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श्रद्धांजलि/   कृष्ण मुरारी किशन (1952-2015) : दुनिया ने बिहार को उनकी निगाहों से देखा

कृष्ण मुरारी किशन की मृत्यु में हमने एक अप्रितम छाया-पत्रकार खो दिया है। पिछले चालीस वर्षों में शायद ही कोई महत्वपूर्ण घटना होगी, जिसका उनका कैमरा साक्षी न रहा हो

1 फरवरी, २०१५ को चर्चित छाया-पत्रकार कृष्ण मुरारी किशन का निधन हो गया।  उन्हें २६ जनवरी को दिल का दौरा पड़ा था। अगले दिन उन्हें दिल्ली के मेदांता अस्पताल में भर्ती किया गया था।

विगत ४० वर्षों से बिहार के राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और साहित्यिक जीवन के हर महत्वपूर्ण घटनाक्रम के वे चश्मदीद रहे। उन्होंने कई “ब्रेकिंग न्यूज” को अपने कैमरे में कैद किया। भय उन्हें छू तक नहीं गया था और इस कारण वे दो बार गोलियों से जख्मी भी हुए। कई मीडिया संस्थानों व समाचार एजेंसियों से उनकी संबद्धता रही। वे बिहार के अपने क्षेत्र के  एक मजबूत स्तंभ थे, जिनका असमय गुज़र जाना एक बड़ी क्षति है।

उनकी स्मृति में आयोजित  शोकसभाओं में यह मांग प्रमुखता से की गयी कि उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया  जाए, उनके छायाचित्रों – खासकर जेपी आंदोलन के उनके फोटोग्राफों – का संकलन  और उनके स्मृति ग्रंथ का प्रकाशन किया जाए। विभिन्न संगठनों द्वारा किशन की स्मृति में आयोजित की गयीं  शोकसभाएं, समाज के सभी वर्गों में उनकी लोकप्रियता की सूचक हैं।

बिहार आंदोलन के छायाकार

कृष्ण मुरारी किशन ने ऐतिहासिक ‘बिहार आंदोलन’ से अपने छायाकार जीवन की शुरुआत की थी। वे अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के सदस्य थे। पटना के कदमकुआं स्थित कांग्रेस मैदान में वे परिषद की गतिविधियों में शरीक होने आते थे। लौटते समय, पास में ही रह रहे जेपी के पास चले जाते; वहीं पानी पीते, कुछ समय बिताते और फिर घर जाते। बकौल मुरारी, “जेपी से इस तरह हमारी हर दिन मुलाकात होती थी। वे उन दिनों “बिहार रिलीफ कमेटी” में बड़े ओहदे पर थे। वे हम लोगों को नानखटाई खिलाते थे। उन्हीं के पास आते-जाते कब उनके प्रभाव में आकर फोटोग्राफी करने लगा, पता ही नहीं चला।”  बिहार आंदोलन का अपने कैमरे से इतिहास लिखने वाले छायाकारों में रघु राय व सत्यनारायण के साथ-साथ, किशन को भी हमेशा याद रखा जायेगा।

उस समय फोटो-पत्रकारिता जैसी कोई चीज़ नहीं हुआ करती थी और अख़बारों की संख्या भी बहुत सीमित थी। तब डिजीटल माध्यम भी विकसित नहीं हुए थे। निगेटिव को डेव्लप कर छायाचित्रों को ‘ब्लॉक’ पर उकेरा जाता था। घंटो स्टूडियो में इंतज़ार और फिर राष्ट्रीय अखबारों में भेजने के लिए साईकिल से हवाई अड्डे तक की यात्रा, आंदोलन में पुलिस की बर्बरतापूर्ण पिटाई सहकर भी हर दृश्य को कैमरे में कैद करने का जीवट – कितना संघर्षपूर्ण, जोखिम-भरा और खर्चीला रहा होगा कृष्ण मुरारी किशन का जीवन।

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कृष्ण मुरारी किशन ने अपने लंबे करियर में हमेशा संजीदगी के साथ और निर्भीक होकर फोटो-पत्रकारिता के उच्च प्रतिमान कायम किये

किशन एक पिछड़े लुहार परिवार में पैदा हुए थे, जिनका पारंपरिक पेशा कृषिकर्म से जुड़े औजार मसलन हल, कुदाल, खुरपी व गेट, ग्रिल आदि बनाना था। इनके पिता द्वारिका विश्वकर्मा की पटना के दरियापुर गोला मुहल्ले में साईकिल मरम्मत की दुकान थी, जिसमें किशन भी हाथ बंटाया करते थे। बाद में उन्होंने 20-25 रिक्शे ले लिए। उसी से उनकी आजीविका चलती थी।

कृष्ण मुरारी किशन का जन्म 17 जनवरी, 1952 को पटना के दरियापुर गोला मुहल्ले में हुआ था। इनकी मां सरस्वती देवी थीं। किशन ने पटना कॉलेजिएट स्कूल से मैट्रिक की परीक्षा सन १९६८ में उत्तीर्ण की। आई. कॉम की परीक्षा उन्होंने कॉमर्स कॉलेज, पटना से सन १९७७ में पास की। वे चार्टर्ड अकाउंटेंट बनना चाहते थे लेकिन अपनी पीढ़ी के कई अन्य लोगों की तरह, वे बिहार आंदोलन की ओर आकर्षित हो गए। उन्होंने कैमरे का दामन थाम लिया और फोटोग्राफी की विधा में इतनी प्रवीणता हासिल की कि वे अपने समय की किवदंती बन गए।

उस दौर में ‘आर्यावर्त’, ‘इंडियन नेशन’, ‘सर्चलाईट’ और ‘प्रदीप’ बिहार के  प्रमुख  अखबार थे। किशन ‘इंडियन नेशन’ और ‘आर्यावर्त’ में रोजाना जेपी आंदोलन से सम्बंधित फोटोग्राफ देते थे। अवध कुमार झा, जो तब इन दोनों समाचारपत्रों के प्रकशन समूह में चीफ रिपोर्टर थे, ने इन्हें अधिकृत किया था। फोटो प्रदाय करने के लिए उन्हें अखबार से भुगतान तो मिलता ही था, जेपी भी उन्हें फोटो डेव्लप कराने आदि का खर्च देते थे। यह वह दौर था,  जब बिहार में इस आंदोलन की पृष्ठभूमि तैयार हो रही थी।  किशन का मिशन था आंदोलन की गतिविधियों से प्रांतीय व राष्ट्रीय मीडिया को अवगत कराना।

उन दिनों की राष्ट्रीय फोटो न्यूज एजेंसी ‘पाना इंडिया’ को किशन ने बिहार आंदोलन की हरेक गतिविधि के फोटोग्राफ भेजे। आंदोलन की खबरों के साथ उसके छायाचित्रों ने आन्दोलन के पक्ष में लोगों को एकजुट किया। उन दिनों बालाजी देवरस,  प्रकाश सिंह बादल, जार्ज फर्नांडिस,  चंद्रशेखर आदि पटना आते रहते थे। इन तमाम लोगों की जेपी से मुलाकात की खबरें सुर्खियां पातीं। जेपी तीव्रता से राष्ट्रीय एकजुटता के प्रतीक बनकर उभरे। जेपी से मिलने बिहार जाना, बाहर के नेताओं को उनके राज्यों में सुर्ख़ियों में ले आता था। कृष्ण मुरारी पहले ऐसे छायाकार-पत्रकार थे,  जिन्हें इस आंदोलन ने पैदा किया।

 हाथ में कैमरा

यह जानना दिलचस्प होगा कि इस चर्चित छायाकार ने फोटोग्राफी माध्यम को किन परिस्थितियों में चुना। जिन दिनों वे प्री-यूनिवर्सिटी में पढ़ते थे, जेबखर्च के लिए एक-दो ट्यूशन पढ़ाते थे। संयोग से, उनकी एक छात्रा के पिता के पास एक फोल्डिंग कोडैक कमरा था,  जिसमें एक रील में 8 फोटो आते थे। किशन ने इस  कैमरे पर अपना हाथ आजमाया और  यहीं से तस्वीरों के साथ उनका जुड़ाव आरंभ हुआ,  जो जीवन की अंतिम सांस तक बना रहा। जल्द ही उन्होंने लूबीटल-2 कैमरा खरीद लिया,  जिसकी कीमत उस समय लगभग 350 रुपए थी।

किशन की प्रसिद्धि महज ‘बिहार आंदोलन’ के छायाकार बतौर नहीं थी। उन्होंने अपने लंबे करियर में हमेशा संजीदगी के साथ और निर्भीक होकर फोटो-पत्रकारिता के उच्च प्रतिमान कायम किये।  पुलिस दमन हो या सामंती उत्पीड़न, सियासी सरगर्मी हो या जनांदोलन – उन्होंने सभी को कवर किया। भागलपुर का  ‘अंखफोड़वा कांड’ हो या बेलछी की इंदिरा गांधी की यात्रा या फिर दस्यु मोहन बिंद, जो अपने इलाके के लोगों के लिए नासूर बना हुआ था- ये सब किशन के करियर के यादगार लम्हे रहे। ‘रविवार’, ‘धर्मयुग’, ‘इलस्ट्रेटेड वीकली ऑफ़ इंडिया’ जैसे अपने दौर के महत्वपूर्ण प्रकाशनों में उनके  छायाचित्र नियमित रूप से छपते रहे।

कृष्ण मुरारी मानते थे कि हर जगह का अपना गजेटियर होता है। इसलिए उनकी तस्वीरों में यह कोशिश झलकती थी कि वे समग्रता में वहां का पूरा इतिहास बयान करें।

फारवर्ड प्रेस के अप्रैल, 2015 अंक में प्रकाशित

 

लेखक के बारे में

अरुण नारायण

हिंदी आलोचक अरुण नारायण ने बिहार की आधुनिक पत्रकारिता पर शोध किया है। इनकी प्रकाशित कृतियों में 'नेपथ्य के नायक' (संपादन, प्रकाशक प्यारा केरकेट्टा फाउंडेशन, रांची) है।

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