जैसा कि आंबेडकर का तर्क था, जातिगत और अछूत प्रथाओं का हमेशा एक धार्मिक-उत्पीड़क पहलू होता है। दसवीं सदी ईस्वी तक केरल में धर्म के नाम पर ब्राह्मणवादी जाति व्यवस्था और पितृसत्तात्मकता एक बार फिर समाज पर लाद दी गईं थीं। परंतु अवर्णों या अछूतों ने बौद्ध धर्म से नाता नहीं तोड़ा और ब्राह्मणवाद के समर्पण करने से इंकार कर दिया। हिंदू ब्राह्मणवादियों ने अवर्णों का अमानवीय व बर्बर उत्पीडऩ शुरू कर दिया और सार्वजनिक रूप से अपमानित कर उन्हें ब्राह्मणवादी व्यवस्था स्वीकार करने पर मजबूर करने का रास्ता अपनाया। दलित-बहुजन महिलाओं को खूनी हिंसा के ज़रिए इस बात के लिए मजबूर किया गया कि वे उच्च जातियों, विशेषकर ब्राह्मणों, के समक्ष अपने स्तन नग्न रखें। यह परंपरा लगभग 1000 सालों तक जारी रही।
सनातन हिंदू धर्म और उसकी ‘पवित्र परंपरा’ के नाम पर, ब्राह्मणवादी पितृसत्ता और उसके शूद्र मोहरों ने इस कुप्रथा को ज़ोर जबरदस्ती से लागू किया। मलाबार के कुछ हिस्सों और कोच्चि में यह प्रथा बीसवीं सदी के मध्य तक जारी रही। यद्यपि अठारहवीं सदी में मैसूर के आक्रमण के कारण, शूद्र योद्धाओं और छुटभैय्ये ताल्लुकदारों की मनमानी पर कुछ समय तक रोक लगी।
जो लोग बौद्ध व जैन धर्म की नैतिक व समतावादी परंपराओं में आस्था रखते थे, उन्हें शूद्र और गुलाम बताकर समाज के हाशिए पर धकेल दिया गया। उनकी रोज़ाना की जिंदगी में उन्हें सार्वजनिक रूप से अपमानित किया जाना आम था। अवर्णों के लिए साफ-सुथरे कपड़े पहनना और शिष्ट भाषा का प्रयोग करना भी प्रतिबंधित था। संस्कृति पर जाति व्यवस्था का शिकंजा इतना कड़ा था कि अवर्णों के खानपान, पहनावे और यहां तक कि उनके शरीर और उनकी कामुक वृत्तियों पर भी जाति प्रथा का पूर्ण नियंत्रण था।
भूदेवों या ब्राह्मणों ने एक ऐसा युद्ध शुरू कर दिया, जो अंशत: धार्मिक और अंशत: नस्लीय था। जो लोग ब्राह्मणवाद की जाति की अवधारणा को स्वीकार करने से इंकार करते थे या जो उसके शुद्धता-अशुद्धता के सिद्धांत को मान्यता नहीं देते थे या जो अपनी महिलाओं को उच्च पुरोहितों का सेक्स गुलाम बनाने से इंकार कर देते थे, उन्हें वर्ण व्यवस्था से बाहर रखा जाता था। ‘मणिप्रवाल’ साहित्य और ‘अचि चरितम’ (वेश्याओं की कथाएं) इन्हीं ब्राह्मण-शूद्र गठबंधनों, जिन्हें ‘संबंध’ कहा जाता था, से उपजीं। अवर्णों का वह श्रेष्ठी वर्ग, जो पुरोहितों को सैनिक व सेक्स-संबंधी सेवाएं उपलब्ध करवाता था, उसे शूद्र या चौथे वर्ण का दर्जा दे दिया जाता था। ये शूद्र कानाकर (या पर्यवेक्षक) वर्णाश्रम धर्म की रक्षा के लिए हमेशा तलवार थामे तैयार रहते थे।
अंत की शुरूआत
यह नृशंस हिंदू परपंरा, दक्षिण ट्रावनकोर के नन्जीनाड़ में उन्नीसवीं सदी के मध्य में समाप्त हो गई। औपनिवेशिक मिशनरियों के हस्तक्षेप के कारण नाडर विद्रोह हुआ, जिसने सवर्ण वर्चस्व को चुनौती दी। अय्या वैकुंटर, नारायण गुरू व अय्यानकल्ली द्वारा सांस्कृतिक क्षेत्र में इस विद्रोह की भूमिका तैयार की गई और यह विद्रोह अपने साथ सामाजिक बदलाव की संभावनाएं भी लेकर आया।
यद्यपि सार्वजनिक रूप से अपमानित करने की यह जघन्य प्रथा ट्रावनकोर में उन्नीसवीं सदी के उत्तराद्र्ध और कोचीन में बीसवीं सदी के पूर्वाद्र्ध में समाप्त हो गई, तथापि मलाबार में यह बीसवीं सदी के उत्तराद्र्ध तक जारी रही। त्रिचूर जिले के तालापल्ली ताल्लुक में यह प्रथा, भारत की स्वतंत्रता के बाद तक जारी थी। सन 1952 में अवर्ण इडि़वा समुदाय की एक साहसी महिला वेल्लाथु लक्ष्मीकुट्टी के नेतृत्व में इसकी समाप्ति के लिए आंदोलन शुरू हुआ। त्रिचूर के केचेरी के कुछ मील पूर्व में स्थित वैल्लूर के मणिमल्लारकावू मंदिर में नायर अधिपति, अवर्ण महिलाओं को एक धार्मिक अनुष्ठान के अवसर पर अपने स्तन नग्न कर जुलूस में चलने के लिए मजबूर करते थे। ये नायर अधिपति छोटे से थाज़ेकड़ राज्य के थे, जिसका इस मंदिर पर नियंत्रण था। यह मंदिर पूर्व मध्यकाल तक बौद्ध तीर्थस्थल था। इस ताल्लुक, जिसे अब तलपल्ली कहा जाता है, का मूल नाम तालापल्ली था, जिसका अर्थ होता है मुख्य विहार या प्रमुख पल्ली। इससे स्पष्ट है कि इस इलाके में आठवीं या दसवीं सदी में ब्राह्मणवाद का बोलबाला होने के पूर्व तक यह इलाका बौद्ध था।
ब्राह्मणवादी पितृसत्तात्मकता और सबाल्टर्नो के शरीर के संबंध में उसकी अमानवीय आज्ञाओं को चुनौती देने के लिए, वीरांगना लक्ष्मीकुट्टी के नेतृत्व में साफ-सुथरे कपड़े पहने, अवर्ण महिलाओं का एक जुलूस निकालकर नायर अधिपतियों और उनके ब्राह्मण-पुरोहित संरक्षकों को अंगूठा दिखाया गया। सवर्ण पुरूषों द्वारा इसके आक्रामक विरोध का मुकाबला करने के लिए अवर्ण नवजागरण संगठन और मुख्यत: दलितबहुजनों के नेतृत्व वाली तत्कालीन कम्युनिस्ट पार्टी सामने आई। यह चौकाने वाली बात है कि अवर्ण महिलाओं द्वारा अपने मानवाधिकारों और गरिमा के इस ऐतिहासिक अभिकथन को केरल के इतिहास में कोई जगह नहीं मिली है। यह इस बात का उदाहरण है कि स्वाधीनता के बाद भी भारत में जातिगत पूर्वाग्रह किस तरह कणकण में व्याप्त है। इससे इस मिथक का भी खंडन होता है कि मैसूर द्वारा अठारहवीं सदी में मलाबार पर कब्जा करने के बाद वहां जातिगत सामंतवाद और ब्राह्मणवादी पितृसत्तात्मकता का अंत हो गया।
उस सबाल्टर्न सामाजिक संघर्ष, जिसने आधुनिक केरल और केरल के नवजागरण को जन्म दिया और प्रजातंत्र का एक देशज मॉडल प्रस्तुत किया, को भुला दिया जाना घातक सिद्ध हो रहा है। पूर्व जाति अधिपति अपने जातिगत कुलनामों का प्रयोग कर सरकार में ‘महत्वपूर्ण पदों’ पर कब्ज़ा जमा रहे हैं। मीडिया व विशेषकर आकाशवाणी व दूरदर्शन में विमर्श का हिंदूकरण और रामायण आदि का प्रचार दलितबहुजनों को मानसिक रूप से गुलाम बना रहा है और वर्णाश्रम धर्म के सिद्धांतों के अनुरूप, जातिगत पदक्रम में अपने से उच्च शूद्रों की नकल करने और उनका अनुयायी बनने के लिए प्रेरित कर रहा है।
(फारवर्ड प्रेस के फरवरी, 2016 अंक में प्रकाशित )
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