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प्रतिक्रांति को मिल रही है ऐतिहासिक चुनौती

सत्ता को नियंत्रित करने करने वाले हिदुत्ववादी संगठन (आरएसएस) में खलबली है और अपने मुखपत्रों के द्वारा वह लगातार असुर दिवस, बीफ फेस्टिवल आदि के आयोजन पर अपनी चिंतायें जाहिर कर रहा है

hcu_politics1453799781रोहित वेमुला की आत्महत्या, जिसे सांस्थानिक ह्त्या भी कहा जा रहा है, क्या भारत के उच्च शिक्षा कैंपसों में घट रहे कुछ असाधारण का परिणाम है? रोहित वेमुला की आत्महत्या पर भाजपा की प्रतिक्रिया को यदि आप देखें तो कैम्पसों और देश में घट रहे असाधारण और ऐतिहासिक का अंदाज लगा सकते हैं। बीजेपी के महासचिव पी. मुरलीधर राव ने विश्वविद्यालय कैंपसों में बीफ  फेस्टिवल से लेकर  मनाये जाने का उदाहरण देते हुए कहा कि कैंपसों में कुछ संगठन भारत को तोडऩे और समाज को बांटने वाली गतिविधियों में संलग्न हैं। ऐसा क्या घट रहा है कि सत्तारूढ़ हिन्दुत्ववादी पार्टी बेचैन हो रही है? सत्ता को नियंत्रित करने वाले हिदुत्ववादी संगठन (आरएसएस) में खलबली है और अपने मुखपत्रों के द्वारा वह लगातार असुर दिवस, बीफ फेस्टिवल आदि के आयोजन पर अपनी चिंतायें जाहिर कर रहा है।

हिंदुत्व का उत्साह और प्रतिक्रान्ति

इसे तफ सील से समझने के लिए वर्तमान नरेंद्र मोदी सरकार के गठन के बाद आये हिंदुत्व के उबाल को समझना होगा। इस उबाल की झलक मिलती है सरकार के गठन के छ: महीने के भीतर, नवंबर के अंतिम सप्ताह में, दिल्ली में आयोजित विश्व हिन्दू कांग्रेस में, जहां दुनिया भर से आये हिन्दू विचारक, नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में ‘पूर्ण हिन्दू’ का सपना साकार होते देख रहे थे। वहां अंग्रेजी में लिखे पर्चे बांटे जा रहे थे जिनमें पांच मायासुरों से सावधान रहने का आह्वान किया जा रहा था – मैकाले, मार्क्सवाद, मिशनरी, मटरियलिज्म (भौतिकवाद) और मुस्लिम चरमपंथ। यह हिन्दू उबाल बाद के दिनों में ‘लव जिहाद’ के खिलाफ  मुहिम से लेकर दादरी में बीफ  खाने की आशंका में मंदिर से ऐलान कर एक व्यक्ति की ह्त्या करने तक में दिखा। यह विभिन्न केंद्रीय मंत्रियों के बयानों में और विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम के भगवाकरण के प्रयासों में भी दिखा। हिंदुत्व की जमातें, आजादी के बाद इतनी सक्रिय शायद कभी नहीं थी – कहीं 26 जनवरी को, जिस दिन संवैधानिक गणतंत्र की स्थापना हुई थी, काला दिवस मनाया जा रहा था तो कहीं गांधी की हत्या का खुलेआम जश्न; तो कोई पीछे छूट गये समूहों को प्राप्त आरक्षण की समीक्षा की बात कर रहा था। सबसे ज्यादा दूरगामी असर वाला अभियान है हिंदुत्व के धुर विरोधी डा. आंबेडकर को ‘आत्मसात’ करने का प्रयास। विश्वविद्यालय कैंपसों में एक ओर तो खुद को राष्ट्रवादी बताने वाली अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् नये जोश और उत्साह से सक्रिय है वहीं आरएसएस के प्रभाव में काम रहा मानव संसाधन विकास मंत्रालय, विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों के भगवाकरण मे जुटा है।

सैद्धांतिक शब्दावली में इसे प्रतिक्रांति का दौर कहा जा सकता है। आज जिस संविधान-आधारित लोकतांत्रिक व्यवस्था के कारण समाज में तेजी से बदलाव आ रहा है, वंचित समूहों की सत्ता व सांस्कृतिक और आर्थिक क्षेत्रों में भागीदारी बढ़ रही है, समता के अग्रदूत जोतिबा फुले, सावित्री बाई फुले, डा. भीमराव आम्बेडकर, पेरियार, बिरसा मुंडा आदि युगप्रवर्तकों के विचारों का प्रभाव बढ़ रहा है – वह व्यवस्था वर्चस्ववादी धारा को बिलकुल रास नहीं आ रही है। यह धारा सत्ता के प्रत्यक्ष-परोक्ष समर्थन से पूरे जोश के साथ सक्रिय है।

पहले भी आये हैं ऐसे दौर

ऐसा नहीं है कि ‘प्रतिक्रांति’ का यह दौर पहली बार आया है। इसके पहले भी, मौर्यकाल में, बौद्ध सिद्धांतों के समाज में प्रभाव को ख़त्म करने के प्रयास पुष्यमित्र शुंग के शासनकाल में पहली सदी के आसपास शुरू हुए। इस दौरान ही मनुस्मृति जैसी संहितायें लिखी गई, जिनका उद्देश्य एक बार फिर वर्ण, जाति और लिंग पर आधारित भेदभाव को क़ानूनी और धार्मिक वैधता प्रदान करना था। कई इतिहासकारों के अनुसार यह दौर धर्म के नाम पर खून-खराबे का भी था, जब बौद्ध अनुयाइयों को राज्याश्रय प्राप्त तत्वों के हाथों कत्लेआम का शिकार होना पड़ा।

9वीं सदी में भी यह देश एक ऐसे ही दौर का गवाह बना, जब आदि शंकराचार्य के नेतृत्व में हिंदुत्व की स्थापना हुई। खून-खराबे से लेकर सांस्कृतिक वर्चस्व के दूसरे तमाम हथियार आजमाये गये। उस दौर में समता-आधारित दार्शनिक सिद्धांत को आत्मसात करने के लिए बुद्ध को विष्णु का अवतार बनाया गया। 12वीं सदी में गीतगोविंद जैसी रचनाओं ने इस अवतारवाद को लोकप्रिय बनाया।

पिछले कुछ सालों से हिन्दुत्ववादी समूह अपने को राज्याश्रय प्राप्त समझ रहे हैं। सत्ता की ओर से भी उन्हें ऐसे संकेत मिलते रहे हैं कि उन्हें सत्ता का प्रत्यक्ष-परोक्ष समर्थन हासिल है। वंचित समूहों की लड़ाई लड़ रही राजनीतिक ताकतों के एक बड़े तबके ने सत्ता की खातिर अवसरवादी गठबंधन कर लिए हैं। एक अन्य तबका चुप्पी साधे हुए है। तो सवाल यह है कि क्या प्रतिक्रान्ति हमारी देहलीज पर आ चुकी है? क्या वर्णाश्रम-आधारित उग्र हिंदुत्व की वापसी हो रही है?

प्रतिक्रान्ति को चुनौती

उत्तर है नहीं। इस उत्तर की पुष्टि विश्वविद्यालय कैम्पसों में हो रही घटनाओं से होती है; और इससे भी कि प्रतिक्रान्ति की एजेंसियां विश्वविद्यालयों पर इतनी हमलावर हैं। विश्वविद्यालयों के रास्ते ज्ञान की सत्ता पर पूरी तरह वर्चस्व स्थापित किये बिना यह प्रतिक्रांति की प्रक्रिया पूरी नहीं हो सकती। लेकिन वहां वंचित समूहों के समतावादी विद्यार्थी इस प्रक्रिया का न सिर्फ  सक्रिय विरोध कर रहे हैं वरन अपनी परंपरा को प्रतिष्ठित करने की मुहीम में भी लगे हैं। रोहित वेमुला की आत्मह्त्या, जिसे वास्तव में सांस्थानिक ह्त्या ही माना जाना चाहिए, इसी  संघर्ष से उपजे तनाव का नतीजा थी।

देश भर के उच्च शिक्षा संस्थानों में दलित-पिछड़े विद्यार्थियों की भागीदारी बढ़ी है। ऐसा आरक्षण के कारण भी हुआ है और शिक्षा के प्रसार के कारण भी। इन समूहों के विद्यार्थी न सिर्फ ज्ञान के उत्पादन व वितरण के पारम्परिक ढाँचे को चुनौती दे रहे हैं बल्कि अपने अतीत की पुनर्रचना भी कर रहे हैं। इस क्रम में आम्बेडकर, पेरियार, फुले, बिरसा मुंडा आदि के नामों पर बने संगठन खानपान की स्वतंत्रता के पक्ष में बीफ और पोर्क फेस्टिवलों का आयोजन कर रहे हैं। जेएनयू में 2009 से शुरू हुआ ‘महिषासुर शहादत दिवस’ का आयोजन, देशव्यापी स्वरुप ग्रहण 151019144633_mahisasur_shahadat_diwas_624x351_asuradivasiwisdomdocumentationinitiativeकरता जा रहा है। हैदराबाद के इंग्लिश एंड फॉरेन लेंग्वेजिस यूनिवर्सिटी में ‘असुर सप्ताह’ का आयोजन हुआ तो हैदरबाद के ही ओस्मानिया विश्वविद्यालय में नरकासुर की जयंती मनाई गई। विश्वविद्यालयों की चहारदीवारी से बाहर निकलकर यह सिलसिला पूरे देश में फ़ैल रहा है। ‘महिषासुर की ह्त्या’ करने वाली  देवी की पूजा का गढ़ माने जाने वाले बंगाल में भी कई समूह अब दुर्गा पूजा की जगह ‘महिषासुर की शहादत’ मना रहे हैं। ‘महिषासुर शहादत दिवस’ मनाने का वैचारिक उद्दवेलन करने वाली दिल्ली से प्रकाशित द्विभाषिक पत्रिका पर आरएसएस के अनुषांगी संगठनों द्वारा दायर मुकदमा इस आयोजन से उन्हें होने वाली बेचैनी का प्रतीक है।

इतिहास के दुहराव की असफल कोशिशें

वर्चस्वशाली हिन्दू उत्साह के सामने यही चुनौती है। ज्ञान की सत्ता पर एकाधिकार टूटने से ‘हिन्दू पुनरुत्थान’ के उनके प्रयास बाधित हो रहे हैं। अस्मिताबोध के प्रति सकारात्मक रुख वाले मार्क्सवादी आलोचक प्रोफ़ेसर चौथीराम यादव कहते हैं: ‘पुनरुत्थानवादी शक्तियां’ पहले भी साम, दाम, खून-खराबे के हथियार इस्तेमाल करती रही हैं। शुंगकाल में बौद्धों का कत्लेआम, 9वीं शताब्दी के बाद देश के दक्षिण में विरोधी मताबलम्बियों का कत्लेआम, बनारस में पलटूदास की ह्त्या, महाराष्ट्र में संत तुकाराम की ह्त्या और राजस्थान में मीराबाई की हत्या पुनरुत्थानवादी ताकतों के खूनी प्रयासों के ऐतिहासिक उदाहरण हैं। चौथीराम के अनुसार ये शक्तियां तीन स्तरों पर काम करती हैं- 1. विरोध 2. दुष्प्रचार 3 आत्मसात करने का प्रयास।

नये जोश से भरी हिन्दुत्ववादी शक्तियां अभी इन तीनों स्तरों का एक साथ इस्तेमाल कर रही हैं। शिक्षण संस्थानों में सक्रिय समतावादी विचारधारा का विरोध, उसके बारे में दुष्प्रचार तथा डा. आम्बेडकर आदि महान चिंतकों को आत्मसात करने का त्रिस्तरीय कार्यक्रम संचालित हो रहा है। सवाल यह है कि 21वीं शाताब्दी में, लोकतान्त्रिक शासन व्यवस्था में, यह सब करना क्या इतना आसान होगा? क्या बुद्ध को हिंसात्मक आक्रामकता से और फिर अवतार बनाकर ख़त्म करने वाली ताकतें क्या लोकतंत्र के व ज्ञान के व्यापक प्रसार के इस दौर में डा. आम्बेडकर को वैसे ही ख़त्म कर पाएंगी? 1956 में आंबेडकर के हिन्दू धर्म त्यागने और अपने अनुयाइयों को 22 प्रतिज्ञाओं से बांधने के प्रकाश में क्या उन्हें अपने में मिला लेना आसान होगा? फॉरवर्ड प्रेस के सलाहकार संपादक प्रमोद रंजन के अनुसार ‘समता-आधारित बहुजन विचारों का प्रभाव कै म्पसों में दिख रहा है। रोहित वेमुला की आत्महत्या के बाद ‘फुले-आम्बेडकर-सावित्री-बिरसा’ के नारों से देश के विश्वविद्यालय कैम्पस गूँज रहे हैं”।

हिंदुत्व के जोश को विश्वविद्यालय कैपसों से फुले-आम्बेडकर-पेरियार में विश्वास रखने वाले विद्यार्थी-शिक्षक समूहों से चुनौती मिल रही है। हिंदुत्व की विचारधारा ‘मायासुर’ जैसी अपनी शब्दवाली और धारणाओं से बाहर आने को तैयार नहीं है और वंचित समूह ‘असुर’ परंपरा में स्वयं को तलाश कर इतिहास की पुनव्र्याख्या में लगे हैं। इस बार प्रतिक्रान्ति की प्रक्रिया को मिलने वाली चुनौती महत्वपूर्ण और ऐतिहासिक है।

जे एन यू पर हुई पुलिसिया कार्रवाई और सरकारी संरक्षण में दक्षिणपंथी हमले का आखिऱी ह चाहे जो भी हो, लेकिन इसके साथ ही पुलिस के खुफिया विभाग द्वारा जारी रिपोर्ट से यह तो स्पष्ट ही है कि हिन्दुत्ववादी ताकतों का आखिऱी एजेंडा क्या है? रिपोर्ट में जे एन यू में मनाये जाने वाले ‘महिषासुर दिवस’ को माओवादी संगठनों की कार्रवाई के रूप में चिह्नित किया गया है। यह कोई पुलिसिया चूक नहीं है कि भूलवश इसे मूलत: मनाने वाले संगठन आल इंडिया बैकवर्ड स्टूडेंट्स फोरम की जगह डी एस यू से जोड़ा जा रहा है । बल्कि सत्ता में बैठी हिन्दुत्ववादी ताकतें देश भर में दलित-बहुजनों के अपने सांस्कृतिक संघर्ष के दमन का आधार बना रही हैं।

जे एन यू में आज विद्यार्थियों की जनसंख्या की सामाजिकी बदली है। इसका असर भी दिख रहा है, जे एन यू को बचाने की लड़ाई में उनकी सक्रिय भूमिका के रूप में। इस लड़ाई में ‘जय भीम’ के नारे गूंजते देखे जा सकते थे। जे एन यू में जल्दीबाजी में अतिवादी कदम उठाने के बाद सरकार डैमेज कंट्रोल में लगी है, लेकिन प्रतिक्रान्ति की प्रक्रिया को जेएनयू से मिली जबरदस्त टक्कर इतिहास में दर्ज हो चुका है।

 (फारवर्ड प्रेस के मार्च, 2016 अंक में प्रकाशित )

(महिषासुर आंदोलन से संबंधित विस्‍तृत जानकारी के लिए पढ़ें ‘फॉरवर्ड प्रेस बुक्स’ की किताब ‘महिषासुर: एक जननायक’ (हिन्दी)।घर बैठे मंगवाएं : http://www.amazon.in/dp/819325841X किताब का अंग्रेजी संस्करण भी शीघ्र उपलब्ध होगा )

लेखक के बारे में

संजीव चन्दन

संजीव चंदन (25 नवंबर 1977) : प्रकाशन संस्था व समाजकर्मी समूह ‘द मार्जनालाइज्ड’ के प्रमुख संजीव चंदन चर्चित पत्रिका ‘स्त्रीकाल’(अनियतकालीन व वेबपोर्टल) के संपादक भी हैं। श्री चंदन अपने स्त्रीवादी-आंबेडकरवादी लेखन के लिए जाने जाते हैं। स्त्री मुद्दों पर उनके द्वारा संपादित पुस्तक ‘चौखट पर स्त्री (2014) प्रकाशित है तथा उनका कहानी संग्रह ‘546वीं सीट की स्त्री’ प्रकाश्य है। संपर्क : themarginalised@gmail.com

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