सबसे पहले मेरे एक परिचित ने मुझे बताया कि राज जी एक पत्रिका आती है – फॉरवर्ड प्रेस। क्या आप इसके बारे में कुछ जानते हैं? मेरे द्वारा अनभिज्ञता प्रकट करने पर उन्होंने ही थोड़ी जानकारी दी कि सुना है कि ये ओबीसी कि पत्रिका है और हिंदी-अंग्रेजी दोनों में निकलती है। शीघ्र ही एक मित्र से फॉरवर्ड प्रेस का एक अंक मिला। गेट अप से पत्रिका इंडिया टुडे जैसी लगी। मैंने पहली बार ऐसी पत्रिका देखी, जिसमे हिंदी-अंग्रेजी संस्करण आमने-सामने थे। एकबार में ही मैं अंक को पूरा पढ़ गया। पहली बार में ही पत्रिका ने इतना प्रभावित किया कि मैं उसका मेंबर बन गया और अपने मित्रों-परिचितों को भी इसका सदस्य बनवाया।
मेरे एक परिचित सुधीर अग्रवाल भी थे, उनका प्रिंटिंग प्रेस का कारोबार है। मैं उन्हें भी फॉरवर्ड प्रेस पढऩे को देता था। उनका कहना था कि उन्हें तो इतना समय नहीं मिलता कि पत्रिका पूरी पढ़ें पर आप रख जाया कीजिए। फुर्सत के समय में वे देख लिया करेंगे, स्टाफ भी पढ़ लिया करेगा। मैं अंक उन्हें देता रहा। दरअसल मैंने फॉरवर्ड प्रेस की अपनी ऑफिस में भी मेंबरशिप दिलवा रखा थी। सो अपनी प्रति मैं उनको दे दिया करता था। एक दिन उन्होंने अपनी नाराजगी व्यक्त करते हुए कहा कि फॉरवर्ड प्रेस मुझे न दिया करें। मैंने कारण जानना चाह तो वे झल्लाकर बोले – ये कोई पत्रिका है, इसने तो हमारे देवी-देवताओं की ऐसी-तैसी कर रखी है। मैंने उन्हें तर्क देकर अपनी बात समझाने की कोशिश की, पर वे समझने को राजी नहीं हुए, उनकी धार्मिक आस्था आहत हुई थी। उसके बाद से उनसे मेरे संबंध भी सामान्य नहीं रहे। मैंने सोचा सदियों से जारी यथास्थिति टूटेगी तो उन्हें दर्द तो होगा ही, लेकिन ये दर्द जरूरी भी है।
फॉरवर्ड प्रेस में सच कहने का साहस और पारदर्शिता या निष्पक्षता ऐसी बातें लगीं तो अन्य पत्रिकायों से उसे अलग करती हैं। फॉरवर्ड प्रेस ने मुझे इस रूप में प्रभावित किया कि उसने मेरे विचारों को नई जमीन दी। मुझे हर अंक में कोई न कोई ऐसा लेख या कॉलम मिल जाता था, जो मेरे विचारों को नई उर्जा देता था। महिषासुर प्रसंग ने तो मेरी आँखें ही खोल दी। दरअसल मैं किशोरावस्था तक कोलकाता (तब कलकत्ता) में रहा था, तो महिषासुर मेरी नजर में एक विलेन था। लेकिन फॉरवर्ड प्रेस के माध्यम से जाना कि हम अपने ही वीर योद्धाओं को, अपने ही पूर्वजों को अपना दुश्मन समझते हैं और अपने दुश्मनों को अपना आराध्य। ये मेरे बौधिक कार्यकलापों में फॉरवर्ड प्रेस का सकारात्मक हस्तक्षेप रहा। इसमें मैं प्रेमकुमार मणि के लेख और दादू की सलाह जरूर पढ़ता था। ये मेरे प्रिय लेखक थे। फॉरवर्ड प्रेस ने हमारे समाज को न केवल जागरूक किया, बल्कि नए विचारों की जमीन तैयार की।
(फॉरवर्ड प्रेस के अंतिम प्रिंट संस्करण, जून, 2016 में प्रकाशित)