जाति-आधारित प्रतिनिधित्व देना, हर राष्ट्र और उसकी सरकार का अधिकार है। यह हर समुदाय के नागरिकों का अधिकार भी है। जाति-आधारित प्रतिनिधित्व के सिद्धांत का मूल उद्धेश्य है नागरिकों के बीच की असमानता को मिटाना। जातिगत प्रतिनिधित्व एक वरदान है, जो समान नागरिकों के समाज का निर्माण करता है। अगर अगड़े व प्रगतिशील समुदाय, अन्य समुदायों की बेहतरी में रोड़े अटकाते हैं तब जाति-आधारित प्रतिनिधित्व की व्यवस्था को अपनाने के अतिरिक्त कोई रास्ता नहीं बचता है। यही वह राह है, जिस पर चलकर यंत्रणा भोग रहे समुदायों को कुछ राहत मिल सकती है। जाति-आधारित प्रतिनिधित्व की व्यवस्था की आवश्यकता तब स्वयमेव समाप्त हो जाएगी, जब सभी समुदायों के बीच समानता स्थापित हो जाएगी।
जब से शासन में भारतीयों की भागीदारी की चर्चा शुरू हुई है, तभी से, ब्राह्मणों को छोड़कर अन्य सभी समुदाय, जाति-आधारित प्रतिनिधित्व की मांग उठा रहे हैं। ब्राह्मणों के अतिरिक्त सभी समुदायों ने उस आंदोलन में हिस्सेदारी की, जो जाति-आधारित प्रतिनिधित्व की नीति को लागू करने की मांग को लेकर शुरू किया गया था।
ब्राह्मणों, विशेषकर तमिलनाडु के ब्राह्मणों, ने जातिगत प्रतिनिधित्व लागू करने की राह में रोड़े अटकाने का हर संभव प्रयास किया। उन्होंने षडय़ंत्र किए, छल किए और अन्य हर तरीके से यह कोशिश की कि एक ऐसी नीति जो सभी पददलित समुदायों को लाभ पहुंचाने वाली थी, लागू न हो सके।
ब्राह्मण, जातिगत प्रतिनिधित्व का विरोध क्यों कर रहे हैं, यह समझना आसान है, यद्यपि उन्होंने कभी सामने आकर यह नहीं बताया कि पददलित लोगों को ऊपर उठाने में क्या बुराई है। जो लोग इसके खिलाफ हैं, वे कहते हैं कि इसे लागू नहीं किया जाना चाहिए परंतु यह नहीं बताते कि इसे क्यों लागू नहीं किया जाना चाहिए। किसी ने अभी तक स्पष्ट शब्दों में यह नहीं बताया है कि वह आरक्षण की नीति का विरोधी क्यों है। समानता स्थापित करने में क्या गलत है? सभी को समान अवसर उपलब्ध करवाने में क्या गलत है? अगर समाजवादी समाज का निर्माण गलत नहीं है और अगर इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि वर्तमान असमान समाज को प्रगतिशील बनाया जाना चाहिए, तो हमारे सामने दूसरा रास्ता भी क्या है? क्या इस बात से इंकार किया जा सकता है कि समाज में कमजोर वर्ग हैं?
इसके अतिरिक्त, जब हमने समाज का धर्म, जाति और समुदाय के आधार पर वर्गीकरण स्वीकार किया है तो हम उन लोगों का रास्ता नहीं रोक सकते जो अपने धर्म, जाति या समुदाय के आधार पर कुछ विशेषाधिकार मांग रहे हैं। अगर वे अपने हितों की रक्षा करना चाहते हैं तो इसमें क्या गलत है? मैं इसमें कोई धोखेबाजी या कपट नहीं देखता।
जातिवाद ने लोगों को पिछड़ा बनाया है। जातिवाद ने बर्बादी के सिवाए हमें कुछ नहीं दिया है। जातिवाद ने हमें नीचा और वंचित बनाया है। जब तक इन बुराईयों का उन्मूलन नहीं हो जाता और सभी लोगों को जीवन में बराबरी का दर्जा नहीं मिल जाता, तब तक आबादी के आधार पर आनुपातिक प्रतिनिधित्व अपरिहार्य है। कई समुदायों ने शिक्षा के क्षेत्र में हाल ही में प्रवेश किया है। सभी लोगों को यह अधिकार होना चाहिए कि वे शिक्षा प्राप्त करें और सभ्य जीवन जीएं। हमारे लोगों को शिक्षा प्राप्त करनी चाहिए और अच्छे से पढ़ाई करनी चाहिए। हमारे लोगों को सार्वजनिक सेवाओं और अन्य सभी क्षेत्रो में कुल आबादी में उनके प्रतिशत के हिसाब से उपयुक्त प्रतिनिधित्व मिलना चाहिए।
इस देश में हर सौ व्यक्तियों में से केवल तीन ब्राह्मण हैं। आबादी का 16 प्रतिशत आदि-द्रविड़ हैं और 72 प्रतिशत गैर-ब्राह्मण हैं। क्या सभी को आबादी में उनके अनुपात के अनुरूप नौकरियां नहीं मिलनी चाहिए?
स्त्रोत: ‘कलेक्टिड वक्र्स ऑफ पेरियार ईवीआर (पृष्ठ 165-166)
(फारवर्ड प्रेस के जनवरी, 2016 अंक में प्रकाशित
is desh me brahmin ki nahi suni jaygi
Brahmino ki ma ki chut me suar / varah avtar (vishnu) ka land
Or sare brahmin suar k bachhe….😂😂😂😂
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