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दलित फूड्स : आडम स्मिथ और मनु का संघर्ष

सवाल यह है कि क्या “दलित फूड्स” और “दलितशॉप” भारत में व्याप्त जातिवादी सोच को समाप्त करने में सहायक होगा? मुझे लगता है कि यह जातिवादी हेकड़ी और आर्थिक कब्जे पर कुछ प्रहार करेगा। इसलिए नहीं कि यह किसी ई-कॉमर्स के बूते की बात है। बल्कि इसलिए कि अब समाज में यह सन्देश जा रहा है कि “दलित समुदाय काम मांगने वाला न बनकर काम देने वाला बने"

“दलित फूड्स” और “दलितशॉप” एकबारगी नाम से समझना मुश्किल है कि यह क्या है? यह दलितों के द्वारा बनाया गया फूड्स है, या दलितों के लिए बनाया गया फ़ूड है या फिर दोनों या कुछ और है? यह कैसी और किसकी दुकान है? यह एक व्यापारिक ब्रांड नाम है, इसलिए इसमें बाजार और बाजार के रिश्ते स्वतः ही शामिल हो जातें हैं।

Chandrabhan
चंद्रभान प्रसाद

“दलित फूड्स” और “दलितशॉप” एक व्यापारिक नाम और शुरुआत है। इसकी शुरुआत चंद्रभान प्रसाद ने जून 2016 में की है। चूँकि चंद्रभान प्रसाद दलित इंडियन चैंबर ऑफ़ कामर्स एंड इंडस्ट्री (डिक्की) से जुड़ें हैं, लेकिन कई खबरों में यह गलत कहा गया कि इसकी शुरुआत डिक्की ने की है। इस संबंध मेरी बात सबसे पहले डिक्की के दिल्ली चैप्टर के अध्यक्ष एन. के. चन्दन से हुई,  जिन्होंने स्पष्ट किया कि यह “डिक्की की नहीं बल्कि चंद्रभान प्रसाद की सोच और शुरुआत है”। लेकिन मूल सोच डिक्की जैसी ही है कि दलित-समाज व्यापार में आयें। ”

चंद्रभान प्रसाद का जन्म उत्तर प्रदेश में हुआ, उन्होंने जेएनयू, नई दिल्ली और विदेशो में पढाई की है। जेएनयू के वामपंथियों के प्रभाव में कुछ दिनों तक नक्सली भी रहे, लेकिन उनका कहना है “यह मेरा भटकाव था”। इसलिए आज उनके विचारो में बाजार और पूंजीवाद का समर्थन शामिल है। उनका कहना है कि “बाजार और आडम स्मिथ (ब्रिटिश अर्थशास्त्री, 1723-1790) भारतीय मनु/ मनुस्मृति/ मनुवाद के सामने बड़ा दुश्मन हैं”। चंद्रभान जी खुद को आंबेडकरवादी बताते हैं। लेकिन उनके बाजार और पूंजीवाद के समर्थन के कारण कई आंबेडकरवादी उनके आंबेडकरवादी होने को ख़ारिज करतें हैं।

मिलिंद कांबले ने जब 2005 में डिक्की की स्थापना की थी तब वामपंथी और आंबेडकरवादी चिंतको का कहना था कि डिक्की की सोच दलित समाज के हित और अंबेडकर की सोच के विपरीत है। डिक्की पर आंबेडकर की गलत व्याख्या का भी आरोप लगा। आलोचकों के अनुसार आंबेडकर ने कभी भी पूंजीवाद का समर्थन नहीं किया। मेरी जानकारी में आंबेडकर ने “राज्य समाजवाद” की बात कही थी, जिसमें निजी पूंजी और पूंजीवाद का सह-अस्तित्व शामिल है, इसे “सामाजिक पूंजीवाद” कहतें हैं। मैं स्वयं “सामाजिक पूंजीवाद” का समर्थक हूँ।

“दलित फूड्स डॉटकॉम” और “दलितशॉप डॉटकॉम” नाम से चंद्रभान प्रसाद ने दो नए ई-कॉमर्स की शुरुआत की है।  चंद्रभान जी के अनुसार “दलित फूड्स डॉटकॉम” नाम से शुरू किया गए ई-कॉमर्स में “सिर्फ दलित उद्यमियों द्वारा बनाए गए फूड्स को ही शामिल किया जाएगा, जबकि इसका ग्राहक कोई भी हो सकता है”। उन्होंने बताया कि “हमने “दलितशॉप डॉटकॉम ” नाम से दूसरा ई-कॉमर्स पोर्टल बनाया है, जिसमें गैर-दलित भी अपना उत्पाद बेच सकता है, हमें दूसरो का भी साथ चाहिए और यह अच्छी बात है, की दूसरे समुदाय के लोग भी आ रहें हैं”।

Screen Shot 2016-07-18 at 6.23.20 pmचंद्रभान जी से मैंने पूछा कि आपने-अपने प्रोडक्ट का नाम “दलित फूड्स” क्यों रखा? उन्होंने कहा कि “जब “दलित साहित्य” हो सकता है तो “दलित फूड्स” क्यों नहीं।” हालाँकि मैं उनके इस स्पष्टीकरण से सहमत नहीं हूँ, क्योकि एक सामाजिक बौद्धिक विमर्श है तो दूसरा भौतिक उत्पाद। “दलित फूड्स” नाम देने के पीछे कौन से तर्क काम कर रहे थे, इसपर बहुत कम ध्यान दिया गया। चंद्रभान जी का कहना है कि उनको यह आयडिया 2008 में एक अमेरिकी यूनिवर्सिटी के लिए शोध के दौरान मिला, जब वे एक दलित-गाँव में रुके थे। उनके अनुसार उन्होंने देखा कि साधारण खाना खाकर भी दलित 80-90 साल जी रहे थे। उन्हें लगा कि दलित इतने दिनों तक मिलावट मुक्त प्राकृतिक खाना खाकर स्वस्थ और निरोग रह रहे थे। उनके अनुसार इसे ही आजकल प्राकृतिक और स्वास्थकर भोजन कहतें हैं। यहीं से उन्हें नाम और उत्पाद की प्रेरणा मिली। इस तरह उन्होंने दलित उद्यमशीलता और मिलावट मुक्त प्राकृतिक उत्पाद, जिसका पारंपरिक ज्ञान दलित समाज को था, और जो इसका सेवन करता था, को बढ़ावा देने के लिए अपने नए उत्पाद का नाम “दलित फूड्स” रखा।

भारतीय समाज के पारंपरिक सोच वाले सवर्ण समाज में, यहाँ तक की पिछड़े समाजों में भी, दलितों की पहुँच उनके रसोई तक नहीं है। ऐसे में यह कैसे होगा कि एक उत्पाद जो न सिर्फ उसके ही द्वारा बनाया गया है, बल्कि उसका नाम भी ‘दलित’ है, कैसे रसोई तक पहुंचेगा?

चंद्रभान जी का कहना है कि “जिस देश में दलितों का गैर-दलितों के रसोई में प्रवेश नहीं है उस देश में दलित फ़ूड नाम का अपना एक महत्व है। उनका कहना है कि ‘जिस तरह दलितों का राजनीति में उदय हुआ है, उसी तरह “दलित फूड्स” एक दखल है’। “दलित फूड्स” का मिशन है – ‘मिलावट मुक्त, फैशनेबुल दलित फूड्स को एक बड़ा बाजार देना, जिसके मुनाफा से वे अपने सपने पूरा कर सकें, यह “अंग्रेजी और उद्यमशीलता” से होगा’। “दलित फ़ूड” वेबसाइट कहता है कि ‘वह मिलावट मुक्त और प्राकृतिक उत्पादों की बदौलत “ग्राहकों को खरीदने को बाध्य” कर देगा’।

सवाल यह है कि क्या “दलित फूड्स” और “दलितशॉप” भारत में व्याप्त जातिवादी सोच को समाप्त करने में सहायक होगा? मुझे लगता है कि यह जातिवादी हेकड़ी और आर्थिक कब्जे पर कुछ प्रहार करेगा। इसलिए नहीं कि यह किसी ई-कॉमर्स के बूते की बात है। बल्कि इसलिए कि अब समाज में यह सन्देश जा रहा है कि “दलित समुदाय काम मांगने वाला न बनकर काम देने वाला बने। ” यह पूंजीवादी सोच से ही संभव होगा।

कुछ लोग इस आयडिया की रामकिशुन यादव उर्फ़ बाबा रामदेव के आयडिया तुलना करतें हैं। मैं समझता हूँ कि यह उचित नहीं है। बाबा रामदेव के उत्पादों में धार्मिकता और बाबागिरी का मिश्रण है, जबकि इसमें एक आर्थिक-सामाजिक उत्थान और परिवर्तन का सन्देश है। इसपर चंद्रभान जी सही कहतें हैं कि “बाबा रामदेव की इमेज ऐसी है कि वे गोबर की आइसक्रीम भी बेचेंगें तो बिक जाएगी। ”

चन्द्रभान प्रसाद का कहना सही है कि प्राकृतिक और स्वास्थकर भोजन से व्यक्ति स्वास्थ्य और लम्बी आयु प्राप्त करता है। लेकिन सवाल यह उठता है कि क्या इसकी जानकारी सिर्फ दलित समाज को ही है? क्या इसकी पारम्परिक जानकारी आदिवासी, विमुक्त घुमंतू समाज और मुख्य रूप से खेतिहर और पशुपालक रहे पिछड़ा समाज को नहीं है? या फिर क्या इसकी पारम्परिक जानकारी सवर्ण और ब्राह्मण समाज को नहीं है?

Screen Shot 2016-07-18 at 6.25.42 pmउनका यह भी कहना है कि वो अपने उत्पाद खरीदने के लिए ग्राहकों को बाध्य कर देंगें। एक तरफ बाजारवाद को मानना और दूसरी तरफ ग्राहकों को बाध्य करने की बात करना एक-दूसरे के विपरीत है। चंद्रभान जी जिस बाजार और आडम स्मिथ की बात कर रहें हैं, उसका नारा है “consumer is king” अर्थात ”ग्राहक सर्वोपरि है”।  भारतीय दुकानों में भी “ग्राहक मेरा देवता” लिखा मिल जाता है। बाजार के आदर्श नियमों के अनुसार भी यह स्थिति सिर्फ एकाधिकार की स्थिति में प्राप्त की जा सकती है, लेकिन बाज़ार और अर्थशास्त्र के नियमों के अनुसार वास्तविक बाजार में यह स्थिति सिर्फ काल्पनिक है। इसलिए यहां उनसे मेरी दो असहमतियां है। मैं उनसे असहमत हूँ कि – (1) प्राकृतिक और स्वास्थकर भोजन का पारंपरिक ज्ञान और उपभोग सिर्फ दलित समाज के पास है। (2) आज कोई भी व्यापारी ग्राहक को उत्पाद खरीदने को बाध्य कर सकता है।

इन्ही कारणों से मैंने उनसे पूछा कि “अगर आप अपने उत्पाद का नाम “दलित फूड्स” के अलावा कुछ रखते तो इसका ग्राहक-आधार ज्यादा होता” तो उन्होंने उल्टे पूछ लिया, “आप दलित हैं या ब्राह्मण?” “मैं पिछड़े समाज से आता हूँ।” “ओबीसी के लोग ऐसे ही सवाल करतें हैं” और उन्होंने फोन काट दिया। उनके अन्य लेखकीय व बौद्धिक कर्म से भी झलकता उनका यह अजीबोगरीब व्यवहार अलग विश्लेषण की मांग करता है, जिसका अवकाश यहाँ नहीं है।

बहरहाल, दलित फूड्स नाम में एक सामाजिक-राजनीतिक-सांस्कृतिक सन्देश है। यही सन्देश इसके लिए चुनौती भी है।  सन्देश यह है कि दलित समाज सिर्फ मजदूरी या रोजगार मांगने वाला समाज न होकर रोजगार देना वाला और उद्यमी समाज भी है। यह एक तरफ दलितों को उद्यमी बनने की प्रेरणा देता है तो दूसरी तरफ एक नए विचार भी प्रचारित करता है कि हमें उद्यमी बनना है, आर्थिक क्षेत्रो पर कब्ज़ा करना है। यही सन्देश इसके लिए सबसे बड़ी चुनौती भी है।

लेखक के बारे में

अनिल कुमार

अनिल कुमार ने जेएनयू, नई दिल्ली से ‘पहचान की राजनीति’ में पीएचडी की उपाधि हासिल की है।

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