बड़े शौक से सुन रहा था जमाना,
तुम्ही सो गए दास्तां कहते-कहते।
जिन आंसू भरे शब्दों से कवि रैदास ने कबीर को अपनी आखिरी विदाई दी थी, उन्हीं शब्दों से मैं भी प्रिंट पत्रिका के रूप में फारवर्ड प्रेस की आखिरी विदाई दे रहा हूँ।
निरगुन का गुन देखो आई।
देहि सहित कबीर विदाई।।
कोई साढ़े पाँच सौ साल पहले कबीर विदा हुए थे और जून, 2016 में कबीर की उत्तराधिकारी पत्रिका फारवर्ड प्रेस का प्रिंट-संस्करण विदा हो रहा है। सिर के बल खड़ा भारत का राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक इतिहास को पैरों के बल खड़ा करने में फारवर्ड प्रेस का अप्रतिम योगदान है। सात साल की छोटी जिंदगी में फारवर्ड प्रेस ने भारत के साहित्यिक हलकों में, राजनीतिक हलकों में, सांस्कृतिक हलकों में बड़े पैमाने पर परिवर्तन लाए हैं। इतिहास के पन्नों से गायब न जाने कितने बहुजन नायकों को अमर किया है फारवर्ड प्रेस ने। महिषासुर उनमें से एक हैं जिसकी गूँज संसद तक में सुनाई पड़ी और आज इतिहासकारों का एक वर्ग मानने लगा है कि महिषासुर जीता-जागता इंसान था, वह मिथक नहीं था। न जाने कितने हिंदू पर्व-त्योहारों की वास्तविकता का पर्दाफास किया है फारवर्ड प्रेस ने और आज हत्याओं के जश्न के खिलाफ मनाए जानेवाले अनेक त्योहारों का प्रतिरोधी स्वर वंचित जनता के बीच गूँज रहा है।
शायद 2009 का साल था। जाड़े का महीना था। पटना के गाँधी मैदान में पुस्तक मेला लगी हुई थी। पुस्तक मेले में कथाकार मधुकर सिंह के साथ मैं शाम को घूम रहा था। अचानक मित्र अरुण नारायण से मेरी मुलाकात हुई। उनके साथ फारवर्ड प्रेस का कोई पत्रकार था। अरुण नारायण ने बड़े गर्व के साथ मेरा परिचय फारवर्ड प्रेस के उस पत्रकार से कराया और फारवर्ड प्रेस की एक प्रति मुझे दी। पत्रिका का नाम पढ़कर मैंने उसे लेने में थोड़ा संकोच किया। अरुण नारायण मेरे मनोभाव को ताड़ गए और बोले कि सर, रख लीजिए और मौका मिलने पर पढि़एगा।
जब देर रात मैं होटल में लौटा तो फारवर्ड प्रेस को पहली बार पढ़ा। उसमें एक लेख था कि क्रिकेट ब्राह्मणों का खेल है। इसमें भारतीय क्रिकेट टीम और क्रिकेट के खेल को बहुजन नजरिए से व्याख्यायित किया गया था। फिर मैं सासाराम लौट आया तो फारवर्ड प्रेस से संपर्क टूट गया। साल 2011 की बात है। मैंने ओबीसी साहित्य की अवधारणा शीर्षक से एक लेख लिखा था और इस उधेड़बुन में था कि इसे छपने के लिए किस पत्रिका को भेजें। नटरंग, हंस, ज्ञानोदय, साहित्य अमृत, भाषा, समकालीन भारतीय साहित्य आदि पत्र-पत्रिकाओं में मैं लेखन किया करता था। मगर ओबीसी साहित्य को छापने का माद्दा सभी पत्रिकाओं में नहीं था। मैंने कथाकार प्रेमकुमार मणि से सलाह ली। उन्होंने फौरन कहा कि इसे फारवर्ड प्रेस को दीजिए।
फारवर्ड प्रेस के लिए मैंने पत्रकार प्रमोद रंजन से संपर्क किया। फारवर्ड प्रेस के जुलाई, 2011 अंक में ओबीसी साहित्य की अवधारणा को व मुख्य संपादक आयवन कोस्का ने विशेष संपादकीय के साथ छापा। इस लेख को छपते ही हिंदी के साहित्यिक हलकों में भूकंप-सा आ गया। पक्ष और विपक्ष में अनेक बातें हुईं। कई पत्रिकाओं ने ओबीसी साहित्य को लेकर संपादकीय लिखे। उस समय चर्चित रहे अविनाश दास के वेब पोर्टल ‘मोहल्ला लाइव’ ने प्रस्तुत लेख को ओबीसी साहित्य का मैनिफेस्टो कहते हुए इस पर बहस चलाई। कई साहित्यकारों, बुद्धिजीवियों ने इसमें हिस्सा लिया।
बाद में फारवर्ड प्रेस ने बहुजन साहित्य वार्षिकी के नाम से पाँच विशेषांक प्रकाशित किए, जिसका हिस्सा ओबीसी साहित्य भी बना। सभी विशेषांक संग्रहणीय हैं। इन विशषांकों में प्रेमकुमार मणि, प्रमोद रंजन, वीरेंद्र यादव, अरुण नारायण, अनीता भारती, गंगासहाय मीणा, कँवल भारती, अश्विनी कुमार पंकज, सुधीश पचौरी, सुभाषचंद्र कुशवाहा, देवेन्द्र चौबे, मोहनदास नैमिशराय आदि के लेख हैं। राजेन्द्र यादव, वीर भारत तलवार, उदय प्रकाश, रामवक्ष जाट, शरणकुमार लिंबाले, मैत्रेयी पुष्पा आदि के साक्षात्कार हैं। रमणिका गुप्ता, दिनेश कुशवाहा, रमेश प्रजापति, सुरेन्द्र स्निग्ध, शहंशाह आलम, शंकर प्रलामी, सुषमा असुर आदि की कविताएँ हैं। हरि भटनागर, संदीप मील, रामधारी सिंह दिवाकर, चंद्रकिशोर जायसवाल, अनीता भारती आदि की कहानियाँ हैं। कुल मिलाकर फारवर्ड प्रेस ने हिंदी साहित्य को एक नई ऊँचाई दी। हिंदी साहित्य के पारंपरिक कुल-कछारों को तोड़ा। आलोचना के नए मानदंड स्थापित किए। रस-सिद्धांत की नई व्याख्या प्रस्तुत की।
अपनी सात साल की जिंदगी में फारवर्ड प्रेस ने अपार लोकप्रियता हासिल की। कम से कम मेरे शहर में तो बाकायदे फारवर्ड प्रेस क्लब था। फारवर्ड प्रेस सम्मान का आयोजन हुआ। दूर-दूर के लोग फारवर्ड प्रेस को लेने और पढऩे के लिए सासाराम आया करते थे। चौंकानेवाली बात तो यह है कि गाँव के लोग, गरीब लोग भी फारवर्ड प्रेस पढ़ा करते थे। वाकया चंदौली की है। फारवर्ड प्रेस की कुल 100 प्रति कार्यक्रम में स्टॉल पर रखी हुई थी और पलक झपकते ही सभी प्रतियां बिक गईं, ऐसे मानो वंचित जनता फारवर्ड प्रेस की भूखी हो। यही स्थिति मैंने गाजीपुर के लटिया में देखी थी।
विगत पाँच वर्षों में मैं लगातार फारवर्ड प्रेस के निकट संपर्क में रहा। उसी में लिखता रहा और उसी को पढ़ता रहा। इन पाँच वर्षों में अन्य पत्रिकाओं से मेरा संपर्क टूट-सा गया। भाषाविज्ञान भी मेरे हाथों से फिसल गया। बहुजन साहित्य ही मेरा ओढऩा-बिछौना हो गया। फारवर्ड प्रेस में बहुजन साहित्य पर इतना लिखा कि मेरी दो किताबें सिर्फ फारवर्ड प्रेस में लिखे हुए मेरे लेखों का संग्रह हैं। सच कहूँ तो विगत पाँच वर्षों की मेरी साहित्यिक जिंदगी का नाम फारवर्ड प्रेस है। फारवर्ड प्रेस के सामाजिक-सांस्कृतिक महत्व को तो कोई समाजशास्त्री मूल्यांकित करेगा, मगर साहित्यिक क्षेत्र में इसका योगदान अविस्मरणीय है। हम और हमारा बहुजन समाज फारवर्ड प्रेस परिवार के आभारी हैं। अलविदा फारवर्ड प्रेस !
(फॉरवर्ड प्रेस के अंतिम प्रिंट संस्करण, जून, 2016 में प्रकाशित)