस और आजसू भी अधिकांशत: उन्हीं इलाकों में जीते हैं, जहां बाहरी लोगों का स्पष्ट प्रभाव है। मतलब 81 में से सुरक्षित 37 (28 अजजा और 9 अजा) सीटें निकाल दें तो बची हुई 44 सामान्य सीटों में से मात्र छह ही झामुमो को मिली हैं, जो कि मुख्यत: मूलवासी सदान बहुल सीटें हैं। बहिरागतों के प्रभाव वाली एक भी सीट झामुमो के खाते में नहीं आई है।
स्पष्ट है कि इस चुनाव में बाहरी समाज की पहली पसंद भाजपा और दूसरी झाविमो है। आजसू की तरफ भी उनका थोड़ा रूझान है पर वे अभी पूरी तरह से उसे अपना मानने में हिचक रहे हैं। हालांकि लोकसभा चुनाव से ही आजसू बाहरी समाज को यकीन दिलाने में लगी थी कि भाजपा के बाद झाविमो नहीं, बल्कि वह उनकी दूसरी राजनीतिक पार्टी हैं। वैसे, परंपरागत रूप से बहिरागत कांग्रेस के साथ थे, जो अब इनके साथ चले गए हैं। इस बार राजद और जदयू दोनों का ही खाता बंद हो गया है।
महिलाएं और वामपंथी
महिलाओं ने नौ सीटों पर जीत दर्ज की है, जो विधानसभा में उनकी अब तक की सबसे ज्यादा भागीदारी है। सन 2000 की पहली विधानसभा में वे सिर्फ चार थीं, 2005 में पांच और 2009 में उनकी संख्या आठ थी। भाजपा की मेनका सरदार और विमला प्रधान, झामुमो की सीता सोरेन और निर्दलीय गीता कोड़ा पिछली विधानसभा में भी थीं, जबकि भाजपा की गंगोत्री कुजूर, लुईस मरांडी व नीरा यादव और कांग्रेस की निर्मला देवी पहली बार विधायक बनी हैं। झामुमो की जोबा मांझी पिछली विधानसभा में नहीं थीं पर वे इससे पहले विधायक और मंत्री रह चुकी हैं। नौ में से दो महिलाएं ओबीसी हैं और शेष सभी आदिवासी।
दो विधानसभा क्षेत्रों में वामपंथी जीते हैं। निरसा सीट पर मार्क्सवादी समन्वय समिति के अरूप चटर्जी इस बार भी अपना कब्ज़ा बरकऱार रखने में सफल रहे हैंं, 25 साल बाद, भाकपा-माले (लिबरेशन) बगोदर की सीट भाजपा के हाथों हार गई लेकिन धनवार सीट से जीत दर्ज कर लिबरेशन के राजकुमार यादव ने इसकी भरपाई कर दी है। उन्होंने झाविमो सुप्रीमो बाबुलाल मरांडी को हराया है, जिन्हें वे पिछले कई चुनावों में कांटे की टक्कर देते आ रहे थे। दिलचस्प यह है कि निरसा मजदूर बहुल तो धनवार और बगोदर किसान बहुल क्षेत्र है।
मोदी लहर की असलियत
लोकसभा चुनाव 2014 में भाजपा को 40.71 प्रतिशत वोट मिले थे और राज्य के 57 विधानसभा क्षेत्रों में उसने बढ़त हासिल की थी। विधानसभा चुनाव में उसे महज 31.3 प्रतिशत वोटों के साथ 37 सीटों पर संतोष करना पड़ा। इसकी तुलना में झामुमो ने लोकसभा से लगभग दोगुनी सीटों पर बढ़त हासिल की है। लोकसभा चुनाव में वह मात्र 15.20 प्रतिशत वोट के साथ 10 सीटों पर आगे थी। लेकिन विधानसभा चुनाव में उसने अपना मत प्रतिशत 20.4 तक बढ़ाते हुए 19 सीटों पर जीत पायी है। वैसे, लोकसभा के मुकाबले भाजपा को छोड़कर, विधानसभा चुनाव में सभी दलों ने बेहतर प्रदर्शन किया है और उनके वोट प्रतिशत में इजाफा हुआ है। ध्यान रखने वाली बात है कि 2009 में भाजपा के पास 18 सीटें थीं और उससे पहले, 2005 में, जब मोदी लहर का नामोनिशान नहीं था, वह 30 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी थी। तो, ‘लहर’ की जमीनी हकीकत यही है कि 2014 में मात्र सात सीटों की बढ़त के बावजूद भाजपा अकेले बहुमत जुटा पाने में नाकामयाब रही है और झामुमो पहले से एक सीट ज्यादा लाकर मजबूत झारखंडी पार्टी के रूप में उभरी है।
(फारवर्ड प्रेस के फरवरी, 2015 अंक में प्रकाशित )
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