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दलित होस्टलों की बदहाली की अनंत कथा

मैं अंगूठे काटने पर एतराज करता हूं तो वे अंगूठे जैसी नयी चीजें तैयार कर लेते हैं मानो वे अंगूठा काटे बिना जी ही नहीं सकते। पैंतीस वर्षों से ऐसे अंगूठों की माला से सजे मंचों को देख रहा हूं। लोकतंत्र में हिंसा का डंका बजते देख रहा हूं

पैंतीस साल हो गए मीडिय़ा में रिपोर्टिंग करते हुए। सोचता हूं कि क्या एक भी ऐसा विषय है, जिसकी रिपोर्टिंग करने से मेरा पीछा छूट गया हो? मेरी बेटी भी क्या यही रिपोर्टिंग करेगी कि एकलव्य के नये अंगूठे का क्या नाम है?

1980 के दशक के शुरूआती वर्षों में मेरे शहर के हरिजन हॉस्टल में मेरा अक्सर जाना होता था। वहां आसपास के गांवों के कई लड़के रहते थे। सरकार ने हॉस्टल के लिए एक खंडहरनुमा इमारत किराये पर ले रखी थी। लड़के चूल्हा जलाते और खुद ही अपने लिए चावल-दाल बनाते। लिखना शुरू किया तो उस हॉस्टल पर रपट एक साप्ताहिक समाचारपत्र (‘राष्ट्रीय सहारा’ वाली सहारा कंपनी तब मीडिया के कारोबार में घुस रही थी और उसने साप्ताहिक ‘शान-ए-सहारा’ लखनऊ से शुरू किया था) में लिखी। उस जमाने में हॉस्टल ही एकलब्य के अंगूठे का नया नाम था। देहात के बच्चे पास के कस्बों और शहरों में आ तो जाते थे लेकिन उनका अंगूठा काटने की हर तरफ तत्परता दिखती थी। तब हर साल उस हॉस्टल की दुर्दशा पर रिपोर्ट छपती थी। उस हॉस्टल में हर किस्म की असुविधाएं थी और बच्चों के हरिजन होने के कारण स्थानीय लोग उनसे चिढ़ते थे। यानी उन्हें अंदर और बाहर, दोनों जगह वर्चस्व की संस्कृति से लडऩा पड़ता था। लड़ते-लड़ते कई थक कर गिर जाते तो कई कॉलेजों से डिग्री हासिल कर लेते थे।

dalit-hostel-300x169मेरे भीतर के रिपोर्टर की पीड़ा यह है कि 2015 में मेरे पास एक खबर आई, जिसमें बताया गया कि दिसम्बर 2014 में पालघर के आदिवासी छात्रावास में रहने वालों को भूख हड़ताल पर जाने के लिए विवश होना पड़ा। उस समय कई लड़कियों की हालात इतनी गंभीर हो गई थी कि उन्हें अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा था। भूख हड़ताल पर जाने की वजह यह थी कि 2012 से छात्रावास के संबंध में सरकार से शिकायतें की जा रहीं थीं परन्तु कोई सुनवाई नहीं हो रही थी। शिकायत थी कि हॉस्टल में पर्याप्त कमरे नहीं हैं। वहां 75 लड़कियों की जगह पर 200 ठूंस दी गयी थीं। टॉयलेट नहीं थे, आने-जाने की सुविधा नहीं थी और स्थानीय निवासी लड़कियों पर बुरी निगाह रखते थे।

मैं सोचता हूं कि एकलव्य के उस अंगूठे के कितने रूप तैयार हो गए हैं। गांव में जो दिमाग अछूतों और शूद्रों के खिलाफ फन उठाए रहता है, वह शहरों-कस्बों में नए रूप में उभर आता है। तथाकथित आधुनिक दिमाग में भी लड़कियों के बारे में अश्लील विचार उत्पात मचाए रहते हैं। उड़ीसा के गंजम जिले के गुदियाली क्षेत्र से फरवरी में एक खबर आई थी। वहां के कस्तूरबा गांधी बालिका विद्यालय के लेखाकार ने लड़कियों की उस अवस्था की तस्वीरें उतार ली, जब उनकी देह पर कपड़े नहीं थे। ये लड़किय़ां अपने घरों से निकल कर, हॉस्टल में रहकर पढऩे वाली अपने परिवार के पहली पीढ़ी से थीं। समाज उन्हें निचली जाति का कहता है पर निचली हरकत लेखाकार करता है। लेखाकार ने ठीक वही किया जो द्रोणाचार्य ने सदियों पहले किया था। उसे तस्वीरें चाहिए लड़किय़ों की नग्न देह की। लेखाकार द्रोणाचार्य है, कैमरा उसका हथियार है और अंगूठा है नग्न देह की तस्वीर उतारा जाना। जिन लड़कियों की तस्वीरे उतारी गयीं, उन्होने ही छात्रावास नहीं छोड़ा बल्कि पूरा छात्रावास ही खाली हो गया। जब एक का अंगूठा कटा था तो उसका संदेश हर एकलव्य के कानों में गर्म तेल की तरह डाला गया था। इन तस्वीरों को भी गर्म सलाखों की तरह लड़कियों के देह पर दागा गया। पढ़ाई छूट गई

मैं सोचता हूं कि रिपोर्टिंग करना ही छोड़ दूं। मैं अंगूठे काटने पर एतराज करता हूं तो वे अंगूठे जैसी नयी चीजें तैयार कर लेते हैं मानो वे अंगूठा काटे बिना जी ही नहीं सकते। पैंतीस वर्षों से ऐसे अंगूठों की माला से सजे मंचों को देख रहा हूं। लोकतंत्र में हिंसा का डंका बजते देख रहा हूं। मैं पीड़ा की कहानियों के बोझ से दबा, घुटा-घुटा सा महसूस करने लगता हूं। मैं इतने वर्षों से बार-बार हॉस्टल की उन्हीं पीड़ाओं से गुजरता रहा हूं। अधिकारियों के यहां भागना, हड़ताल पर बैठना, चिट्ठी लिखना, भेजना – संक्षेप में अंगूठे को कटने से बचाने का संघर्ष। जी चाहता है कि कहूं कि हॉस्टलों की बजाय द्रोणाचार्यो से इस समाज की मुक्ति की रिपोर्टिंग करना हम सब सीख लें। आगे की जिंदगी में यही काम हो। ताकि मेरी बेटी अपने एकलव्य की नई कहानी लिख सके।

(फारवर्ड प्रेस के फरवरी, 2016 अंक में प्रकाशित )

लेखक के बारे में

अनिल चमड़िया

वरिष्‍ठ हिंदी पत्रकार अनिल चमडिया मीडिया के क्षेत्र में शोधरत हैं। संप्रति वे 'मास मीडिया' और 'जन मीडिया' नामक अंग्रेजी और हिंदी पत्रिकाओं के संपादक हैं

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