फारवर्ड प्रेस’ से मेरा पहला परिचय मार्च, 2012 में दयाल सिंह कॉलेज, नई दिल्ली के एक सेमिनार में नवल किशोर के माध्यम से हुआ। अप्रैल के अंक में उस सेमिनार की रिपोर्ट को देखते हुए मैंने पहली बार इस पत्रिका को पढ़ने का अवसर पाया। यह पत्रिका जिन विषयों को उठाती रही है, वे अब तक प्राय: अकथ्य रहे हैं। दलित, आदिवासी और ओबीसी के प्रश्नों को तथ्यात्मक तरीके से विश्लेषित करने की पद्धति का विकास इस पत्रिका ने किया है। पत्रकारिता के उपकरणों का भरपूर उपयोग करते हुए सामाजिक-राजनीतिक चेतना पैदा करने की लिखावट इस पत्रिका की जान है। डॉ. राजेन्द्र प्रसाद सिंह, प्रेम कुमार मणि, अश्विनी कुमार पंकज आदि के आलेख और प्रमोद रंजन के संपादकीयों में तथ्य-विचार-तर्क-विवेक का क्रम सीखने के अवसर प्रदान करता रहा है।
मैंने पढ़ने-लिखने वाले किसी व्यक्ति से इस पत्रिका की निंदा कभी नहीं सुनी। पिछड़ी जातियों की साहित्यिक भूमिका पर काम करने में मेरी रुचि रही, जिसकी पूर्ति यह पत्रिका बखूबी करती है। दलित-विमर्श के अतिवादों से अपनी असहमति को व्यक्त करने की कोशिश जब मैंने की, तो पाया कि इस तरह के आलेख छापने को प्राय: कोई तैयार नहीं है। 2012 में इस तरह का एक आलेख मैंने फॉरवर्ड प्रेस को भी भेजा था, लेकिन वह प्रकाशित नहीं हुआ। मुझे लगा कि फॉरवर्ड प्रेस दलित-विमर्श के अतिवादों के खिलाफ भी जाने में हिचक रहा है।
2015 के साहित्य वार्षिकी में उसी आलेख को प्रमोद रंजन ने अपनी तरह से संपादित करके ‘कबीर की जाति क्या थी’ शीर्षक से प्रकाशित किया, जिस पर तीखी प्रतिक्रिया कंवल भारती ने फेसबुक पर प्रकट की। उन्होंने आपत्ति प्रकट की थी कि इस आलेख को फारवर्ड प्रेस जैसी पत्रिका में छपना नहीं चाहिए था। अतिवाद, मनमानापन, अवसर से वंचित करना, प्रतिपक्ष के लिए अपमानजनक भाषा का प्रयोग करना आदि लोकतंत्र-विरोधी कदम हैं। बहुजन समाज के लोगों को समझना चाहिए कि लोकतंत्र ही उन्हें बेहतरी की तरफ ले जा रहा है। लोकतंत्र को कमजोर करने का अर्थ है बहुजन समाज को कमजोर करना। फॉरवर्ड प्रेस सबको अवसर प्रदान कर रहा है कि इस बृहत्तर समाज को बेहतर बनाने के बारे में सब लोग सोचें। डॉ. वीरभारत तलवार, डॉ. बजरंग बिहारी तिवारी, कृपाशंकर चौबे के विचार भी इस पत्रिका ने प्रकाशित किए हैं। यह खुलापन प्रशंसनीय है। ज्यादातर अस्मितामूलक पत्रिकाएं एकालाप का शिकार हैं, जहाँ प्रतिपक्ष के प्रति गाली के सिवा कुछ नहीं है। लोकतंत्र आलोचना से गतिशील होता है और गाली-गलौज से फासीवाद की संभावना पैदा करता है।
फॉरवर्ड प्रेस ने अकादमिक जगत को शोध-कार्य के लिए अनेक सामाजिक प्रश्न उपलब्ध कराए हैं। ये प्रश्न केवल वर्तमान से ही नहीं जुड़े है, बल्कि धर्म-संस्कृति के तालमेल से बनी परंपराओं को अतीत में जाकर वर्तमान का नया अर्थ प्रदान करना भी इसने सिखाया है, जैसे – महिषासुर शहादत दिवस की अवधारणा। पर्व-त्यौहार के बहाने हत्या के उत्सव मनाने की परंपरा के विरूद्ध विरोध की चेतना पैदा करना, इस पत्रिका की गतिशील भूमिका का प्रमाण है।
हिंदी की प्रचलित पत्रिकाओं में दलित मुद्दे तो छप रहे हैं, मगर पिछड़ी जातियों से जुड़े आलेखों को जगह नहीं मिल रही है। फॉरवर्ड प्रेस पत्रिका ने पिछड़ी जातियों से आनेवाले लेखकों-पाठकों को पहली बार इतने बड़े फ़लक पर अपनी बात कहने-पढ़ने का मौका दिया है। ऐसी कोशिशें पहले भी हुई थीं, मगर उनका पाठकीय दायरा छोटा होता था और उनमें भावपरक मिशनरी जोश की अधिकता होती थी। फॉरवर्ड प्रेस ने बौद्धिक धरातल पर स्तरीयता को बनाए रखा है। हिंदी और अंग्रेजी में एक साथ लेखों को रखना आसान काम नहीं है। लेखकों के लिए यह अतिरिक्त प्रसन्नता का विषय होता है कि उनके आलेख अनूदित रूप में भी प्रकाशित हो रहे हैं।
प्रिंट और इंटरनेट संस्करण के निर्णय व्यवस्थागत प्रश्नों से जुड़े हैं। आगे बढ़ने के लिए परिवर्तनों को अपनाना अच्छी बात है। कसौटी यही होनी चाहिए कि बदलाव से हम आगे बढ़ रहे हैं या नहीं! वेब पत्रिका में प्रकाशित आलेखों की सूचना फेसबुक पर पाठकों को प्रत्येक पोस्ट से टैग करके दी जा सकती है। हाई स्पीड इंटरनेट आज भी कम लोगों के पास है, इसलिए बार-बार वेबसाइट पर जाना सबके लिए आसान नहीं है। प्रत्येक वर्ष 24 पुस्तकों के प्रकाशन की योजना आह्लादकारी है। लेखकों की संख्या बढ़ाने की कोशिश जरूर होनी चाहिए।
(फॉरवर्ड प्रेस के अंतिम प्रिंट संस्करण, जून, 2016 में प्रकाशित)