h n

फारवर्ड विचार, अक्टूबर 2015

अगर उत्तर में मुस्लिम साम्राज्य और दक्षिण में पुर्तगाली उपनिवेशवादियों पर साम्राज्यवादी मूर्ति भंजन का आरोप लगाया जाता है तो ब्राह्मणवादी शक्तियों को भी पूरे देश में श्रमणिक संस्कृति और धर्मों पर हमले करने के लिए कटघरे में खड़ा किया जाना चाहिए।

cover_Oct '15सत्य-केवल तथ्य नहीं-अच्छे इतिहास और अच्छी पत्रकारिता-जो कि इतिहास का पहला मसविदा होती है-की मुद्रा है। संस्कृति और आध्यात्म के मामले में तो यह बात और भी सही है। आमतौर पर कहा जाता है कि ”भारत एक आध्यात्मिक देश है”। अगर ऐसा है तो हमें अपने आध्यात्म और संस्कृति की जड़ों को खंगालना होगा। हमें सत्य की चलनी का इस्तेमाल कर मिथकों, किंवदंतियों और अंधविश्वास को अलग करना होगा। फारवर्ड प्रेस अपनी शुरूआत से ही पत्रकारिता के इस उच्च प्रतिमान के प्रति प्रतिबद्ध रही है।
एफपी के 2009 के शुरूआती अंकों में हमने दो भागों में एक लेख प्रकाशित किया था, जिसका शीर्षक था ”मिथकों के पीछे का सच: बलिराजा बनाम वामन”। ब्रजरंजन मणि के इस लेख की पहली पंक्ति थी, ”वाल्टर बैंजामिन का मन को उद्दिग्न कर देने वाला एक उद्धृरण है कि ‘सभ्यता का कोई ऐसा दस्तावेज नहीं है जो बर्बरता का दस्तावेज भी न हो’।” बहुजन संस्कृति व परंपरा पर केंद्रित इस पांचवे विशेषांक की आवरणकथा हमें मवेली/महाबली/बलिराजा के पारंपरिक देश में हुए सांस्कृतिक युद्धों की याद दिलाती है। डॉ. अजय शेखर, पुरातत्वीय व भाषायी शोध के प्रकाश से बौद्ध दक्षिण भारत के ब्राह्मणीकरण के दौरान हुई हिंसा के इतिहास को आलोकित करते हैं। मुझे यह जानकर आश्चर्य हुआ कि यह प्रक्रिया 16वीं सदी तक चलती रही।
इस वर्चस्ववादी हिंसा का एक महत्वपूर्ण सुबूत है पट्टनम में पाई गई पद्मासन में बैठे एक व्यक्ति (बुद्ध?) की खंडित मूर्ति। लेखक लिखते हैं, ”केरल में सभी बौद्ध प्रतिमाएं या तो वर्तमान सवर्ण मंदिरों के तालाबों या धान के खेतों या उनके आसपास की आद्र भूमि में मिलीं हैं। ऐसा लगता है कि इन प्रतिमाओं को किसी हमले में उखाड़ कर तालाबों और दलदलों में फेंक या गाड़ दिया गया था। केरल के शमण इतिहास को पाताल में धकेल दिया गया, ठीक वैसे ही जैसे मवेली या महाबली के साथ किया गया था।”
शेखर का कहना है कि ”पट्टनम बुद्ध, इतिहास का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है, जो यह संदेश देता है कि हमें सांस्कृतिक हमलावरों, मूर्ति भंजकों व इमारतों को नष्ट करने वाले श्रेष्ठि वर्ग की वर्चस्व स्थापित करने की कुत्सित रणनीतियों के प्रति सावधान रहना है”। स्पष्ट है कि हमारे देश में हिंसा के कई आयाम रहे हैं। अगर उत्तर में मुस्लिम साम्राज्य और दक्षिण में पुर्तगाली उपनिवेशवादियों पर साम्राज्यवादी मूर्ति भंजन का आरोप लगाया जाता है तो ब्राह्मणवादी शक्तियों को भी पूरे देश में श्रमणिक संस्कृति और धर्मों पर हमले करने के लिए कटघरे में खड़ा किया जाना चाहिए।
जब भी असत्य की शक्तियों के सामने सत्य लाया जाता है, विशेषकर ऐसा सत्य जो उनके लिए कटु हो, तो उनकी एकमात्र प्रतिक्रिया हिंसा होती है। फारवर्ड प्रेस में हम इसे कम से कम पिछले अक्टूबर से अच्छी तरह से जान गए हैं। जेएनयू के कुछ दक्षिणपंथी छात्रों द्वारा (मुख्य संपादक के बतौर) मेरे और पत्रिका के विरूद्ध एफआईआर दर्ज की गई। शुरू में स्थानीय पुलिस ने इसे गंभीरता से नहीं लिया। परंतु बाद में उच्च राजनैतिक स्तर से हुक्म मिलने के बाद पुलिस ने इतनी जल्दबाजी में काम किया कि उसका पूर्वाग्रह छिप न सका। इस घटना को एक साल बीत चुका है और इस दौरान प्रमोद रंजन और मुझसे केवल एक बार पूछताछ की गई है। हम पर अब तक आरोप भी तय नहीं किए गए हैं। तो यह है इन आरोपों का सच!
इस बीच कुछ सवर्ण लेखक, पत्रिका और विशेषकर मेरे बारे में कई तरह के झूठ फैला रहे हैं। यह ठेठ ब्राह्मणवादी तरीका है। हाल में सोशल मीडिया में कुछ लोगों ने हमारे खिलाफ हिंसा भड़काने की कोशिश की और हमें धमकियां भी दीं। और यह सब वे देशभक्ति के नाम पर कर रहे हैं। इसी तरह के ‘देशभक्त’, देशभक्ति को बदनाम करते हैं, जिसे बैन जान्सन ने ”लुच्चों की अंतिम शरणस्थली” और लेव तालस्तोय ने ”वह सिद्धांत बताया था जो थोक में हत्याएं करने वालों के प्रशिक्षण को औचित्यपूर्ण बताता है।”
महात्मा फुले, जिन्होंने आधुनिक भारत में पहली बार ब्राह्मणवादी मिथकों का विखंडन किया, के पदचिन्हों पर चलते हुए, मेरी यह मान्यता है कि देशभक्त वह है जो केवल अपनी कर्मभूमि और जन्मभूमि से ही प्रेम नहीं करता वरन् उस भूमि के बहुसंख्यक लोगों से भी प्रेम करता है। इस कारण, मैं प्रेम में सत्य बोलने के प्रति प्रतिबद्ध हूं।
आम्बेडकर और अन्यों ने तो केवल फुले के कार्य को आगे बढ़ाया और विस्तार दिया। याद रहे कि आम्बेडकर ने भारत के प्रथम विधिमंत्री के पद से इस्तीफा इसलिए दिया था क्योंकि उनके हिन्दू कोड बिल – जिसके जरिए वे बहुसंख्यक भारतीय महिलाओं को मुक्ति दिलवाना चाहते थे – को आवश्यक समर्थन नहीं मिला।
हर वर्ष की तरह इस वर्ष भी एफपी का दिसंबर अंक, आम्बेडकर पर केन्द्रित होगा। अगर आप हमारे ग्राहक नहीं हैं तो अपने नजदीकी बुकस्टाल से अपनी प्रति अभी से आरक्षित करवा लें। अगले अंक में हम सेन्टर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसायटीज के निदेशक और बिहार के धरतीपुत्र संजय कुमार की कलम से चुनाव नतीजों का विश्लेषण प्रकाशित करेंगे।
फारवर्ड प्रेस के अक्टूबर, 2015 अंक में प्रकाशित

लेखक के बारे में

आयवन कोस्‍का

आयवन कोस्‍का फारवर्ड प्रेस के संस्थापक संपादक हैं

संबंधित आलेख

भारतीय ‘राष्ट्रवाद’ की गत
आज हिंदुत्व के अर्थ हैं– शुद्ध नस्ल का एक ऐसा दंगाई-हिंदू, जो सावरकर और गोडसे के पदचिह्नों को और भी गहराई दे सके और...
जेएनयू और इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के बीच का फर्क
जेएनयू की आबोहवा अलग थी। फिर इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में मेरा चयन असिस्टेंट प्रोफ़ेसर के पद पर हो गया। यहां अलग तरह की मिट्टी है...
बीते वर्ष 2023 की फिल्मों में धार्मिकता, देशभक्ति के अतिरेक के बीच सामाजिक यथार्थ पर एक नज़र
जाति-विरोधी फिल्में समाज के लिए अहितकर रूढ़िबद्ध धारणाओं को तोड़ने और दलित-बहुजन अस्मिताओं को पुनर्निर्मित करने में सक्षम नज़र आती हैं। वे दर्शकों को...
‘मैंने बचपन में ही जान लिया था कि चमार होने का मतलब क्या है’
जिस जाति और जिस परंपरा के साये में मेरा जन्म हुआ, उसमें मैं इंसान नहीं, एक जानवर के रूप में जन्मा था। इंसानों के...
फुले पर आधारित फिल्म बनाने में सबसे बड़ी चुनौती भाषा और उस कालखंड को दर्शाने की थी : नीलेश जलमकर
महात्मा फुले का इतना बड़ा काम है कि उसे दो या तीन घंटे की फिल्म के जरिए नहीं बताया जा सकता है। लेकिन फिर...