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ओबीसी विमर्श से मिला दलित आंदोलन को लाभ : लिम्बाले

दलित और स्त्री विमर्श के बाद ओबीसी विमर्श की चेतना दलित आंदोलनों और साहित्य को मिली सफलता से उपजी है। फुले-आम्बेडकर से प्रेरणा लेकर आज ओबीसी विमर्श का एक नया दौर शुरू हो चुका है

प्रसिद्ध दलित लेखक शरण कुमार लिम्बाले से प्रेमा नेगी की बातचीत

 

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शरण कुमार लिम्बाले

बहुजन को आप किस तरह से परिभाषित करेंगे ?

बहुजन यानी बहुत सारे लोग। जैसे उत्तरप्रदेश के संदर्भ में लें, बहुजन के लिए बहुजन समाज पार्टी अस्तित्व में आई। कांशीराम ने इसे राजनीतिक ढांचा देते हुए बाबासाहेब आम्बेडकर के विचारों को मूर्त करने की कोशिश की। हिंदी पट्टी में बहुजन शब्द को परिभाषित-प्रचारित और स्थापित करने का श्रेय कांशीराम को ही जाता है। मराठी में बहुजन साहित्य को प्रचारित-प्रसारित करने के लिए सम्मेलन हो रहे हैं। हालांकि महाराष्ट्र में बहुजन साहित्य को लेकर जो लोग मुखर हैं, उनमें एससी/एसटी नहीं बल्कि ओबीसी हैं। इसके लिए वहां लंबे समय से सेमीनार, सभा, गोष्ठियां आयोजित हो रही हैं। सम्मेलनों में बार-बार एक ही बात उठायी जा रही है कि बहुजन में सभी पिछड़ी, दलित जातियां आनी चाहिए। मंडल कमीशन के बाद से ही बहुजन साहित्य के लिए पहल हो चुकी थी। कांचा इलैया जो ओबीसी तबके से आते हैं, उन्होंने इसके लिए बड़ी पहल की है। उनकी किताब ‘मैं हिन्दू क्यों नहीं’में जिसका उपशीर्षक हिन्दुत्व दर्शन, संस्कृति और राजनीतिक अर्थशास्त्र का एक शूद्रवादी विश्लेषण है, पढ़कर स्पष्ट हो जाता है कि हिन्दू धर्म का हरेक आयाम सिर्फ  दलित-बहुजन का उत्पीडऩ करने के लिए ही है। इसे बहुजन विमर्श के एक दस्तावेज के रूप में लिया जाना चाहिए। इसी किताब में कांचा इलैया महिला विमर्श को भी उठाते हैं जब वो लिखते हैं कि विद्या की देवी सरस्वती होते हुए भी हिंदुत्व मेें औरतों के विद्यार्जन पर पाबंदी लगी रही और धन की देवी लक्ष्मी होने के बावजूद स्त्रियों को संपत्ति में अपने अधिकारों से वंचित रहना पड़ा है। महाराष्ट्र में तो दलित आंदोलन की शुरुआत सत्तर के दशक में पैंथर आंदोलन से ही हो चुकी थी, जबकि हिंदी पट्टी में दलित विमर्श बहुत बाद में आया और ओबीसी विमर्श तो अभी शुरुआती दौर में है।

दलित और स्त्री विमर्श के बाद अब ओबीसी विमर्श की जरूरत क्यों महसूस हो रही है ?

दलित और स्त्री विमर्श के बाद ओबीसी विमर्श की चेतना दलित आंदोलनों और साहित्य को मिली सफलता से उपजी है। फुले-आम्बेडकर से प्रेरणा लेकर आज ओबीसी विमर्श का एक नया दौर शुरू हो चुका है। फुले-आम्बेडकर के विचार उन्हें दिशा देने का काम कर रहे हैं। महाराष्ट्र यानी मराठा साहित्य में ओबीसी ने दलितों के साथ मिलकर इस विमर्श का एक नया दौर शुरू कर दिया है। चूंकि आज ओबीसी समझने लगा है कि उन्हें सवर्ण सदियों से अपने हथियार के तौर पर इस्तेमाल करते आए हैं, इसलिए भी यह विमर्श आगे बढ़ रहा है। मंडल कमीशन से ओबीसी विमर्श को नई दिशा ही नहीं, बल्कि नया सुर और नया चेहरा मिला है। इसका बड़ा फायदा दलित आंदोलन को ये हुआ है कि अब ओबीसी दलितों के साथ मिल रहा है जिससे प्रगतिशील ताकतों को भी दिशा मिल रही है। आजादी के बाद शिक्षा का प्रचार-प्रसार होने के कारण भी बहुत से समाजों के लेखक आए हैं। जहां तक बहुजन साहित्य की बात थी तो यह चेतना नहीं आंदोलन का प्रारूप था, मगर मंडल कमीशन के कारण व्यापक पैमाने पर चेतना फैली। जैसे-जैसे ओबीसी शिक्षित होने लगे, उन्हें लगा कि व्यापक पहल के लिए आंदोलन जरूरी है। भारत की कुल आबादी का 60 फीसदी ओबीसी हैं, और आज वो अपनी ताकत को पहचान चुके हैं इसलिए विमर्श तो स्वाभाविक है।

चित्र : डा लाल रत्नाकर

क्या कोई गैर दलित लेखक दलित पीड़ा को उसी तरह व्यक्त कर सकता है, जैसे कि दलित लेखक?

गैर दलित लेखक दलितों की पीड़ा को जरूर व्यक्त कर सकता है, मगर मर्यादा के साथ। इसके पीछे कारण है कि वह सोचकर लिखता है। इसे आप दलितों-गैर दलितों द्वारा लिखे गए को पढ़कर महसूस कर सकते हैं। पिछले कई सालों से हिन्दी से लेकर मराठी तक में दलितों को आधार बनाकर न जाने कितनी कहानियां, उपन्यास गैर दलितों द्वारा लिखे गए होंगे, मगर वह आभासी था। अब जो लेखन दलित कर रहे हैं, वह उनके अनुभव के आधार पर है। मगर साहित्य में इसे गलत ढंग से परिभाषित किया जा रहा है, उससे ये मैसेज जा रहा है जैसे दलित लेखक नहीं चाहते कि गैर दलित दलित विमर्श या उन्हें आधार बनाकर कुछ भी लेखन करें। ऐसे में एक सवाल यह भी है कि जब दलित अपनी पीड़ा को शब्द देने लगा है, तभी यह सवाल क्यों उठाया जा रहा है। इतिहास खंगालकर देखिए, तब दलितों के लिए क्यों नहीं लिखा गया जब उन्हें हद दर्जे तक प्रताडि़त किया जा रहा था। मेरी समझ में नहीं आता तब कहां थे हमारे ये साहित्य के तथाकथित मठाधीश, जब दलित पीड़ा का दंश झेलने को मजबूर था और इनकी कलम से उसके पक्ष में एक शब्द भी नहीं लिखा जा रहा था। इनकी साजिश अब दलितों-गैर दलितों के बीच खाई को और गहरा करने की है।

दलित साहित्य में स्त्रियां अभी भी मुखरता से सामने नहीं आ पाई हैं ?

दलित साहित्य में स्त्रियां हाशिए पर इसलिए नजर आती हैं, क्योंकि सही मायनों में अभी तक दलित लेखिकाओं ने लिखना ही शुरू नहीं किया है। हालांकि दलित महिलाएं अब मुखर होने लगी हैं, आगे और ज्यादा होंगी। अब नई पीढ़ी में लड़कियां लिख-पढ़ रही हैं, जाहिर तौर पर अपने समाज की दुख-तकलीफों , शोषण-दलन के बारे में वो कलम भी चलाएंगी और नई पीढ़ी ऐसा कर भी रही है। यह भी सच है कि अभी तक दलित स्त्रियों का लेखन आत्मकथा से आगे नहीं बढ़ पाया है। दूसरी बात महिला हर जगह सिर्फ  महिला है। जातियां सिर्फ  पुरुषों के लिए बनी हैं, ऐसा मैं इसलिए कह रहा हूं क्योंकि दलित पुरुष भी तो इसी पुरुष सत्तात्मक व्यवस्था का ही प्रतीक है और वह भी महिला को उसी तरह प्रताडि़त करता है, जिस तरह सवर्ण जातियों के पुरुष।

कुछ लोग ओबीसी को सिर्फ  राजनीतिक कैटेगरी बताते हैं ?

बहुजन एक राजनीतिक कैटेगरी है और दलित भी राजनीतिक कैटेगरी ही है। जबकि सवर्णों का साहित्य सिर्फ  राजनीतिक नहीं है। ऐसा इसलिए है क्योंकि हम परंपरा, जाति, जड़ता, असमानता, कुरीतियों के खिलाफ  आवाज उठा रहे हैं। हमारा साहित्य लेखन समतामूलक समाज के निर्माण के लिए रचा जा रहा है, जो निश्चित तौर पर राजनीतिक कैटेगरी में ही आता है। पिछड़े सिर्फ  साहित्य नहीं रच रहे हैं, बल्कि एक उद्देश्य के साथ लेखनी कर रहे हैं।

साहित्य को अलग-अलग जातियों-खेमों में विभाजित करने से लोकतांत्रिक मूल्यों पर क्या असर पड़ेगा ?

ये सब सवाल सिर्फ  सुनने में अच्छे लगते हैं। यथार्थ के धरातल पर उतरकर देखो तो कहीं से यह सवाल तर्कसंगत नहीं लगता। आज दलित लेखक जाति व्यवस्था को नकार रहे हैं, मगर फि र भी उनके साहित्य को दलित-पिछड़ा साहित्य कहने वाले कौन लोग हैं ? साहित्य को जातियों-खेमों में विभाजित करने का काम दलितों ने नहीं, बल्कि सवर्णों ने किया है। साहित्य खेमों और जातियों में न बंटे, इसके लिए सबको मिलकर काम करना होगा, मगर ऐसा होता नहीं दिखता। हम जाति-व्यवस्था के खिलाफ  बात कर रहे हैं, तो हम पर ठप्पा जरूर लग रहा है।

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चित्र : डा लाल रत्नाकर

बहुजन साहित्य की अवधारणा को विकसित करने के तहत एक ही छतरी के नीचे शूद्र, अतिशूद्र, महिला और आदिवासी साहित्य को लाए जाने की पहल को आप किस रूप में देखते हैं ?

इसमें कोई शक नहीं है कि यह बहुत ही अच्छी पहल है और इसका स्वागत किया जाना चाहिए। मेरा और बहुत सारे चिंतकों का मानना है कि शूद्र, अतिशूद्र, महिला और आदिवासियों की पूरी त्रासदी एक ही है। मगर जहां तक इन सबको बहुजन साहित्य के नाम पर एक ही छतरी के नीचे लाए जाने का सवाल है तो यह एक आदर्शवादी स्थिति है, क्योंकि सांस्कृतिक स्तर पर बहुत सी भिन्नताएं मौजूद हैं। जैसे आदिवासियों को बहुजन में शामिल करने का सवाल है तो उनकी स्थिति बाकी सबसे एकदम अलग है, हां ये बात और है कि उन्हें शोषित करने वाला पूंजीवादी तंत्र है। भिन्नताओं का कारण हायरार्की भी है, स्थितियां एक दिन में नहीं बदलेंगी। इसे इस उदाहरण से समझा जा सकता है कि छोटे-छोटे पौधों का विकास एक बड़े पौधे के नीचे होना संभव नहीं है। उन्हें अलग से पूरी देखभाल की जरूरत होती है। उसी तरह शूद्र, अतिशूद्र, महिला, आदिवासी सब अलग-अलग धाराएं हैं। जब ये स्वतंत्र हो पूरे तौर पर विकसित हो जाएंगी तो इन्हें एक ही छतरी के नीचे लाए जाने की बात की जानी चाहिए। मगर अभी तक तो इन सबको मौके ही नहीं मिले हैं, इसलिए ये जिस तरह भी सामने आ रहे हैं विकास कर रहे हैं, अन्याय के खिलाफ  मुखर हो रहे हैं, इन्हें उसी हाल में छोड़ देना चाहिए। सबसे बड़ी बात है कि इनका मौन टूट रहा है, जिससे एक नए समाज का निर्माण होगा। नए तेवरों के साथ-साथ हर धारा में से नायक मिल रहे हैं, दायरा व्यापक हो रहा है। मुझे लगता है कि क्षितिज बढ़ रहा है। एक तरह से यह जनतंत्र को सशक्त करने की पहलकदमी भी है।

कबीर को खंडन-मंडन का कवि कहकर उनकी न्यायसंगत और वस्तुपरक समीक्षा-आलोचना न किए जाने का आरोप हिंदी साहित्य के इतिहास लेखन पर लगता रहा है, इसलिए उनके तर्कसंगत मूल्यांकन के लिए ओबीसी आलोचना की जरूरत बतायी जा रही है, आपकी इस बारे में क्या राय है ?

यह बात सही है, मगर कबीर बहुत पुराने कवि हैं। इसी तरह प्रेमचंद भी पुराने हैं। उनके आधार पर आज के ओबीसी साहित्य का मूल्यांकन नहीं किया जा सकता। यह आधुनिक बहुजन साहित्य है, इसलिए कबीर को इसका पैरामीटर कैसे निर्धारित किया जा सकता है ? हां, इतिहास के संदर्भ में कबीर की समीक्षा-आलोचना जरूर की जानी चाहिए। जहां तक पिछड़ों के साहित्य की बात है तो यह आजादी के बाद का है, कबीर तो उससे बहुत पुराने हैं। कबीर महान हैं, उनकी चर्चा होनी चाहिए, मगर ओबीसी साहित्य के संदर्भ में मुझे यह ठीक नहीं लगता। आम्बेडकर ने भी कहा है कि ‘मेरे तीन गुरु हैं; बुद्ध, कबीर और जोतिबा फुले। मगर मुझे कबीर बहुत प्रभावित नहीं करते। कबीर वस्तुत: आध्यात्मिक चिंतक थे, मगर हम दलित-ओबीसी चिंतक हैं। इसी तरह स्त्री विमर्श आध्यात्मिक नहीं राजनीतिक है। बहुजन साहित्य भी आध्यात्मिक नहीं है, अपने हक-हकूकों, दमन, दलन के बारे में लेखक लिख रहे हैं। मेरा मानना है कि आज के बहुजन लेखकों को कबीर के साथ जोडऩा कबीर पर अन्याय नहीं, बल्कि बहुजन लेखकों के साथ अन्याय होगा। आज के परिप्रेक्ष्य में हमें बहुजन साहित्य को वृहद् करने के साथ उसकी समीक्षा करनी है, कबीर क्या कहते हैं, इससे तुलना नहीं करनी चाहिए। हमेशा बहुजन विमर्श को बुद्ध, कबीर तक सीमित कर विमर्श को गुमराह-भटकाने का काम किया जाता है। आज ओबीसी समाज से जो लेखक आ रहे हैं उनके लिए शब्द ही सबसे बड़ा हथियार है।

भारत के आधुनिक युग की शुरुआत करने वाले दो महत्वपूर्ण नाम जोतिबा फुले और सावित्रीबाई फुले हैं, जिन्होंने जाति व्यवस्था और ब्राह्मणवादी जड़ता का विरोध करते हुए किसानों की आर्थिक स्थिति में सुधार का समर्थन किया, मगर हिंदी साहित्य और आलोचना के इतिहास में प्रगतिशील लेखकों की अच्छी-खासी तादाद के बावजूद उनके लेखन में इन दोनों की नदारदगी को कैसे देखते हैं ?

हिंदी साहित्य में फु ले दंपत्ति की न के बराबर मौजूदगी का बड़ा कारण है कि हिंदी आलोचना ज्यादा से ज्यादा आध्यात्मिक रही है। वो तुलसी, सूर, कबीर, हिंदू धर्म की कक्षा में ही घूमता रहा है। मेरी समझ में यह बात नहीं आती कि आखिर हिंदी साहित्य के लिए चिंतित आलोचक-समीक्षक न जाने कब पुराने आध्यात्मिक गुरुओं को छोड़ेंगे। इक्कीसवीं सदी में भी अछूत मंदिर में प्रवेश नहीं कर सकता, ये इनकी चिंता का विषय नहीं रहता। इतिहास और संस्कृति एक तरीके से शोषण के हथियार हैं। आजादी के बाद नए भारत का निर्माण हो रहा है, मगर हमारे हिंदी लेखक गैरजिम्मेदार हैं। नया स्वाधीन भारत स्वाधीन संस्कृति के निर्माण में नाकाम रहा है। हालांकि में ईश्वर में विश्वास नहीं करता, फि र भी मेरी ईश्वर से प्रार्थना है कि हिंदी को कबीर और प्रेमचंद से अब मुक्ति दें। हिंदी साहित्य-संस्कृति आदर्श को बढ़ावा देने वाली रही है। इसमें स्त्री, दलित, आदिवासियों के खिलाफ  जमकर लिखा गया है, हमें इसे खारिज करना होगा। नई सोच को लेकर कोई बात नहीं की जाती। हमारे आलोचकों-समीक्षकों को आज की समस्याएं ही मालूम नहीं हैं, इसलिए नया विमर्श भी नहीं है। हिंदी आलोचकों का कद और दिमाग दोनों बहुत छोटे हैं। ये सांस्कृतिक प्रश्नों की बजाय इतिहास और परंपरा के पीछे भागते हैं। मैं इन्हें सिरे से खारिज करता हूं। अब दलित, आदिवासियों, महिलाओं के बीच से नए आलोचक आने चाहिए।

चित्र : डा लाल रत्नाकर

हिंदी साहित्य के इतिहास में भक्ति, प्रगतिशील और नई कहानी आंदोलन को मुख्यधारा का साहित्य माना गया, मगर दलित, स्त्री और आदिवासी साहित्य सामाजिक न्याय और समतामूलक समाज की नींव रखने वाला होते हुए भी अभी तक हाशिए पर है। इसका क्या कारण मानते हैं ?

भक्ति आंदोलन हो या प्रगतिशील या फि र नई कहानी आंदोलन ये सब मुख्यधारा नहीं, बल्कि सवर्णों के आंदोलन हैं। क्या मुख्यधारा का मतलब ब्राह्मण ही होता है ? मैं तो कहता हूं कि इन्हें मुख्यधारा का आंदोलन माने जाने की परिभाषा ही गलत है। चूंकि आज तक साहित्य में सिर्फ  सवर्णों का ही वर्चस्व था, मगर आज लेखक बदले हैं, जाति बदली है, साहित्य की जाति बदली है, चिंतन की जाति बदली है। जनतंत्र के बाद हजारों सालों की जड़तावादी संस्कृति टूटी है, ब्राह्मणों के अधिकार छीने गए हैं, इसलिए मेनस्ट्रीम और बैकस्ट्रीम की बातें हो रही हैं। होना तो यह चाहिए था कि जो अन्य ने लिखा है उसे मुख्यधारा कहा जाए। आज तक जिसे भी मुख्यधारा का साहित्य कहा गया, उसे मैं कठघरे में खड़ा करता हूं। वो जाति का स्ट्रीम है। मुख्यधारा भूलभुलैया है, सवर्ण मानसिकता है। इसमें पुरानी परंपराओं और गलत चीजों को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया है। जब सिर्फ  एक जाति को ज्ञानार्जन का अधिकार प्राप्त था, इसलिए उसे मेनस्ट्रीम घोषित कर दिया गया। शिक्षा के प्रचार-प्रसार के बाद विभिन्न तबकों से लेखकों का उदय हुआ है, वर्चस्व के गढ़ टूटे हैं, तो इन मठाधीशों की चूलें हिल रही हैं। यहां मेरा मतलब सभी ब्राह्मण लेखकों को सांप्रदायिक घोषित करना नहीं है। मैं ब्राह्मणवादी व्यवस्था के खिलाफ  हूं, प्रगतिशील ब्राह्मणों के नहीं। प्रगतिशील विचार की मर्यादा है। उसने जाति की सीमा नहीं लांघी। ऐसे मेनस्ट्रीम की मैं कोई जरूरत नहीं समझता, न ही इसे कोई महत्व देता हूं। जब वाकई मेनस्ट्रीम बनेगा तो दलित, स्त्री, आदिवासी सबको एक छत के नीचे आना होगा।

हिंदी और मराठी साहित्य की दलित चेतना में किस तरह का अंतर है ?

हिंदी और मराठी लेखकों में काफी भिन्नताएं हैं। मराठी लेखक आंदोलन से जुड़ा है इसलिए आक्रामक है, मगर हिंदी लेखक सिर्फ  सरकारी नौकर और मुख्यधारा के साहित्य वाली मानसिकता से बुरी तरह ग्रस्त है। हिंदी साहित्य में विद्रोह उस तरीके से आक्रामक नहीं है, जिस तरह से मराठी में है। न ही हिंदी में मराठी की तरह हिंदी में दलित आंदोलन को स्वर मिला है। दूसरा हिंदी लेखक को राजधानी से नजदीक होने का भी काफी  फायदा मिलता है, जबकि हमें एक लंबा संघर्ष करना पड़ता है। यहां तक कि किताब छपवाने तक के लिए एक संघर्ष से गुजरना पड़ता है। इसे आप एक उदाहरण से समझ सकते हैं कि ओमप्रकाश वाल्मकि ने सिर्फ  ‘जूठन’लिखकर हिंदी पट्टी में काफी प्रसिद्धि पा ली, मगर मैं सौ के लगभग किताबें लिखने के बाद अब हिंदी में पहचाना जाता हूं।

बहुजन साहित्य की नीव रखने में कबीर, फुले, गांधी, भारतेंदु, मैथिलीशरण गुप्त, जयशंकर प्रसाद आदि की महत्वपूर्ण भूमिका मानी जाती है, मगर स्त्री मुक्ति के सवाल पर फुले निर्विवाद मान्य हैं। जबकि अन्य सवालों के घेरे में रहते हैं, ऐसे में स्त्री मुक्ति का आकांक्षी स्त्री विमर्श इन विचारकों से कहां तक सहमत होगा ?

ये व्यापक रूप से पोलिटिकल एजेण्डा रखने वाली बात है। निश्चित तौर पर ये सभी प्रेरणास्तंभ रहे हैं, मगर जहां तक स्त्री विमर्श का सवाल है, इस मामले में मैं फुले -आम्बेडकर को ही दिशा-निर्देशक की भूमिका में पाता हूं। फु ले ने स्त्री मुक्ति को लेकर जो काम किया है, वह आज किसी पहचान का मोहताज नहीं है। ये बात अलग है कि हिंदी पट्टी में उनके बारे में लोग बहुत कम जानते हैं, क्योंकि हिंदी साहित्य ने उन्हें कभी गंभीरता से लिया ही नहीं।

 (फारवर्ड प्रेस, बहुजन साहित्य वार्षिक, मई,  2014 अंक में प्रकाशित )

(बहुजन साहित्य से संबंधित विस्तृत जानकारी के लिए पढ़ें ‘फॉरवर्ड प्रेस बुक्स’ की किताब ‘बहुजन साहित्य की प्रस्तावना’ (हिंदी संस्करण) अमेजन से घर बैठे मंगवाएं . http://www.amazon.in/dp/8193258428 किताब का अंग्रेजी संस्करण भी शीघ्र ही उपलब्ध होगा)

लेखक के बारे में

प्रेमा नेगी

प्रेमा नेगी 'जनज्वार' की संपादक हैं। उनकी विभिन्न रिर्पोट्स व साहित्यकारों व अकादमिशयनों के उनके द्वारा लिए गये साक्षात्कार चर्चित रहे हैं

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