h n

मेरे विचारों को मिली नई दिशा

आज मैं इतिहास और महापुरूषों का मूल्यांकन इस आधार पर करता हूं कि क्या/कौन बहुजनों के पक्ष में हैं और क्या/कौन विरोध में? क्या/कौन ब्राह्मणवाद के विरोध में हैं और क्या/कौन उसके पक्ष में? मेरा यह नया दृष्टिकोण बना फारवर्ड प्रेस के अंकों को पढ़ने से

downloadमैं वामपंथी राजनीति में सक्रिय रहा हूं। इतिहास को वर्ग-संघर्ष के नजरिया से देखा और समझा है। 2011 से मैंने फुले, आंबेडकर और जगदेव प्रसाद जैसे ब्राह्मणवाद विरोधी महापुरूषों की रचनाओं को पढ़ने और समझने का प्रयास किया। इसी दौरान 2014 के किसी महीने में साहित्यकार प्रेमकुमार मणि ने मुझे फारवर्ड प्रेस का एक अंक दिया। मैंने इस द्विभाषी पत्रिका का कभी नाम भी नहीं सुना था। मुझे पत्रिका बहुत अच्छी और विचारोत्तेजक लगी। फिर तो मैं उसका नियमित पाठक ही बन गया।

फारवर्ड प्रेस का हर अंक मुझे पठनीय और संग्रहणीय लगा। खासकर महिषासुर से संबंधित अंकों ने मुझे बहुत प्रभावित किया। प्रमोद रंजन जी द्वारा संपादित महिषासुर पुस्तिका ने भी। अब तक मैं इतिहास का अध्ययन वर्ग-संघर्ष के नजरिया से करता था, लेकिन, फारवर्ड प्रेस पढ़ने के बाद इतिहास और महापुरूषों का मूल्यांकन मैं भिन्न नजरिया से करने लगा।

हमारे देश की दो संस्कृति और दो समाज-व्यवस्था रही हैं – श्रमण संस्कृति और आर्य/ब्राह्मणवादी संस्कृति और इन्हीं दो संस्कृतियों के अनुरूप दो समाज- व्यवस्था भी रही है। इन दो संस्कृतियों के बीच प्राचीन काल से ही संघर्ष जारी रहा है। अन्तत: ब्राह्मणवादी संस्कृति विजयी हुई और उसी के अनुरूप सामाजिक व्यवस्था भी कायम हुई। श्रमण संस्कृति मूलनिवासियों की संस्कृति है, बहुजनों की संस्कृति है। ब्राह्मणवादी संस्कृति आर्यों की संस्कृति है, विदेशी आक्रमणकारियों की संस्कृति है। 19वीं सदी में महात्मा फुले द्वारा संचालित ब्राह्मणवाद विरोधी सांस्कृतिक आंदोलन की धारा आज दिन-प्रतिदिन मजबूत होती जा रही है। इस धारा को विकसित और मजबूत करने में फारवर्ड प्रेस और उसके लेखकों की बहुत ही महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है।

फारवर्ड प्रेस के अंकों को पढ़ने से मुझे इन दो संस्कृतियों के फर्क को समझने में मदद मिली। फुले-आंबेडकर को भी समझने में सक्षम हुआ। और, सबसे नई बात, मिथकों में भी इतिहास तलाशने की प्रेरणा मिली। मेरी यह समझ बनी कि मिथक इतिहास नहीं होता है। लेकिन, इतिहास को प्रतिबिंबित करता है; ठीक उसी तरह, जिस तरह साहित्य समाज को प्रतिबिंबित करता है।

आज मैं इतिहास और महापुरूषों का मूल्यांकन इस आधार पर करता हूं कि क्या/कौन बहुजनों के पक्ष में है और क्या/कौन विरोध में? क्या/कौन ब्राह्मणवाद के विरोध में है और क्या/कौन उसके पक्ष में? मेरा यह नया दृष्टिकोण बना फारवर्ड प्रेस के अंकों को पढ़ने से। भारत का इतिहास ब्राह्मणवादी नजरिया से लिखा गया है या फिर वामपंथी नजरिए से। जरूरत है, भारतीय इतिहास को, श्रमण संस्कृति और ब्राह्मणवादी संस्कृति के बीच संघर्ष के दृष्टिकोण से देखने, समझने और लिखने की।

(फॉरवर्ड प्रेस के अंतिम प्रिंट संस्करण, जून, 2016 में प्रकाशित)

लेखक के बारे में

एनके नन्दा

बिहार के प्रमुख समाजकर्मियों में गिने जाने वाले एनके नन्दा सीपीआई (एमएल) से बिहार विधानसभा के सदस्य रहे हैं

संबंधित आलेख

सामाजिक आंदोलन में भाव, निभाव, एवं भावनाओं का संयोजन थे कांशीराम
जब तक आपको यह एहसास नहीं होगा कि आप संरचना में किस हाशिये से आते हैं, आप उस व्यवस्था के खिलाफ आवाज़ नहीं उठा...
दलित कविता में प्रतिक्रांति का स्वर
उत्तर भारत में दलित कविता के क्षेत्र में शून्यता की स्थिति तब भी नहीं थी, जब डॉ. आंबेडकर का आंदोलन चल रहा था। उस...
पुनर्पाठ : सिंधु घाटी बोल उठी
डॉ. सोहनपाल सुमनाक्षर का यह काव्य संकलन 1990 में प्रकाशित हुआ। इसकी विचारोत्तेजक भूमिका डॉ. धर्मवीर ने लिखी थी, जिसमें उन्होंने कहा था कि...
कबीर पर एक महत्वपूर्ण पुस्तक 
कबीर पूर्वी उत्तर प्रदेश के संत कबीरनगर के जनजीवन में रच-बस गए हैं। अकसर सुबह-सुबह गांव कहीं दूर से आती हुई कबीरा की आवाज़...
पुस्तक समीक्षा : स्त्री के मुक्त होने की तहरीरें (अंतिम कड़ी)
आधुनिक हिंदी कविता के पहले चरण के सभी कवि ऐसे ही स्वतंत्र-संपन्न समाज के लोग थे, जिन्हें दलितों, औरतों और शोषितों के दुख-दर्द से...