लेख श्रृंखला :जाति का दंश और मुक्ति की परियोजना
एक सामाजिक व्यवस्था के रूप में भारत में जाति सिर्फ अपना रूप बदल रही है। निर्जात (बिना जाति का) होने की कोई प्रकिया कहीं से चलती नहीं दिखती। आप किसी के बारे में कह सकते हैं कि वह आधुनिक है, उत्तर आधुनिक है- लेकिन यह नहीं कह सकते कि उसकी कोई जाति नहीं है! यह एक भयावह त्रासदी है। क्या हो जाति से मुक्ति की परियोजना? एक लेखक, एक समाजकर्मी कैसे करे जाति से संघर्ष? इन्हीं सवालों पर केन्द्रित हैं फॉरवर्ड प्रेस की लेख श्रृंखला “जाति का दंश और मुक्ति की परियोजना”। इसमें आज पढें राज वाल्मीकि को – संपादक।
जैसे कार्ल मार्क्स ने वर्गविहीन समाज की अवधारणा दी थी इसी तरह डा. भीमराव आंबेडकर ने भी जातिविहीन समाज का सपना देखा था। पर वे यह भी जानते थे कि जाति की जड़ें इतनी गहरी हैं कि इन्हें उखाड़ फेंकना आसान नहीं है। उन्हें भी यह लगता था कि आप चाहे जिस राह पर चलें जाति का प्रेत हर राह पर आपका रास्ता रोके खड़ा मिल जाएगा। प्रोफेसर सतीश पावड़े का जाति व्यवस्था के बारे में कहना है कि- ‘‘यह वर्चस्व की लड़ाई है। चातुरवर्ण उसका आधार है। धार्मिक, सामाजिक और सांस्कृतिक गुलामगीरी की यह मानसिक धारणा है। दलित, बहुजन भी अपने से छोटी जातियों के साथ यही करते हैं, जो ब्राह्मण उनके साथ करते हैं। सबसे पहले उन्हें मुक्त होना होगा। यह कठिन कार्य है…’’ दरअसल इस ब्राह्मणवादी व्यवस्था को कुछ इस तरह से निर्धारित किया गया है कि यह हमारे मस्तिष्क में ‘बाइडिफाल्ट’ है और स्वतः रिसाईकिल और रिचार्ज होती रहती है। पर सबसे पहले हमें यह सकारात्मक सोच रखनी होगी कि जाति से मुक्ति संभव है।
ऐसा नहीं है कि हम ही जाति से मुक्ति की पहल कर रहे हैं। इससे पहले भी जाति तोड़ो मण्डल आदि बनाए गए और जाति को तोड़ने की पहल की गई। कुछ साधु संतों ने भी जाति को निरर्थक बताने के प्रयास किए। कुछ पंक्तियां इसका समर्थन करती हैं, जैसे – ‘जाति न पूछो साधु की पूछ लीजिए ज्ञान।’, ‘जाति-पांति पूछे नहीं कोई। हरि को भजे सो हरि का होई।’
प्रमोद रंजन कहते हैं – राजनीति में, विधायिका में दलित-पिछडे- आदिवासियों की संख्या बढी है, लेकिन दूसरी ओर राज्य की शक्ति ही क्षीण होती गयी है। यानी, राजनीति आज उस तरह से सभी तालों की चाबी नहीं रह गयी। ‘मास्टर की’ अब कॉरपोरेट घरानों के पास है, जहां वंचित तबकों का प्रायः कोई प्रतिनिधित्व नहीं है। इसी तरह सरकारी नौकरियों, कार्यपालिका में वंचित समुदाय के लिए आरक्षण की व्यवस्था हुई तो ‘उदारीकरण’ की नीतियों के नाम पर नौकरियों को ही कम कर दिया गया। शिक्षा में आरक्षण की व्यवस्था हुई तो सरकारी शिक्षण संस्थानों को विकलांग बनाने की मुहिम ही चल पडी है। जिनके पास धन बल है, वे अपने बच्चों को महंगे निजी शिक्षण संस्थानों तथा विदेश भेज रहे हैं।’
वर्तमान में जो राजनीति हो रही है इससे तो जातिवाद और मजबूत हो रहा है। राजनीतिक दल जाति के आधार पर वोट बैंक की राजनीति करते हैं। वे जानते हैं कि जब तक जाति है तब तक उनका वोट बैंक है। इसलिए वे जाति समाप्ति की बात नहीं करते। यही वजह है कि जातियां बची हुई हैं क्योंकि कथित ऊंची कही जाने वाली जाति अपनी चैधराहट कायम रखने के लिए, अपने निजीहित के लिए, जाति को कायम रखना चाहती है। और उनके नेता अपने राजनीतिक लाभ के लिए।
मैंने भी एक लेखक होने के नाते जाति तोड़ने के प्रयास अपने लेखन के माध्यम से किए हैं। मैंने कुछ कहानियां लिखी हैं, जो जाति को समाप्त करने की बात करती हैं। जिनमें ‘‘इस समय में’’, ‘‘खुशबू अचानक’’ तथा ‘‘समय का सच’’ विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।
जाति व्यवस्था समय के साथ अपना रूप बदल लेती है। पहले जहां जातिवाद प्रत्यक्ष था। खुलेआम छूआछूत की जाती थी। सविधान में अस्पृश्यता का उन्मूलन होने पर समाज व्यवस्था में खासकर शहरों में जातिगत भेदभाव खुलेआम न होकर परोक्ष रूप से किया जाता है। जैसे कि यदि कोई नौकरी आरक्षित वर्ग के लिए है। और आरक्षित वर्ग में योग्य व्यक्ति है तो भी उसे न लेकर ‘सुईटेबल कैंडिडेट नोट फाउंड’ लिखकर उसे नौकरी से वंचित कर दिया जाता है। कहने का तात्पर्य यह है कि जातिवाद के तहत अनुसूचित जाति/जनजाति/ओबीसी के आगे बढ़ने के रास्ते में अवरोध उत्पन्न कर दिए जाते हैं। ऐसे में प्रश्न यह है कि ऐसे क्या कदम उठाए जाएं कि हमें जाति से मुक्ति मिल जाए?
बाबा साहेब ने अंतरजातीय विवाह को जाति मुक्ति का एक कारक बताया था। पर वर्तमान स्थिति यह है कि अधिकांश अंतरजातीय विवाह प्रेम विवाह होते हैं। अलग-अलग जाति में विवाह लोग स्वेच्छा से नहीं करना चाहते। कभी-कभी ऐसा भी देखने को मिलता है कि यदि लड़का अनुसूचित/जनजाति/ओबीसी से है किन्तु उच्च पद पर है, समाज में प्रतिष्ठा है, अच्छी कमाई है तो लोग स्वेच्छा से भी अपनी पुत्री का विवाह उस लड़के के साथ कर देते हैं। वह भी कोर्ट मैरिज आदि के माध्यम से। सामाजिक रीति-रिवाज से नहीं। ऐसे उदाहरण भी बहुत ही कम होते हैं।
अंतरजातीय विवाह होते हैं तो जाति टूटने में मदद मिलती है। लोगों की मानसिकता ऐसी हो कि शादी-विवाह करते समय अपने पुत्र-पुत्री के लिए योग्य वर या वधू देखें – उसकी जाति नहीं।
मेरे विचार से निम्नलिखित उपायों से जातियां टूट सकती हैं:
- अनुसूचित जाति/जनजाति/ओबीसी के लोग आर्थिक रूप से समृद्ध हो जाते हैं तो जाति के बंधन कुछ ढीले हो सकते हैं।
समुचित शिक्षा व्यवस्था जाति तोड़ने में अहम भूमिका निभा सकती है। बच्चों को बचपन से लेकर युवा होने तक निरन्तर उनके पाठ्यक्रम में जाति तोड़ने के बारे में बताया जाये या जाति व्यवस्था के टूटने से देश का विकास तेजी से होगा, यह सिखाया जाए। उन्हें यह बताया जाए कि जाति व्यवस्था के कारण लोगों के साथ कितना भेदभाव, अन्याय एवं उत्पीड़न होता है। मानव अधिकारों का हनन होता है। लोगों का आत्म सम्मान आहत होता है। मानवीय गरिमा नष्ट होती है, जबकि सभी इन्सानों को सम्मान के साथ जीने का हक है। यह सब उनके पाठ्यक्रमों में होगा तो निश्चय ही हमारी युवा पीढ़ी की मानसिकता बदलेगी व जाति उन्मूलन में वे सहायक होंगे।
- जाति के नाम पर भेदभाव करने वाले कथित उच्च जाति के लोगों और जाति के नाम पर शोषित-पीड़ित लोगों के बीच संवाद स्थापित हों। संवाद की गुंजाईश तभी बन सकती है, जब हम एक दूसरे को थोड़ा स्पेस दें। एक दूसरे से नफरत न करें। एक दूसरे को अपना दुश्मन न समझें। इसके लिए लगातार संवाद बनाने की जरूरत है। इसके लिए पहल दोनों ओर से की जाने की जरूरत है। जो लोग कथित उच्च जाति के दम्भ और रूतबे को बरकरार रखना चाहते हैं। उन्हें अपनी सोच बदल कर मानवतावादी दृष्टिकोण अपनाना होगा। उन्हें दूसरी जातियों से रोटी-बेटी का रिश्ता कायम करना होगा।
- अवरोधों को तोड़ें। हमारी समाज व्यवस्था जन्म से ही हमारे मस्तिष्क में बड़ी जाति या छोटी जाति के प्रति पूर्वग्रह और घृणा अथवा एक को श्रेष्ठ और दूसरे को हीन होने की भावना भर देती है। और हम जाति के आधार पर चाहे- अनचाहे भेदभावकारी मानसिकता बना लेते हैं। इसलिए आवश्यकता यह है कि हम जाति के आधार पर एक-दूसरे से भेदभाव करने की बजाय सदियों से चली आ रही इन बेकार की सड़ी-गली परम्पराओं को तोड़ें जो जाति को समाप्त करने में अवरोधक बनी हुई हैं।
- युवाओं की नई सोच कि जाति बेकार की चीज है और सिर्फ इसलिए कि ये हमें हमारे पूर्वजों से विरासत में मिली है हमें नहीं अपनानी चाहिए। जाति मुक्ति में सहायक है।
- सरकार व्यक्ति के नाम के बाद जुड़े जाति सूचक शब्दों को न लगाने का कानून बनाए और सख्ती से उसका पालन करे। विदेशों में जातियां नहीं होतीं। उनके आगे जाति सूचक टाइटिल नहीं होते। तब भी उनका काम चलता ही है।
- ऐसी फिल्में बनाई जानी चाहिए जो जाति को महत्वहीन व बेकार की चीज समझने का संदेश देती हों।
- ऐसे टी.वी. सीरियल बनाए जाने चाहिए जो जाति की निरर्थकता साबित करते हों।
- सरकार प्रचार माध्यमों, जैसे टी.वी., रेडियो, अखबारों, होर्डिगों, गाड़ियों पर लिखबा कर, बैनर लगवा कर, दीवारों पर लिखबा कर, पर्चे छपवाकर इस बात का प्रचार-प्रसार करे कि जाति एक सामाजिक बुराई है।
- इसके साथ ही जातिगत भेदभाव के मामलों को वरीयता देते हुए फास्ट ट्रैक कोर्ट के माध्यम से 15 दिन के बीच फैसला सुना कर भेदभाव करने वाले को कड़ी-से-कड़ी सजा का प्रावधान हो।
जाति से मुक्ति संभव है पर इसके लिए लगातार संघर्ष करने की जरूरत है। आंदोलन चलाने की जरूरत है। धैर्य और संयम की जरूरत है। क्योंकि इतने प्रयत्नों के बावजूद भी जाते-जाते ही जाएगी जाति।
फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्त बहुजन मुद्दों की पुस्तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्य, सस्कृति व सामाजिक-राजनीति की व्यापक समस्याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +919968527911, ईमेल : info@forwardmagazine.in
dalito ke bich aarthik rup se sampan logo ko aage aana chahiye jatpant ko chhodkar ek dusre ke sath sadi kare.
सर जी आप ने बहुत सराहनीय आलेख लिखा है साथ ही लिखा है कि सरकार जाति हटाए किंतु आप स्वयं जाति लगाकर लेखन कर रहे हैं । और बार बार हम सब बाबा साहेब डाॅ भीमराव जी को अम्बेडकर के नाम से संबोधित करते हुए जाति विहीन समाज के निर्माण की नींव रख रहें हैं ।
एक धर्म हो “मानव धर्म”
एक जाति हो “मानव जाति”
देश की न्याय व्यवस्था को एक ऐसे कानून लाने चाहिए जिसमे general/st/st/obc की वर्ग को हटाकर एक वर्गविहीन देश बनाये, सभी को समानता के सूत्र में बांधे सभी के आगे जातिसूचक शब्द को हटाकर अविवाहित अपने माता या पिता का नाम लिखे। पत्नी अपने पति का तथा पति अपने पत्नी का नाम लगाए। इससे धीरे-धीरे समाज से जाति धूमिल होता चला जायेगा।
समाज में विवाह लड़का-लड़की अपनी पसंद से जीवन-साथी का चुनाव करे, इसका आधार गुण, कर्म, स्वाभाव हो। माता-पिता मार्गदर्शन करे, समाज का सहयोग एवं आशीर्वाद मिले। भागकर विवाह करने की परंपरा का अंत हो. जो ऐसा करे उसे दण्डित किया जाये।
विवाह में सामाजिक बहिष्कार न हो, किन्तु यदि तलाक की बात आये तो समाज उस दांपत्य को समझाए उन्हें अपनी गलती सुधारकर गृहस्थ जीवन को आगे बढ़ाने की प्रेरणा दे और जीवनभर निभाए, यदि फिर भी न माने तो उसे दण्डित करे।
विवाह को व्यक्तिगत, पारिवारिक तथा सामाजिक जीवन जीने के लिए पवित्र बंधन समझकर निभाया जाये। उसे एक पवित्र धर्मकृत्य माना जाये, वैसे भी पत्नी को धर्म पत्नी कहा जाता है। जो इस बंधन को तोड़े उसे अधर्मी समझा जाये। जो तलाक ले, उसे दोबारा विवाह की अनुमति न हो। उसे जीवनभर अकेला रहना पड़े। इससे बहुत सोच-समझकर गुण-कर्म-स्वाभाव के अनुसार वर-वधु का चुनाव होंगे और जीवनभर विवाहरूपी पवित्र बंधन को निभाएंगे।
दोबारा विवाह की अनुमति उन्हें हो जिसका किसी दुर्घटनावश पति या पत्नी की मृत्यु हो गयी हो। उनकी मृत्यु की पूरी जांच-पड़ताल होने के दो वर्ष बाद ही उन्हें विवाह की अनुमति हो।
Bilkul shi h likha Sir nd I’m agree with u. Actually logon ki soch ko bdalna hi bda mushkil h qki koi soch ko bdlna hi ni chahta. Cast ko lekar honor killing hoti h chhoti cast walon ka apman kiya jata h iske liye saja ka bhi pravdhan hona chahiye taki Unn logon ko sabak bhi mile Jo iss tarah se cast ko lekar bhedbhav krte hain..
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Bilkul shi h likha Sir nd I’m agree with u. Actually logon ki soch ko bdalna hi bda mushkil h qki koi soch ko bdlna hi ni chahta. Cast ko lekar honor killing hoti h chhoti cast walon ka apman kiya jata h iske liye saja ka bhi pravdhan hona chahiye taki Unn logon ko sabak bhi mile Jo iss tarah se cast ko lekar bhedbhav krte hain..
मनुवादी मानसिकता के बराहमणों की सरकारों से ऐसी उममीदें तो नहीं की जा सकती हैं कि वे देश में कानून बनाये कि कोई भी वयकति अपने नाम के साथ जाति सूचक शब्द नहीं लिखेगा, जो लिखेगा उसे कानून के तहत सजा दी जायेगी (जब कानून बन जाए) और सजा भी आर्थिक न होकर, जेल की सलांखों के पीछे की दी जायेगी. यदि भविष्य में मानवता वादी सोच के इंसानों चाहे कुछ बराहमण (जो मनुवादी मानसिकता के न हों) हों और बहुजन समाज के लोगों की सरकारों का निर्माण होगा तो, ऐसा कानून बनाया जाना संभव हो सकता है. इसके लिए पहली शर्त यह है कि ये मानवता वादी सोच के लोग पूरे भारत में एक मंच पर आएं, एक झंडे के नीचे आएं और मिलकर चुनाव लडे एक ही पार्टी से, ये टेढ़ी खीर जरूर है लेकिन संभव है. जहां भी अच्छे इंसान पर जुलम हो (जैसे डा. कफील खान पर हो रहा है) सभी मानवता वादी लोगों को उसका साथ देने के लिए आगे आना पड़ेगा, वरना जुर्म करने वाले का साहस बढेगा और वो और जुर्म करेगा. सबसे सरल और छोटा त्वरित हल ये है कि पुलिस संविधान को मानते हुए अपने सही करतवय का पालन करे अन्याय करने वाले के खिलाफ कार्रवाई करे, सजा दिलवाए, नेता, मंत्री, मुख्य हो या प्रधान हो उसकी बात नहीं मान कर, कानून को माने, जैसा अमेरिका की पुलिस ने लायड (अश्वेत नागरिक) के मामले में अमरीकी राष्ट्रपति को भी मुंह बंद रखने के लिए कह दिया था. सही और स्थायी हल कानून बनाकर, किसी भी भारतीय नागरिक के अपने नाम के साथ जाति सूचक शब्द लिखना बंद कराना ही है. जय संविधान जय संविधान निर्माता.
भारत में जाति एक घातक अदृश्य हथियार है।जो देश के विकास में बाधक है जो कैन्सर जैसी बिमारी से घातक है। लोकतांत्रिक देश में एक कानून बनाया जाय कि व्यक्ति अपनी जाति बिरादरी में शादी विवाह करने पर दण्ड का भागीदार होगा। जिस तरह उच्च वर्णिय समाज मे जाति आधारित आरक्षण को समाप्त करनें का परिचर्चा तेजी से चल रहा है मनुवादी मानसिकता से ग्रसित व्यक्ति मानवता का गला घोटने के लिए आतुर है। आरक्षण जाति आधारित न होकर आर्थिक आधार होने का वकालत करता है।मनुवाद से ग्रसित न्यायपालिका में बैठे न्यायधीश भी आए दिन अपने न्यायिक शक्ति का दुरूपयोग कर निर्णय देते दिख रहे है ।आर्थिक आरक्षण का पुरजोर समर्थन करते हैं ।क्यो न जाति आधारित शादी विवाह का विरोध कर आर्थिक आधार पर विवाह करने का कानून पारित किया जाय । न्यायपालिका मे जन्म आधारित आरक्षण लेकर बैठे न्यायधीश अपना निर्णय सुनाए। तो जाति वाद की खात्मा का एक छोटा सा प्रयास हो सकता है