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सार्थक पत्रकारिता का लिटमस टेस्ट

आम वामपंथी पत्रिकाओं की बनिस्बत इस पत्रिका ने सिद्धांत से ज्यादा जोर प्रयोग और व्यवहार पर दिया। इसलिए जिस तरह फारॅवर्ड प्रेस ने जाति आधारित जनगणना, सनातन पंथी धार्मिक और सांस्कृतिक फासिज़्म, स्त्रीवाद और स्त्री शिक्षा, अंबेडकर का सामाजिक और आर्थिक चिंतन, बहुजनों पर हो रहे हमले, गौ हत्या और सोनी सोरी पर व्यवहारिक तरीके से विचार किया, वह मेनस्ट्रीम पत्रकारिता से बहुत अलग और सार्थक रहा है

1-page-001देश में नई आर्थिक नीति लागू होने के बाद मीडिया और पत्रकारिता पर बाजार को पूरी तरह से हावी होते देखा गया। बाजार के मकडज़ाल में फंसी पत्रकारिता को ध्वस्त और मूल्यों से विचलित होते हुए देखना अत्यंत दुखद रहा। इस संदर्भ में रही-सही कसर मीडिया में आए अथाह पूंजी प्रवाह ने पूरी कर दी। ऐसे में जनपक्षधरता और प्रतिबद्धता को बनाए रखना मुश्किल होता गया, लेकिन ऐसे ही विपरीत माहौल में कुछ पत्रकार और कुछ पत्रिकाएं ऐसी भी रहीं, जो अविचल अपनी आवाज बुलंद करती रहीं। फारवर्ड प्रेस एक ऐसी ही पत्रिका है, जिसने मुखर रूप से कमजोर आवाजों का साथ दिया और प्रांसगिक विषयों पर बिना लाग लपेट न सिर्फ़  रिपोर्टिंग की, बल्कि विश्लेषणात्मक आलेख व अग्रलेख भी प्रकाशित किए। ज़ाहिर है इसका खामियाजा भी इस पत्रिका के संपादक और पत्रकारों को भुगतना पड़ा। विकास और अभिव्यक्ति की बात करने वाले इस दौर में पत्रिका के दफ्तर में छापे मारे गए और प्रतियां जब्त की गई। जेएनयू सहित पूरे देश में फुले-आंबेडकर मूलनिवासी विचारधारा की जमीन बनाने में इस पत्रिका ने ऐतिहासिक भूमिका का निभाई है।

अब, जब फॉरवर्ड प्रेस का प्रिंट संस्करण बंद होने जा रहा है, महसूस कर पा रही हूं कि हम क्या खोने जा रहे हैं। पिछले छह महीने के अंक मेरे सामने हैं। इसी पत्रिका ने जाति जनगणना के आंकड़ों पर ज़ोर दिया कि आखिऱ हमारे देश में किस जाति की कितनी आबादी है और ऊंची पोस्ट पर कौन लोग आसीन हैं, इसका खुलासा होना कितना ज़रूरी है (सितंबर 2015), महोबा में महिषासुर और त्योहारों के बहुजन संदर्भ (अक्टूबर 2015), बीफ़ फेस्टिवल पर बवाल के संदर्भ में बताया कि वेदों में अश्वमेध यज्ञ के दौरान गाय की बलि के बाद ब्राह्मणों को उस गोमांस का हिस्सा दिया जाता था (नवंबर 2015), भगाणा के दलित पिछड़े वर्ग ने कैसे आजिज़ आकर इस्लाम कबूला-इस तथ्य से रूबरू करवाया (सितंबर 2015), आंबेडकर का बंधुत्व बनाम आरएसएस की एकता (सितंबर 2015), महिला आरक्षण के अवरोध (मार्च 2016), होलिका दहन का नकार (अप्रैल 2016) ऐसे अनगिनत ज़रूरी मुद्दों पर लेखकों के बेबाक आलेख प्रस्तुत किए।

शुुरुआत से ही फ़ारॅवर्ड प्रेस का स्टैंड एकदम साफ रहा। इसने ओबीसी, एससी, एसटी और अल्पसंख्यकों को एक मंच पर लाकर उन्हें विमर्श के दायरे में शामिल किया। इसलिए जब-जब मूलनिवासी या फुले-आंबेडकर विचार धारा पर हमला किया गया, तब-तब इसने फासीवादी और वर्चस्ववादी ताकतों के खिलाफ  वैचारिक मोर्चा खोला। इस पत्रिका के सभी अंक दस्तावेजी हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि इसका कारवां बढ़ता गया। आम वामपंथी पत्रिकाओं की बनिस्बत इस पत्रिका ने सिद्धांत से ज्यादा जोर प्रयोग और व्यवहार पर दिया। इसलिए जिस तरह फ़ारॅवर्ड प्रेस ने जाति आधारित जनगणना, सनातन पंथी धार्मिक और सांस्कृतिक फासिज्म, स्त्रीवाद और स्त्री शिक्षा, आंबेडकर का सामाजिक और आर्थिक चिंतन, बहुजनों पर हो रहे हमले, गौ हत्या और सोनी सोरी पर व्यवहारिक तरीके से विचार किया, वह मेनस्ट्रीम पत्रकारिता से बहुत अलग और सार्थक रहा है।

फारवर्ड प्रेस का लक्ष्य तात्कालिक राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक पक्षों को बेहतर तरीके से समझ कर मूलनिवासी चिंतन को सार्थक दिशा में ले जाना था। मूलनिवासी चिंतन देशी चिंतन है। इस पर बात करने का अर्थ है, इस देश की मूल समस्या पर बात करना। फ़ॉरवर्ड प्रेस एक लिटमस टेस्ट की तरह है। प्रकारांतर से इसने यह दिखाया कि देश को समझने के लिए इस चिंतन को समझना ही होगा, साथ ही युवा और वैकल्पिक मीडिया से जुड़े लोगों की आवाज को भी सुनना जरूरी है। जिस तरह से युवा पीढ़ी ने इसका साथ दिया वह अपने आप में एक मिसाल है।

उम्मीद है कि इसके वेब संस्करण में भी वही ताब और वही आब होगी, जिसकी नुमाइंदिगी अब तक इससे जुड़े लोगों ने की है।

(फॉरवर्ड प्रेस के अंतिम प्रिंट संस्करण, जून, 2016 में प्रकाशित)

लेखक के बारे में

सुधा अरोड़ा

चर्चित कथाकार सुधा अरोड़ा स्त्री आन्दोलनों में भी सक्रिय रही हैं। अब तक उनके बारह कहानी संकलन तथा एक उपन्यास और वैचारिक लेखों की दो किताब। 'आम औरत : जि़ंदा सवाल’ और 'एक औरत की नोटबुक’ प्रकाशित हो चुकी हैं। सुधा जी की कहानियां भारतीय भाषाओं के अतिरिक्त अंग्रेजी, फ्रेंच, पोलिश, चेक, जापानी, डच, जर्मन, इतालवी, ताजिकी भाषाओं में अनूदित।

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