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दलित कविता में प्रतिक्रांति का स्वर

उत्तर भारत में दलित कविता के क्षेत्र में शून्यता की स्थिति तब भी नहीं थी, जब डॉ. आंबेडकर का आंदोलन चल रहा था। उस दौर में और आजादी के बाद अनेक दलित कवि हुए, जिन्होंने कविताएं लिखीं। प्रस्तुत है कंवल भारती की विशेष आलेख श्रृंखला ‘हिंदी दलित कविता का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य’ की पहली कड़ी

हिंदी दलित कविता का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य – पहली कड़ी

वर्ष 1956 में उत्तर प्रदेश शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन के सदस्य और जिला इकाई के अध्यक्ष, मुहल्ला छपट्टी, शहर मैनपुरी (उत्तर प्रदेश) के डाक्टर पंडित मौजीलाल मौर्य एल.एम.एस.एच. ने स्वामी अछूतानंद का जीवन चरित्र लोक कविता में लिखा, जो उन्हीं के द्वारा 24 अक्टूबर, 1956 को बलिदान प्रेस, मैनपुरी से छपा। सोलह पृष्ठीय इस पुस्तक के मुखपृष्ठ पर लेखक का फोटो छपा है और दूसरे पृष्ठ पर डॉ. भीमराव आंबेडकर का फोटो दिया गया है। इससे पता चलता है कि उस समय डॉ. आंबेडकर का प्रभाव हिंदी क्षेत्र के दलित जातियों में हो गया था। डा. मौजीलाल मौर्य जाटव जाति के थे और ज्योतिष विद्या के जानकार होने के कारण लोग उन्हें पंडित जी कहकर पुकारा करते थे। उन दिनों बहुत से जाटवों ने अपने नाम के आगे मौर्य लगा लिया था। उन्होंने ‘पोपों का भंडाफोड़’ के साथ-साथ तुलसीकृत और राधेश्याम रामायण की तर्ज पर डॉ. आंबेडकर का जीवन चरित्र भी 1950 में ‘भीमायण’ नाम से लिखा था।

‘स्वामी अछूतानंद (जीवन चरित्र)’ में डा. मौजीलाल मौर्य ने स्वामी जी के अंतिम समय का वर्णन इस प्रकार किया है–

अंत समय जब आया मुनि का स्वर्ग लोक को जाने का।
भारत के दुखित अछूतों को भर-भर के आंसू रुलाने का।।
सब कुटंबी किये इकट्ठे लड़की तीनों बुलवाई।
सन उन्नीस सौ तैंतीस में स्वामी जी समाधि लई भाई।।
स्वयं भवसागर पार किया दुखियों को स्वामी छोड़ गये।
हिंदुन से दबे अछूतों से अब सारा रिस्ता तोड़ गये।।[1]

‘स्वर्ग लोक’ और ‘भवसागर’ शब्द बताते हैं कि आदि हिंदू आंदोलन के दर्शन से अछूतों का रिश्ता पहले ही टूट चुका था। अछूत हिंदुओं से नहीं, हिंदुओं के परलोकवादी दर्शन से ज्यादा दबे हुए थे। कवि भी इसके प्रभाव में नजर आता है। इसलिए वह मृत्यु को स्वर्ग लोक ही कहना चाहता है। यह हिंदू शब्दावली स्वामी अछूतानंद के यहां नहीं मिलती है। कवि एक अन्य कविता ‘पूर्वी रसिया’ में कहता है–

स्वामी अछूतानंद महाराज स्वर्ग की राह बताय गयो रे।
आदि हिंदू सभा की स्वामी नींव जमाय गयो रे।।[2]

यहां ‘स्वर्ग’ मृत्यु के अर्थ में है, तो यह स्वामी जी के पूरे दर्शन की ही गलत बयानी है। पर, आगे की पंक्तियां कुछ और कहती हैं–

कर विद्या को प्रकाश अछूत जनता को जगाय गयो रे।
हिंदुन से कर संग्राम मानव अधिकार दिलाय गयो रे।।
स्वामी अछूतानंद महाराज स्वर्ग की राह बताय गयो रे।।[3]

इन पंक्तियों के साथ ‘स्वर्ग’ की अभिव्यंजना ‘मुक्ति’ के अर्थ में होती है। विद्या का प्रकाश (शिक्षा) और संग्राम (संघर्ष) मुक्ति का ही पथ है। ‘स्वर्ग’ की जगह ‘मुक्ति’ का प्रयोग यहां कविता की दृष्टि से भी अच्छा हो सकता था और भाव की दृष्टि से भी। पर, हिंदू जाल में ‘मुक्ति’ भी स्वर्ग जाने की ही स्थिति का नाम है। ‘राम नाम सत है, सत में ही मुक्ति है’ जैसे नारे किसी भी हिंदू की शवयात्रा में आज भी बोले जाते हैं। कवि इसी शब्दावली से समझाना चाहता है कि शिक्षा और संघर्ष ही स्वर्ग की राह दिखाता है।डा. मौजीलाल मौर्य संघर्ष की आवाज लगाते हैं–

जुल्म मत सहो नेक मरदो, जाति पर जान कुर्बान कर दो।
है द्विजों ने ही हमको सताया।
मुद्दतोें से है अब तक दबाया।
ऐसी हालत में हमको गिराया।
जानवर से भी बदतर बनाया,
गर्क उनके यह अभिमान कर दो।
दाद बेगार हमसे कराते।
है मना घी भी खाना सुनाते।
वर वधु डोला न चढ़ने पाते।
औरतों को न जेबर पहनाते,
जुल्म ये सारा सुनसान कर दो।।[4]

यह एक लंबी कविता है, जो मर्सिया छंद में लिखी गयी है। इसमें आदि हिंदू आंदोलन का तेवर मौजूद है। पर, हम इसमें दलित जाति को एक शोषित वर्ग के रूप में भी देखते हैं। इस चेतना को दलित कविता में विकसित होना चाहिए था। जुल्म के खिलाफ आवाज दलित कविता का संघर्ष और सामाजिक आधार दोनों है। पर, इसी युग में यह संघर्ष और आधार हम टूटता हुआ भी देखते हैं।

अलीगढ़ के स्वामी शंकरानंद एवं अयोध्यानाथ ब्रह्मचारी इसी समय वेदों का प्रचार करते हुए दलितों को हिंदू बाड़े में ढकेलने का काम कर रहे थे। वर्ष 1954 में उनकी पुस्तक ‘शंकरानंद भजनावली’ पदमसिंह बुकसेलर, प्रेमकुटीर गणेशपुरी, मैनपुरी से प्रकाशित हुई थी। कहा जाता है कि वे स्वामी अछूतानंद की क्रांति से प्रभावित थे। पर, उनकी कविताओं में हमें उनका स्वर प्रतिक्रांति का दिखायी देता है। ‘शंकरानंद भजनावली’ का पहला ही भजन इसका साक्ष्य है–

जगदीश्वर जगत पिता सुनिए, तुमसे एक बिनय हमारी है।
मझधार के बीच में आज प्रभो अटकी क्यों नाव हमारी है।।
जो सर्व शिरोमणि थे एक दिन, और भूमंडल के स्वामी थे,
संतान आज उनकी दर-दर फिरती क्यों मारी-मारी है।
सुवरण हीरा पन्ना नीलम मणियां और लाल जवाहर थे।
धनवान एक दिन भारत था, पर अब क्यों हुआ भिखारी है।
सुख सम्पत्ति शिल्प कला विद्या अब हार मान हम खो बैठे,
हैजा और प्लेग अकालों से होती क्यों निशिदिन ख्वारी है।[5]

डा. मौजीलाल मौर्य की किताब ‘स्वामी अछूतानंद’ और स्वामी शंकरानंद-अयोध्यानाथ ब्रह्माचारी की किताब ‘शंकरानंद भजनावली’ का मुख पृष्ठ

आदि हिंदू की अवधारणा 1954 तक आते-आते, संपूर्ण भारत की अवधारणा में बदल गयी थी। अतः दलित वर्गों की दुर्दशा पर ही नहीं, संपूर्ण भारतीयों की दुर्दशा पर दलित कवि चिंता करने लगा था। पर, इस भजन में दुर्दशा का कारण हिंदूधर्म का नाश है–

संध्या यज्ञ हवन ही क्या सब धर्म कर्म ही भूल गये,
फंस गये कुकर्मों में हम सब और बुद्धि गयी सब मारी है।
मोरध्वज धुरुव प्रह्लाद भीम अर्जुन से वीर विद्वानों की,
सन्तान पतित निर्बल कायर क्यों हुई आज व्यभिचारी है।।
अवगुण सारे बतलाऊं क्या हर तरह से अब हम डूब गये,
फिर भी दीन अछूतों पर टेढ़ी क्यों दृष्टि तुम्हारी है।
बल विद्या बुद्धि प्रेम और धन जल्दी से हमें प्रभो दीजे।
श्रीमान उत्थान हमारे में होती क्यों नाथ अबारी है।।[6]

शंकरानंद यह सोचने में असमर्थ थे कि संध्या, यज्ञ और हवन आदि धर्म-कर्म भूलकर कुकर्म करने से अछूत जातियों का उत्थान नहीं हो रहा है, तो सुबह से शाम तक खून-पसीना बहाने वाले अछूत मजदूर लोगों की कमाई पर गुलछर्रे उड़ाने वाले सेठ, साहूकार और जमींदारों का उत्थान कैसे हो रहा था? किसी भी समाज का उत्थान संध्या, यज्ञ और हवन करने से नहीं, बल्कि लोगों को विकास के समान और भरपूर अवसर मिलने से होता है, यह भौतिकवादी समझ शंकारानंद में विकसित नहीं हो सकी थी। जब भारत में हैजा और प्लेग की महामारी फैली थी, तो महात्मा गांधी ने कहा था कि यह हरिजनों पर हिंदुओं के जुल्म के खिलाफ भगवान का अभिशाप है। इसी तरह की अवैज्ञानिक सोच शंकरानंद की थी।

स्वामी शंकारानंद आर्य समाजी थे। आर्य समाजियों की तरह उनका भी यही मानना था कि अछूतों को वेद-पढ़ने और यज्ञ-हवन करने का अधिकार देने से उनका उत्थान हो जाएगा। यह वास्तव में अछूतों को धर्मांतरण करने से रोकने की नीति थी। इसे स्वामी शंकरानंद ने एक भजन में कहा भी है–

जो अछूतों को छाती लगा हिंदुओं,
बरन ये लाल गैरों के घर जायेंगे।
गर मुहब्बत का मरहम लगाते रहे,
जख्म ये आप के सब भर जायेंगे।।[7]

वे महर्षि दयानंद को दलितों का उद्धारक मानते थे, जिन्होंने हिंदू धर्म से नाता तोड़कर मुसलमान और ईसाई बनने वाले दलितों को वेद-प्रचार करके रोक दिया था। यह भजन देखिए–

भूले थे वेद की बानी को अज्ञान अंधेरा छाया था।
भारत में गुरूकुल खुलवा कर फिर विद्या का प्रचार किया।।
थी छूत की प्रथा बड़ी भारी दलितों को सताया जाता था।
देखी यह दशा दयानंद ने फिर दलितों का उद्धार किया।।[8]

शंकरानंद की समझ में यह बात नहीं आ सकी थी कि छुआछूत दलितों की समस्या नहीं थी, हिंदुओं की थी। फिर छुआछूत का विरोध दलित-उद्धार कैसे हो गया? दयानंद ने अगर किसी का उद्धार किया था, तो हिंदूधर्म का ही उद्धार किया था। हालांकि भजन के अंत में वह इसे स्पष्ट भी करते हैं–

इस धर्म से नाता तोड़-तोड़ होते थे मुसलमां ईसाई।
पुना शंकरानंद दयानंद ने होने से उनको टाल दिया।।[9]

शंकरानंद और अयोध्यानाथ ब्रह्मचारी दोनों जाटव जाति में पैदा हुए थे। शंकरानंद का जन्म 1893 ई. (संवत् 1950 वि.) में उत्तर प्रदेश के एटा जनपद में हुआ था। उन्हें 18 वर्ष आयु की में वैराग्य हो गया था और बाद में स्वामी ब्रह्मानंद दंडी के आश्रम में जाकर वे उनके शिष्य हो गये थे। वहां उन्होंने वेद-शास्त्रों का ज्ञान प्राप्त किया और धर्मप्रचारक बन गये। बाद में, उन्होंने भेंकुरी (अलीगढ़) में साधु आश्रम स्थापित किया। उनके अनेक शिष्य हुए, जिनमें स्वामी प्रेमनाथ, स्वामी केदारनाथ, शिवानंद पुजारी, मुंशीलाल, स्वामी ओमानंद, स्वामी ओंकारनाथ, स्वामी जीवन नाथ, ब्रह्मचारी अयोध्यानाथ, स्वामी योगानंद और स्वामी धर्मनाथ मुख्य थे।

स्वामी अयोध्यानाथ का जन्म 1 जनवरी, 1924 ई. को हुआ था। उनका जन्म स्थान भेंकुरी ही है। वे तुलाराम जाटव के पुत्र थे। उनका बचपन का नाम रामस्वरूप था। वे हिंदी और संस्कृत के ज्ञाता थे। उन्होंने डॉ. आंबेडकर के संगठन शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन में काम किया था, जिसमें वे आगरा और मेरठ क्षेत्र के क्षेत्रीय अधिकारी रहे थे। पर, वेद और यज्ञ के वे परम भक्त थे। वे हर वर्ष ब्रह्म-परायण यज्ञ कराते थे। ऐसे ही एक यज्ञ में वे 1948 में ब्रह्मानंद दंडी से संन्यास ग्रहण करके अयोध्यानाथ दंडी बने थे।

शंकरानन्द और अयोध्यानाथ दोनों ही वेद-मार्ग पर चलकर वर्णव्यवस्था के समर्थक थे। जैसा कि इस दोहे में कहा गया है–

चार बरण सबके लगे सब कोई लेउ देख।
ब्राह्मण क्षत्री वैश्व शूद्र, यह यजुर्वेद का लेख।।[10]

वेद के अनुसार शूद्र ब्रह्मा के चरणों से उत्पन्न हैं। इस आधार पर शूद्रों को नीच समझा जाता है। पर, शंकरानंद ने चरणों की महिमा गाकर शूद्र-पद को ही गरिमा प्रदान कर दी। शूद्रत्व को प्रोत्साहित करने वाला उनका यह भजन देखिए–

यह यजुर्वेद का लेख सही ब्राह्मण को श्रेष्ठ बखाना है।
क्षत्री भुजा उदर बनियां चरणों को शूद्र कर माना है।।
बस इसी लेख पर डटे रहो यदि वेद की सच्ची मानो तुम।
अब छटिके होगा न्याय इसी में किसको बढ़कर मानो तुम।।
जब रवि के घर विशनू आये भू नापन चरण पसारे हैं।
फिर ब्रह्मा लोक में चरण पड़े धोने ब्रह्मा ठाने हैं।।
श्री विशनू चरणों में से निकली गंगा महारानी हैं।
और तुलसीदास ने इसी तरह गंगा की उत्पत्ति मानी है।।
चाहे चरण कमल किसी के हों भाई सब ही शूद्र कहे जाते।
फिर गंगा जी लो शूद्र भई, नहाने में क्यों नहीं शरमाते।।[11]

शंकरानंद की दृष्टि में द्विज के मुकाबले शूद्र यानि चरणों का मूल्य ज्यादा बड़ा है। यथा–

तीनों अंकों से बढ़कर चरणों का अंक बड़ा माना।
यह शंकरानंद कहे तुमसे दे ध्यान जरा सुनते जाना।।[12]

शंकरानंद के लिये जाटव यदुवंशी हैं, चमार नहीं हैं। उनका कहना है, जब भृगु पति परशुराम क्षत्रियों का संहार कर रहे थे, तो यदुवंशियों ने ‘यादव’ शब्द त्याग कर ‘जाटव’ नाम रख लिया था। यथा–

एहो सर्व बंधु आज जाटवों की उत्पत्ति,
कहता हूं लगा के कान उसे सुन लीजिए।
पिता शिर कटने से जब भृगुपति ने,
ठान यह ठानी निक्षत्रिय भूमि कीजिए।।
इकईस बार सब यदुवंशी नष्ट किये,
तब तो उपाय बचने का यह सूझिए।
य वर्ण ज से और द वर्ण ट से,
अब बदल के शांत जाटव कर लीजिए।।[13]

जाटव वंश में कौन-कौन प्रतापी वीर हुए, उसका भी विवरण उनके पास है। यह भजन देखिए–

तू जाटव वंश कर गौरव को याद।
नहुप हुए थे इसी वंश में इंद्र को मार भगाया था।
इंद्राणी के हरने को विप्रों से पलंग उठवाया था।।
इन्हीं के पुत्र ययाती ने सब जग को स्वयं हराया था।
मार-मार के भूपों को इस भारत भूमि को पाया था।।
जाटव वंश तू भूल चला है अब अपनी मरयाद।।[14]

इसी श्रृंखला में आगे कृष्ण, सहस्रबाहु, जटायु, आल्हा-ऊदल, नल-नील और महावीर (हनुमान) भी जाटव वंशीय हैं।[15]

कहना न होगा कि इस काल में दलित वर्गों में एक पृथक जातीय पहचान की धारणा विकसित की जा रही थी। इसके सूत्रधार शंकरानंद नहीं थे, पर वे उसके साधन जरूर थे। यह श्रेष्ठवाद आर्यों से चला और आर्यसमाज ही इस जातीय श्रेष्ठवाद का आज भी दावा करता है। शंकरानंद और उनके शिष्य अपनी नासमझी की वजह से आर्यसमाज के द्विज नेतृत्व की इस साजिश को नहीं समझ सके, जो अछूत जातियों को श्रेष्ठवाद की भांग खिलाकर मिथ्याभिमान के काल्पनिक इतिहास में उलझा रहा था, ताकि वे व्यवस्था के कठोर यथार्थ को अनुभव न कर यथास्थिति बनाये रखें। सफाई करने वाले मेहतर समाज को वाल्मीकि ऋषि से जोड़कर उसे वाल्मीकि नाम भी आर्यसमाजियों ने ही दिया था, जिसने उनका हिंदूकरण करने में बहुत बड़ी भूमिका निभायी।

आर्यसमाज ने दलित जातियों में से बड़ी संख्या में भजन-कवित्त लिखने और गाने वालों को अपने प्रचार के लिये तैयार किया था। वे दलित बस्तियों में जाकर गाने-बजाने का कार्यक्रम करते, जिसमें ईश्वर, वेद का प्रचार करते और समाजसुधार के नाम पर छुआछूत, नशा और फिजूल खर्ची छोड़ने का उपदेश देते थे। शंकरानंद ने भी भजनोपदेशक के रूप में इसी तरह के समाज-सुधार के भजन लिखे। जैसे, फिजूल खर्ची के खिलाफ उनका यह भजन–

दलितो, देखो निगाह पसार कैसी बिगरी है दशा तुम्हारी।।
जब हो शादी का संबंध। काम सब घर का कर देउ बंद।
जाय कर पूछो भइया बंद। ब्याह में कैसी सलाह तुम्हारी।।
भैया ले चल खूब बरात। गबैया को ले जाओ साथ।
तुम्हारी कबहु न बिगरे बात। धूरि गोलों की रंगत न्यारी।।
बरात जनमासे में गयी पहुंच। गवैयो का हो निकला नाच।
फेर बारूद में दे दई आंच। खुशी भई समदी के अतिभारी।।
अन्तिम भई विदा को बेर। भैया करि चलि खूब बखेर।
ऐसा मौका मिले न फेर। मरे की जीवे कीरत भारी।।
समधी घर पर पहुंचा जाय। शाह ने करौ तगादो आय।
पीछे कुर्की लई करवाय। अन्न से बच्चा बहुत दुखारी।।[16]

कर्ज लेकर धूमधाम से शादी करने से गरीब की दशा बिगड़ती है, इसकी चिंता जरूर होनी चाहिए। निस्संदेह, इस तरह के भजनों ने गरीबों को ठीक ही चेताया। पर, यह सुधार दलित आंदोलन का हिस्सा नहीं था, बराबरी के खिलाफ सवर्ण-प्रचार का हिस्सा था। धूम-धड़ाके से विवाह करना, बारात निकालना, हाथी, घोड़ा, पालकी, गाना-बाजा, सांग-सांगीत और आतिशबाजी का उपयोग करना तथा भोज में घी के पकवान बनाना सामाजिक स्तर को दर्शाता था। यह अस्मिता और अस्तित्व-बोध का भी प्रश्न था। यह परिवर्तन की चेतना भी थी। किसी भी संज्ञा-शून्य मृतक समाज और राष्ट्र को तो आमोद-प्रमोद से दूर रखा जा सकता है, पर जीवंत समाज को नहीं। दलित समाज न मृतक था और न संज्ञा-शून्य। वह मजदूर और उत्पादन से जुड़ा समाज था, जिसकी अपनी संस्कृति थी। सामंतवादी सवर्ण उसे अपने समान सामाजिक स्तर से नीचे रखना चाहता था। इसीलिए उसने बाजे-गाजे, घोड़ा, पालकी और आतिशबाजी के साथ दलितों की शादियों पर प्रतिबंध लगाया था। उनकी औरतों को सोने-चांदी के जेवर पहनने का अधिकार नहीं था, जबकि वे पहन सकती थीं, पर पहनने नहीं दिया गया। दलितों में समाज-सुधार फिजूलखर्ची के नाम पर इसी सवर्ण-सोच का रूप था।

शंकरानंद का सुधार-भजन दलितों के अस्तित्व-बोध को नकारता है। यदि शादी के अवसर पर अछूत जाति के लोग काम बंद कर देते हैं, तो नुकसान अछूत का उतना नहीं होता, जितना सवर्ण और जमींदार का होता है। वे मजदूर हैं, सर्वहारा हैं। यदि आठ-दस दिन तक वे काम नहीं करेंगे, जैसे खेतों में काम नहीं करेंगे, जानवर मरा पड़ा है, उसे उठायेंगे नहीं, कपड़े नहीं धोयेंगे, सफाई का काम नहीं करेंगे, तो परेशानी किस को होगी, सवर्णों को ही होगी। अवकाश पर रहना मजदूर वर्ग का अधिकार है। यह ऐसा अवकाश है, जिसकी मजदूरी भी उसे नहीं मिलती है। पर, उसका आत्मसुख इतना बड़ा है कि उसके सामने मजदूरी निरर्थक है। स्वामी शंकरानंद अछूत मजदूर से उसके आमोद-प्रमोद का अवसर भी छीन लेना चाहते थे।

एक भजन में शंकरानंद जाटव वीरों को इस तरह जगा रहे हैं–

जागो-जागो जाटव वीर ऐसे सोये गये नींद दशा में।
सोना बहुत बुरा आखीर। सोया कुम्भकरण सा वीर।
पीछे कोई न धरता धीर। कि दीनी आग जला लंका में।।
ऐसे सोये गये दावेदार। वर्षे हई गयीं पांच हजार।
अब यादव से भये चमार। नीच कहि सभी लोग ठुकरामें।।
अब तुमको बनना है मजबूत। तज दो आपस की सब फूट।
समय जो अब के जाउगे चूक। गये दिन फिर नहीं नित आमें।।
आदि के तुम हो सच्चे वीर। गुलामी की तोड़ो जंजीर।
शंकरानंद की यही अखीर। कि तुम को बार-बार समझामें।।[17]

इस कविता में आदि हिंदू आंदोलन की कविता की झलक मिलती है। “आदि के तुम हो सच्चे वीर, गुलामी की तोड़ो जंजीर” स्वामी अछूतानंद की कविता “हम तो कहत हम आदि निवासी, आदि वंश संतान” की ही प्रतिध्वनि है। इस “जागो-जागो जाटव वीर” भजन में यादव से चमार बनने का दुख है, पर दूसरी ओर गुलामी से मुक्त होने का आह्वान भी है।

शंकरानंद एक अन्य कवित्त (भजन) में अछूतानंद को अछूतों का उद्धार करने वाला ऋषि मानते हैं, यथा–

धन्य-धन्य अछूतानन्द ऋषि तुमने अछूत उद्धार किया।
बहती नय्या के बिन मल्हा तुमने बल्ली ले पार किया।[18]

एक अन्य कविता ‘ईश्वर के प्रति प्रार्थना’ में कवि ईश्वर से शिकायत करता दिखायी देता है–

वेद की निंदा करी न कभी, नहिं,
सन्तन विप्रन को दुख दीन्हा।
देश के प्रेम से वंचित राखि के,
कोई भी कार्य विरुद्ध न कीन्हा।।
राज किले गढ़ तोपन सेनन,
शत्रु भुजा बाज न चीन्हा।
जाटव वंश पै दोष कहां प्रभु,
कष्ट भयंकर टार के दीन्हा।।[19]

कवि ईश्वर से प्रार्थना करता है कि जाटव वंश को इतने भयानक कष्ट क्यों दिये हैं? वे कहां दोषी हैं? उन्होंने न कभी वेदों की निंदा की, न संतों-ब्राह्मणों को दुख दिया, न देश-प्रेम के विरुद्ध काम किया। यदि कवि का यही विश्वास था कि वेद-निंदा और ब्राह्मणों को दुखी करने वाले लोगों को ईश्वर भयंकर कष्ट देता है, तो निस्संदेह यह प्रतिक्रांति के नायक ब्राह्मणों का अंधा समर्थन था। उसे कबीर और रैदास के दर्शन का भी पता नहीं था, जो वेद-वेदांत दोनों के निंदक थे। प्रतिगामी शक्तियां दलित कविता को किस तरह पथभ्रष्ट कर रहीं थीं, इसे शंकरानंद के रचनाकर्म से समझा जा सकता है।

शंकरानंद की कविता इस सिद्धांत की प्रचारक थी कि ईश्वर सर्वशक्तिमान, सबका पालनहार और अपने भक्तों का रक्षक है। उसकी इच्छा के बिना कुछ भी संभव नहीं है। वह अपने भक्तों की जरूर सुनता है और उनके कष्ट भी दूर करता है, बशर्ते भक्त सच्चे दिल से उसे पुकारें। शंकरानंद ने इसकी पुष्टि में एक कथा कही है, जिसे हम ‘लोक खंड काव्य’ कह सकते हैं। यह कथा भजन छंद में है, जिसकी ‘टेक’ है– “जगत में मार सकै नहिं कोय, जिसका ईश्वर रखवारा।” ‘चाल’ इस तरह है–

एक दिना की बात तीर ले हाथ भाल चल दीयो।
एक वन में पहुंचौ जाय कठिन करि हीयौ।।
देखत नजरि पसारि, मिली न शिकार, सोच यो कीयो।
मोय सबरो दिन है गयौ घूम वन लीयौ।।[20]

शिकारी दिन-भर वन में घूमता है, चारों तरफ नजरें दौड़ाकर देखता है। पर उसे कोई शिकार नजर नहीं आता है। अचानक शिकारी की नजर एक पेड़ पर जाती है, जिसकी एक डाल पर कबूतर और कबूतरी आनंद में सो रहे थे। शिकारी खुश हुआ–

मारन कूं भयौ तयार, करी न अबार, खुशी भयौ भारी।
इत सोवत से गये जागि दोऊ नर-नारी।।[21]

दोनों कबूतर-कबूतरी की नजर शिकारी पर पड़ती है। वे घबरा जाते हैं। वे ऊपर नजर करते हैं तो देखते हैं कि एक बाज उनकी तरफ घात लगाये हुए है। ऊपर और नीचे दोनों तरफ मृत्यु देखकर वे प्रभु का स्मरण करते हैं–

यों कहैं दोऊ कर जोरि प्रभु दुख टारौ।
तुम डूबत से जल में गजराज उबारौ।।
प्रह्लाद भक्त को त्रास पिता ने दीन्हा।
तुम खम्भ फारि नरसिंह रूप धरि लीन्हा।।
जब दूशासन ने नारि द्रौपदी घेरी।
फिर उसकी राखी लाज करी न देरी।।
मेरे नाथ सदा से सुनी सबों की टेर।
प्राण रहे घबड़ाय आजु क्यों सो गये मेरी बेर।।[22]

टेर सुनकर भगवान सर्प बनकर वन में प्रकट होते हैं और तीर चला रहे बधिक को डस लेते हैं। वह धरती पर गिर जाता है और उसका तीर चूक कर बाज को लग जाता है। और– “नीचे मरि गयौ बधिक कि ऊपर बाज की भई अखीर।” इस लोक खण्ड काव्य का ‘तोड़’ यह है–

कहैं शंकरानन्द छुड़ायौ फन्द, भयौ आनन्द।
सदा परमेश्वर की होय, जिसका ईश्वर रखवारा।
जगत में मारि सके नहिं कोय।।[23]

शंकरानंद इस कथा काव्य के माध्यम से दलितों को यह बता रहे थे कि वे भगवान में भरोसा रखें और उससे याचना करें, भगवान उन्हें अवश्य दुखों से मुक्ति देंगे। वे यह मानते थे कि सब कुछ भगवान करता है। कोई दुखी है तो भगवान की इच्छा से, कोई सुखी है, तो भगवान की इच्छा से। इसमें मनुष्य कुछ नहीं करता। देखिए यह भजन–

सब जब से प्यारे हरि की माया। टेक।
वही बनावे वही बिगारे वाही की माया देखो।
फूल पात और डाली डाली सब वाही की माया देखो।।
कोई निर्धन बने किसी को धनी बनाया।।
काऊ की छान पर फूंस नहीं, काऊ के घर पर टीन नईं।
काऊ के रोआ राट परे और काऊ के घर खुशी भई।।
काऊ नीर को भटक रहा और काऊ पे न भावें दूध दही।
काऊ के घर में खास भरे और काऊ को पैदा नाज नहीं।।
कोई वस्त्र को दुखी किसी के मील चलाया है।।[24]

इस तरह का विश्वास पैदा करने का अर्थ था दलित शोषित वर्ग को व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष करने से रोकना। जो दुख, गरीबी और अभाव सत्ता की अन्यायपूर्ण व्यवस्था से पैदा हुए थे, वह उन्हें ईश्वरीय बताकर स्वीकार करने की शिक्षा देकर ब्राह्मणवाद और सामन्तवादी द्विजों की सत्ता को ही मजबूत कर रहे थे। अशिक्षा से ग्रस्त दलित शोषित वर्ग को शंकरानंद ‘दुख मिटि जात राम गुन गाने से’ की अफीम खिला रहे थे। यथा–

पाप मिटि जो नित्य पुन्य दान करें।
भ्रम मिटि जात जो कि गुरू सतसंग से।
जाड़ो मिटि जात दीप के जलाने से।।
प्यास मिटि जात जैसे पानीऊ को पीकर,
भूख मिटि जात अन्न भोग के लगाने से।
कहें शंकरानंद ऐसी कभी काम होत रहत,
दुख मिटि जात राम गुन गाने से।।[25]

शंकरानंद इस सवाल से नहीं टकराये कि राम दुख देता ही क्यों है? ईश्वर किसी को धनी और किसी को निर्धन क्यों बनाता है? किसी को भूखा क्यों मारता है और किसी को हर तरह के भोग क्यों देता है? वह क्यों किसी को टूटी-फूटी मड़ैया में भी चैन से नहीं रहने देता और क्यों किसी को महलों में पैदा करता है? क्या यह ईश्वर का अन्यायकारी रूप नहीं है? यदि आदमी के दुखों और गरीबी का कारण ईश्वर ही है, तो ऐसा दुखी और गरीब आदमी अपने दुख और अपनी गरीबी को मिटाने के लिए संघर्ष भी कैसे कर सकता है? यह सीधी सी बात शंकरानंद के आर्य समाजी दिमाग में कैसे आ सकती थी?

पर, शंकरानंद के कवि-मन में यह बात आ गयी थी कि विद्या के बिना दुखों से मुक्ति नहीं होनी है। यथा–

विद्या बिन भइयो होन न भव से पार।
विद्या सब सम्पत्ति की दाता, देखो नजर पसार।।[26]

दरअसल, आर्य समाज शूद्र-शिक्षा के विरुद्ध नहीं था। उसने अपने उद्भव काल में अनेक दलित बस्तियों में ‘आर्य’ और ‘वैदिक’ नाम से पाठशालाएं खुलवायी थीं। ये पाठशालाएं खास तौर से वाल्मीकि सफाई कर्मचारियों की बस्तियों में थीं, जो प्राइमरी तथा मिडिल कक्षाओं तक थीं। आगे की शिक्षा खर्चीली थी, जिसे गरीबी के कारण अधिकतर दलितों के लिये ग्रहण करना मुश्किल होता था। आर्य समाज के इस दृष्टिकोण ने दलित वर्गों को प्रभावित किया था। यही प्रभाव हमें शंकरानंद के कविता-कर्म में दिखायी देता है। यथा–

देखो दयानंद स्वामी को जाने सब संसार।
विद्या बल से इस भारत को अच्छा गये सुधार।।
नानक बौद्ध कबीर आदि ने किया बहुत प्रचार।
विद्या बल से गांधी जी को कहते हैं अवतार।।[27]

दयानन्द स्वामी पर मुग्ध शंकरानंद गुरूनानक, बुद्ध, कबीर, और महात्मा गांधी से परिचित थे, पर डॉ. आंबेडकर से परिचित नहीं थे, जो उनके समय के अत्यंत प्रख्यात दलित नायक थे और जिनके संघर्ष के कारण दलित वर्गों को शासन-प्रशासन में प्रतिनिधित्व मिला। इसका कारण यह हो सकता है कि डॉ. आंबेडकर अपने प्रगतिशील और भौतिकवादी दृष्टिकोण के कारण आर्य समाजियों के लिये वेद-विरोधी और ईश्वर-विरोधी थे। इसलिए वे उनका विरोध करते थे और उनके स्थान पर दलित वर्गों में गांधी जी का प्रचार करते थे, क्योंकि उनकी आस्था वेदों में भी थी और ईश्वर में भी। संभवतः आर्य समाज के इसी प्रचार के कारण शंकरानंद भी डॉ.आंबेडकर के समर्थक न रहे हों।

स्वामी अछूतानंद ‘हरिहर’ ने दलित कविता को जहां पर छोड़ा था, वहां से उसे आगे बढ़ना था, व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष और सामाजिक परिवर्तन की चेतना को उसका प्रस्थान बिंदु बनना था। पर, आर्य समाज के सामंतवादी आदर्शों ने उसकी धारा को प्रतिक्रांति की ओर मोड़ दिया। आर्यसमाजी शंकरानंद ने दलित कविता को सामंतवादी और ब्राह्मणवादी प्रवृत्तियों से जोड़कर न सिर्फ उनके मूल स्वर को लुप्त कर दिया, बल्कि सामाजिक यथार्थ से भी उसका संबंध खत्म कर दिया। पूरे हिंदी समाज में नवजागरण हो रहा था; पर सामंतवाद, ब्राह्मणवाद और पूंजीवाद के प्रतिनिधि आर्यसमाजी कवि शंकरानंद दलित कविता में पुनरुत्थानवाद का स्वर भर रहे थे। वे दलितों को भक्त बना रहे थे और दलित कविता को पलायनवादी। तुच्छ राष्ट्रीयता, जातिवाद, जाति का मिथ्या गौरवगान और ईश्वरवाद इस कविता की मुख्य प्रवृत्ति थी।

संदर्भ :

[1] स्वामी अछूतानंद (जीवन चरित्र), लेखक व प्रकाशक: डाक्टर पं. मौजीलाल मौर्य, मुहल्ला छपट्टी, शहर मैनपुरी। प्रथम बार, 24/10/1956, पृष्ठ 11
[2] वही, पृष्ठ 11
[3] वही, पृष्ठ 12
[4] वही, पृष्ठ 12-13
[5] ‘शंकरानंद भजनावली’, स्वामी शंकरानंद व अयोध्यानाथ ब्रह्मचारी, प्रकाशक पदमसिंह बुकसेलर, प्रेमकुटीर, गनेशपुरी (मैनपुरी) संस्करण 1954, पृष्ठ 7
[6] वही
[7] वही, पृष्ठ 8
[8] वही, पृष्ठ 9
[9] वही
[10] वही, पृष्ठ 14
[11] वही
[12] वही, पृष्ठ 15
[13] वही
[14] वही, पृष्ठ 16
[15] वही, पृष्ठ 16-17
[16] वही, पृष्ठ 17
[17] वही, पृष्ठ 18
[18] वही
[19] वही, पृष्ठ 19
[20] वही, पृष्ठ 19-20
[21] वही, पृष्ठ 20
[22] वही, पृष्ठ 21
[23] वही, पृष्ठ 22
[24] वही, पृष्ठ 22-23
[25] वही, पृष्ठ 24
[26] वही, पृष्ठ 31
[27] वही, पृष्ठ 30

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

कंवल भारती

कंवल भारती (जन्म: फरवरी, 1953) प्रगतिशील आंबेडकरवादी चिंतक आज के सर्वाधिक चर्चित व सक्रिय लेखकों में से एक हैं। ‘दलित साहित्य की अवधारणा’, ‘स्वामी अछूतानंद हरिहर संचयिता’ आदि उनकी प्रमुख पुस्तकें हैं। उन्हें 1996 में डॉ. आंबेडकर राष्ट्रीय पुरस्कार तथा 2001 में भीमरत्न पुरस्कार प्राप्त हुआ था।

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