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उर्दू अफसानों में पसमांदा किरदार

सवाल उठता है कि आखिर क्या कारण है कि समाजिक अनुक्रम में नीचे स्थित जातियों के प्रतिनिधित्व के सवाल पर ब्राह्माणवादी प्रभाष जोशी और आप (सय्यद शहाबुद्दीन, ऑल इंडिया मुस्लिम मजलिस, मुशावरत) एक ही मंच पर खडे दिखते हैं। कारण जगजाहिर हो गया। मजहब बदल गया,लेकिन जाति को लेकर उंची जाति वालों का संस्कार नहीं बदला, ख्याल नहीं बदला

उर्दू के ऐसे अफसाने की तलाश, जिनमें दलित पसमांदा किरदार को पेश किया गया है, बहुत ही मुश्किल काम है। उर्दू में हिंदी अदब के बरअक्स दलित किरदार बहुत कम मिलते हैं, जिन्हें पसमांदा कहा जाता है। यह बड़ी दिलचस्प बात है कि मुस्लिम समाज का सवर्ण मुस्लिम हिंदू समाज की जाति व्यवस्था पर खूब चर्चा करता है और उसकी बुराई भी गिनाता है, लेकिन मुस्लिम समाज के अंदर व्याप्त जात-पात के भेदभाव पर चर्चा करने से हिचकिचाता है, और फौरन शोशा छोड़ता है कि मुस्लिम समाज में जात-पात नहीं है।

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दूसरी बात यह है कि सवर्ण मुस्लिम लेखक हाशिया के किरदार और दलित किरदार में गडबडझाला करके दोनों को एक साबित करने में एडी चोटी का जोर लगा देते हैं, ताकि सच्चाई कभी जाहिर न हो और पसमांदा का हक मार कर मायनारिटी कौम, अकलियत के नाम पर सरकारी लाभ को स्वयं हडप कर जाएं, जो सदियों से चली आ रही है। उर्दू में गरीब तबके से तअल्लूक रखने वाले जो किरदार मिलते हैं वे हाशिये के चरित्र हैं, न कि दलित-पसमांदा किरदार। इनमें बुनियादी फर्क यह है कि हर हाशिये का चरित्र दलित किरदार नहीं हो सकता लेकिन हर दलित किरदार हाशिये का चरित्र भी है। एक सवर्ण मुस्लिम पसमांदा कभी नहीं हो सकता। हां, ऐसा हो सकता है कि अपनी मुफलीसी के चलते वह मुख्यधारा से कट गया हो, जिससे उसकी पहचान एक हाशिये के चरित्र के रूप में होगी। वहीं दलित पसमांदा किरदार प्राचीन काल से ही मुख्यधारा से बाहर किया जाता रहा है, इसलिए, उसकी शिनाख्त हाशिये के चरित्र के रूप में खुद ब खुद होगी। उर्दू में पसमांदा किरदार पर बहस करने से पहले भारतीय मुस्लिम समाज पर भी मुखतसरन (संक्षेप में) गुफ़तगू करना मुनासिब होगा। क्योंकि कोई भी किरदार समाज की पैदावार होता है।किरदार की तशकील (विकास) में समाज का बड़ा हाथ होता है।

भारत में मुस्लिम संप्रदाय दो प्रमुख सामाजिक व सांस्कृतिक समूहों में बंटा था- अशरफ तथा अजलफ। मुस्लिम समाज के अंदर व्याप्त जातपात का ढांचा उसके कारण,कारक,दिशा और दशा पर किसी दूसरे लेख में विस्तार से चर्चा की जाएगी, यहां फिलहाल दलित-पसमांदा किरदार के हवाले से बात की जा रही है। उर्दू अफसानों का आगाज प्रेमचंद की रवायत उर्दू के अफसानवी अदब में बुनियादी खायत की दरजा रखती है।’सवा सेर गेहूं’में महाजनी शोषण और हिंदुस्तानी अवाम के जेहन पर कर्म और फल के प्रभाव के पारस्परिक संबंध को उजागर किया गया है। अगर ब्राह्मण स्वयं महाजन है तो फिर पूछना ही क्या! अफसाना ‘मंदिर’अछूतों के मंदिर में दाखिल होने के मसले पर लिखी गई है।

यह कहानी उस दौर की है जब बाबा साहेब ने नासिक में कालाराम मंदिर में दलितों के प्रवेश के अधिकार के लिए सत्याग्रह  किया था। इस कहानी में मुखिया का अंधविश्वास परकाष्ठा पर है। 14 फरवरी 1933 को बाबा साहेब आंबेडकर ने एक वक्तव्य जारी किया था। इस वक्तव्य ने जहां दलितों में सम्मान की भावना पैदा की, वहां हिंदुओं को भी यह स्पष्ट शब्दों में अवगत कराया कि दलितों की मंजिल मंदिर नहीं है।

लेकिन सुखिया की पहली और आखरी मंजिल मंदिर ही थी। ‘मंतर कहानी’ कई पहलुओं को अपने अंदर समेटे हुए है। एक तो यह कि मंतर मामूली (दलित) इंसान के अंदर छुपे नैतिक मूल्य को उजागर करती है। दूसरा भगत के जजबाती कशमकश में अच्छाई की विजय को दर्शाती है। भगत में जो इंसान दोस्ती, भाईचारा, दूसरे के दुख-दर्द को बांटने का रूझान है, वह डा. चड्ढा (ब्राह्मण) में नहीं मिलता। भगत का यही मूल्य उसके व्यक्तित्व का चमकदार पहलू है। ‘नेकबख्ती’ कहानी छुआछूत और शुद्धि के तानेबाने को लेकर बुनी गई है। प्रेमचंद आर्य समाज के सदस्य थे। प्रेमचंद के जेहन पर दयानंद सरस्वती के विचार का गहरा असर था। मनु का राजधर्म दयानंद का राजनीतिक आदर्श था।

भोलानाथ कहते हैं मरव्वत, इन्केसारी (विनम्रता), एखलाक(शिष्टाचार), इल्म,  दोस्ती यही सब ब्राह्मणों के गुण हैं और मै आपको ब्राह्मण ही समझता हूं। जब खूबी और कर्म ही वर्ण को तय करता है, तो फिर यह कहने की क्या जरूरत है कि यह गुण ब्राह्मणों के हैं और मै आप को ब्राह्मण ही समझता हूं। यहीं वजह है कि रत्ना कहती है, नहीं वह नहीं जानते,  उनसे भूल कर भी न कहना वरना खुदकुशी कर लेंगे। यानी नत्थूराम में वह सारी खूबी सारे कर्म हैं, जो राय साहेब के मुताबिक ब्राह्मण में होते हैं, लेकिन चूंकि वह जात का भंगी है, इसलिए राय साहेब उसे दामाद के रूप में बर्दाश्त नहीं कर सकते और खुदकुशी कर लेंगे। नत्थु रत्ना के इंगलीश टीचर से कहता है किसटान (क्रिश्चियन) तो न बनाओगी। और आगे जोर देकर कहता है, ‘ना भय्या क्रिस्टान न बनूंगा’ और वह एक गली से होकर भाग गया।

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प्रेमचंद

यह बात बड़ी अजीब लगती है कि एक लड़का, जिसे इतनी मार पड़ी हो, भूखा प्यासा सड़क पर आवारागर्दी कर रहा हो, उसे इतना अच्छा मौका मिले और वह उसे सिर्फ इसलिए छोड़ दे कि कहीं उसे क्रिश्चन  न बना लिया जाए। हम देखते हैं कि दूध की कीमत का मंगल जूठा चाटने के लिए कुत्ते के साथ वहीं आ जाता है, जहां उसे डांट कर भगा दिया गया था। एक लड़के को भला हिंदू या क्रिश्चन की तमीज क्या होगी। दरअसल प्रेमचंद शुद्धि के समर्थक थे और धर्म परिवर्तन को ठीक नहीं समझते थे। हालांकि मिशनरी में नत्थू का मुसतकबिल रौशन था। दयानंद सरस्वती और महात्मा ज्योतिबा फुले दोनो समकालीन थे। महात्मा फुले की तालीम मिशनरी स्कूल में हुई थी। तालीम के दौरान उनका राब्ता (संपर्क) पाश्चात शिक्षा और चिंतन से हुआ था, जिसका असर उनके विचारधारा पर पड़ा। राय साहेब के बंगले से पीटकर निकाले जाने के बाद कोई लड़का, जिस चीज की तमन्ना कर सकता है वह मेम के कहे गए अलफाज थे कि वहां तुम्हे पढ़ाया जाएगा, शाम को खेल की छुट्टी मिलेगी और पहनने को कोट पतलून मिलेगा। लेकिन प्रेमचंद को यह पसंद नहीं था और नथवा गली में भाग जाता है। कहानी ’निजात’ दुखी चमार की हीन भावना और एक पंडित की जुल्म की दास्तान है। मनुस्मृति में जगह-जगह धर्म के मनमाने इस्तेमाल को जायज ठहराने के लिए सीधे कह दिया गया है कि धर्म की दण्ड होता है यानी डंडा।

हम देखते हैं कि पंडित घासीराम दुखी चमार से लकडी की मोटी गांठ को फाडने का काम मुफ्त में करा लेता है। गाड़ी भर भूसा खलियान से दूसरी जगह रखवा लेता है। झाड़ू दिलवाकर पूरा दरवाजा साफ करवा लेता है और बैठक को गोबर से लिपवा लेता है। इस तरह पंडित घासीराम ने धर्म का इस्तेमाल डंडे की तरह बखूबी किया है। 1928 में जब डा अंबडकर ने मनुस्मृति को जलाया था,तो उस समय उन्होंने कहा था कि मनु ने स्वतंत्रता, समानता, और बंधुत्व के सिद्धांतो की हत्या की है।

1927 में छुआछूत के संबंध में बाबा साहेब आंबेडकर ने लिखा था, जिसने पहली बार हमें अछूत कहा था, उसकी जीभ उसी समय काट दी होती तो आज हमें कोई अछूत नहीं कहता।‘निजात’ कहानी अक्टूबर 1931 में उर्दू संकलन आखरी तोहफा में छपी। डा0 आंबेडकर मनुस्मृति और छुआछूत को लेकर जिन वागयाना तेवर की बात कर रहे थे वह प्रेमचंद के यहां तीन साल के बाद तक भी नहीं मिलता। यह भी काबिले गौर बात है कि बाबा साहेब के दलित मुक्ति तहरीक से पहले प्रभावित होने वालों में चमार हजारात एक थे । कहानी ठाकुर का कुआ 1932 में लिखी गई थी। यह कहानी उस दौर की है जब पूना पैक्ट हो चुका था। दलितों को डा अंबेडकर जैसा मौजू रहनुमा मिल गया था और वह अपने हकूक के लिए जद्दोजहद कर रहे थे। प्रेमचंद गांधीवाद से बहुत मुतासिर (प्रभावित) थे।

किरदार की तशकलील में मोसन्नीफ के विचार और दर्शन का बहुत बड़ा हाथ होता है। गांधी के हरिजन और डा. आंबेडकर के दलित में बहुत फर्क है। हरिजन समाज के हर जुल्म को अपना मुकददर और कर्म फल समझकर जिंदा लाश की तरह जिंदगी गुजारता है। कहीं अगर जुल्म के खिलाफ बगावत का रुझान मिलता भी है, तो सिर्फ उसके जेहन तक महदूद रहता है। लेकिन डा0 आंबेडकर के दलित में जोश और वलवला पाया जाता है। जुल्म को मिटाने एवं अपनी इज्जत और वकार के लिए उठ खड़ा होने का जूनने और हौसला पाया जाता है। उसकी बगावत सिर्फ तसव्वुर में ही दम नहीं तोड़ती है बल्कि हकीकत की दुनिया में आकर लोहा भी लेती है। गंगी का बागी दिमाग सोचता है, ‘किस बात के वे हम से उंचे है। हां अपने मुंह से उंचे हैं।‘ लेकिन डॉ. आंबेडकर ने इस कहानी से पांच साल पहले एक कहानी लिखी थी। वह थी महाड़ संघर्ष की कहानी। महाड़ के चावदार तलाब से जानवर पानी पी सकते थे, लेकिन दलितों को यह हक नहीं था कि वे इस तालाब से पानी पी सकें। 20 मार्च 1927 को अछूत तालाब पर पहुंचे और उन्होंने पहली बार वहां पानी पिया। यह हिंदुओं से बरदाश्त नहीं हुआ। बाबा साहेब के शब्दों मे उनपर पागलपन सवार हो गया और पानी को भ्रष्ट करने का दुस्साहस करने वाले अछूतो पर उन्होंने जी भर कर जुल्म ढाये। लेकिन कहानी के आखिर में हम देखते हैं कि गंगी जगत से कुदकर भागी जा रही है। घर पहुंचकर गंगी ने देखा कि जोखू लोटा से मुंह लगा, वहीं मैला गंदा और बदबूदार पानी पी रहा है।

कफन के घीसू और माधव गुरबत की जिंदगी गुजार रहे हैं। वे समाज की सच्चाई को देख रहे हैं। वे देख रहे हैं कि जी तोड़ मेहनत करने वालों के लिए भी पेट भरना मुश्किल हो गया है। निकम्मापन और काहली उनकी हिकमतअमली और इस्तहसाल से बचने का तरीका है। वे दोनो सामाजिक नजाम के खिलाफ हैं। घीसू और जमींदार दोनेा में एक चीज मुशतरक है,वह यह कि जहां घीसू काम नहीं करता है, वहीं जमींदार भी काम नहीं करता। लेकिन एक फर्क दोनों के दरम्यान वाजे तौर पर नजर आती है। घीसू सादा था वहीं जमींदार शातिर धूर्त  था। एक शदीद खाहिश जो अलाव के पास भूने आलू को खाते हुए बाप और बेटे में है, उसका तसव्वुर (कल्पना) वे ठाकुर की बारात को याद करके करते हैं। उसकी तकमील शराबखाने मे पूरियां खाते हुए मुकम्मल हो जाती है। जहां सामाजिक व्यवस्था ही इंसान की बदहाली का जिम्मेदार हो, तो वहां सिर्फ एक ही विकल्प बाकी रहता है,वह यह है कि खुद को हालात की धारा पर छोड़ दिया जाए।

उर्दू जानने वाले और उर्दू आलोचकों ने प्रेमचंद की तश्खलीकात रचनाओं के गुणगान और उसकी शान में जमीन और आसमान के कलाबे मिला दिए है। जब हम दलित किरदार या पसमांदा किरदार का तजजिया करते हैं, तो हमारे सामने सिर्फ और सिर्फ महात्मा फूले का दर्शन और बाबा साहेब आंबेडकर का फलसफा रहना चाहिए न कि दयानंद, गांधी, सय्यद अहमद खां मौलाना आजाद या मुललइज्म की कोख से पैदा हुई कोई विचारधारा। हिंदुस्तान में मजहब का मसला उतना नहीं है जितना जात का। सवर्ण हिंदू मजहब तब्दील करके मुसलमान या ईसाई हो जाता है,लेकिन अपने पूर्वज से विरासत में पाया हुआ खुद पसंदाना रूझान, जो अब भी उसके चेतन में मौजूद है, उससे स्वयं को अलग नहीं कर पाता। यह बड़ी दिलचस्प बात है और सर्वविदित कटू सच भी कि जिस तरह सवर्ण हिंदू का व्यवहार दलितो के साथ है, अशराफ मुसलमानों का भी सलूक दलितों के साथ वैसा ही है और पसमांदा के साथ भी वैसा ही। हैरतअंगेज तौर पर दलित और पसमांदा के सवाल पर हम हमेशा सवर्ण और अशराफ एक साथ खडे देखते हैं। लगता है जज्बाती और नफसीयाती मानसिक तौर पर आपस में जुडे हुए हैं और ऐसा क्या न हो। इस्लाम कबूल करने वाले ब्राह्मणों ने अपने को सय्यद का दर्जा दिए जाने को मोतालबा किया तो बादशाह अकबर ने उन्हें  दे दिया।

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सवाल उठता है कि आखिर क्या कारण है कि सामाजिक अनुक्रम में नीचे स्थित जातियों के प्रतिनिधित्व के सवाल पर ब्राह्माणवादी प्रभाष जोशी और आप (सय्यद शहाबुद्दीन, ऑल इंडिया मुस्लिम मजलिस, मुशावरत) एक ही मंच पर खडे दिखते हैं। कारण जगजाहिर हो गया। मजबह बदल गया,लेकिन जाति को लेकर उंची जाति वालों का संस्कार नहीं बदला, ख्याल नहीं बदला। तरक्की पसंद अफसानों कहानियों में दलित-पसमांदा किरदार के हवाले से बात की जाए। रशिद जहां अफसाना अफतारी में लिखती है: एलावह धरो के यहां तीन मस्जिदें थी। इन मस्जिदों के मुल्ला में एक किस्म की बाजी लगी रहती थी कि कौन इन जाहिल गरीबों (अनपढ़ गरीबों) को ज्यादा उल्लूबना,और उनकी गाढ़ी कमाई में ज्यादा हज्म करे। ये मुल्ला बच्चों को कुरान पढ़ाने से लेकर झाड़ फूंक ताबीज,गंडा,गर्जके हर उन तरीकों के उस्ताद थे, जिनसे वे इन जुलाहों और लोहारों को बेवकूफ बना सकें। ये तीन बेकार और और फजूल खानदान इन मेहनत करने वाले इन्सानेां के बीच में इस तरह रहते थे कि जिसे तरह घने जंगलों में दीमक रहती हैं और आहिस्ता-आहिस्ता दरख्तों वृक्षों को चाटती रहती है। ये मुल्ला सफेदपोश थे और उनके पेट पालने वाले मैले और गंदे थे। ये मुल्ला साहिबान सय्यद और शरीफजादे थे और ये मेहनतश रजील और कमीनों में गिने जाते थे।

हयातुलला अंसारी की कहानी ‘भरे बाजार’का किरदार ‘रखी’ है। पसमांदा होने की वजह से जब उसे कारपोरेशन के गुसलखाना में नहाने नहीं दिया जाता, तो वह मजबूरन पार्क में नहाने आती है। रखी के नहाते हुए जिस्म को देखकर शहवानी लिज्जत हासिल करने वाले मौलवी साहेब और लोग ताक झाँक की बीमारी से ग्रसित थे। ख्वाजा अहमद अब्बास की कहानी ‘लाल और पीला’ का किरदार गोपाल कुम्हार जाति का व्यक्ति है। गोपाल की जिंदगी गरीबी में गुजरती है। उसे लड़की से मोहब्बत हो जाती है, जो गोपाल की पहुंच से बाहर थी। उसके दिल में एक अजीब सी प्यास है, जिसकी तसकीन के लिए वह

खूबसूरत औरतों की तस्वीर बनाता है। गोपाल जिस दुनिया में रहता है उसे भूल जाना चाहता है और अपने माहौल से फरार होना चाहता है। लेकिन उसे अपनी दुनिया,अपने माहौल की तस्वीरकशी करने पर प्रथम पुरस्कार मिलता है। अगर जिंदगी बदसूरत है तो उसे बदलना पड़ेगा, फिरार मसले का हल नहीं। लहू (लाल) के बहाने से ही व्यवस्था बदलनी है, दूसरों की जिंदगी में खुशियां लानी हैं। हालांकि लहू बहाने वाला क्या न हो जाए। रजिया सज्जाद जहीर की कहानी ‘नीच’ की शामली नीच कही जाने वाली जात से तअल्लुक रखती है। शामिली का किरदार दो तरह के डिक्स्कोर्स को हल करता नजर आता है। पहला फेमिनिज्म और दूसरा कास्ट डिस्कोर्स। शामिली जिस जात से ताल्लुक रखती है, वह इमानदारी से मेहनत मशक्कत करके अपना पेट भरने में यकीन रखती है। वह एक साथ औरत होने की दर्द को भी झेलती है, और नीच जात की कसूरवार भी ठहराई जाती है। लेकिन नामुवाफिक हालात से लड़ते हुए एक रोलमॉडल के रूप में समाज के सामने आती है। रजिया सज्जाद जहीर की दूसरी कहानी ‘मोअजजा (चमत्कार)’का किरदार ‘मज्जोशाह’नट जात से तअल्लुक रखता है। रस्सी पर चलकर वह तमाशा दिखाता है और यही उसकी रोजी रोटी का वसीला साधन है। अशरफ जात का स्वार्थ और श्रेष्ठता और पसमांदा की तौहमपरस्ती और हीन भावना इस कहानी का विषय है। खुराफात किस तरह मजहबी फरीजा की शक्ल अख्तीयार कर लेता है और बहकावे में आकर किस तरह एक अशिक्षित पसमांदा अपनी जिंदगी को दांव पर लगा देता है,यह कहानी इसका मुंह बोलता सबूत है। सआदत हसन मंटो की कहानी ‘नया कानून’का किरदार मंगु साइस जाति का सदस्य है, तांगा चलाकर जिंदगी बसर करना उसका पेशा है। वह देश आजाद होने का और नया कानून का इंतजार बहुत शिद्दत से करता है। लेकिन नया कानून ‘चिल्लाने’ से बनी हई व्यवस्था का खात्मा नहीं हो जाता। व्यवस्था वहीं रहती है। सिर्फ इतना होता है कि व्यवस्था गोरे के हाथ से निकलकर काले अंग्रेज के हाथ में आ गई। इस्मत चुग्ताई की कहानी ‘देा हाथ’गुरबत में बसर करने वाली पचास वर्ष की मेहतरानी की कहानी है। एक तरफ उंचे खानदान की बड़ी-बड़ी शरीफ जातियों के गुनाह (पाप) हैं, जो हम सड़क के किनारे या गटर में देखते हैं, तो दूसरी तरफ अदना तुच्छ जात समझे जाने वालों की फराखदिली और दरियादिली है, जो नाजायज औलाद को भी एक नन्हा सा फरिश्ता समझकर सीने से लगाते हैं। शराफत का लबादा ओढ़कर रयाकारी (पाखंडीपन) मेहतरानी को पसंद नहीं। उसके यहां गुनाह कबूल करने का माद्दा है। यह नहीं कि गुनाह करके पारसाई का इश्तेहार बने। इस्मत चुगताई की दूसरी कहानी ‘मैले का टोकरा ’हरिजन की हालात को बयां करती है। गन्दगी की सफाई करता है दलित लेकिन सडांध  रहता है अशराफ जात वालों के जेहन में। अछूत से छू जाने पर जिस तरह हिंदू शुद्धि का अमल करते हैं, उसी तरह सवर्ण मुसलमान भी भंगी की खाट पर बैठ जोने पर लेखिका (अशरफ जात) को पाक करते हैं। कृष्ण चंद की कहानी ‘कालू भंगी’समाज के सबसे निचले तबके की दास्तान हयात है। उसका काम अस्पताल में हर रोज मरीजों की गंदगी को साफ करना है। वह तकलीफ उठाता है जिसकी वजह पर दूसरे लोग आराम की जिंदगी जीते हैं। लेकिन किसी ने भी एक लम्हे के लिए भी उसके बारे में नहीं सोचा। ऐसा लगता है कि कालू भांगी का महत्व उनकी नजर में कुछ भी नहीं। वैसे ही, जैसे जिस्म शरीर से निकले वाली गलाजत (गंदगी पैखाना आदि) की वकअत नहीं होती। अगर सफाई की अहमियत इंसानी जिंदगी में है,तो कालू भंगी की अहमियत उपयोगिता भी मोसाल्लिम है।

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सआदत हसन मंटो

जदीद अफसानों में अनवर कमर की कहानी ‘चांदनी की सपुर्द’ का किरदार कलवा गंदा ढोने वाली मालगाड़ी पर नौकरी करता है। माहौल का व्यक्ति पर बहुत असर पड़ता है। माहौल कलवा को एक जानवर की तरह जिंदगी गुजारने के लिए मजबूर करता है। गंदगी से खाहिश उसकी सख्सियत का एक अहम कारक बन जाता है। यह कहानी माहौल और हालात की असरजदगी की बेहतरीन अक्कासी करती है। सलाम बिन रज्जाक की कहानी ‘एकलव्य’अशरफ लोगों की जेहनियत को दर्शाता है। लेखक आरक्षण विरोधी है। वह आरक्षण को जायज नहीं समझता। उसके ख्याल में आज के बरीब बच्चों जो अशरफ जाति के हैं, आरक्षण के बदौलत बेबस और लाचार हो जाते हैं। हिंदुस्तान की जाति व्यवस्था में दलित पसमांदा के तालीम हासिल करने पर रोक थी। जाति व्यवस्था में सदियों से चली आ रही जो तालीमी सिस्टम लागू थी, उनकी बुनियाद गुरुकुल थी जिनमें सिर्फ ब्राह्मण क्षत्रिय ही पढ़ सकते थे।

शफक की कहानी ‘दूसरा कफन’को प्रेमचंद की कहानी ‘कफन’ का एकस्टेशन कहा जाता है। प्रेमचंद ने घीसू और माधव को मदमस्त करके कहानी को खत्म कर दिया था, लेकिन शफक ने कहानी को उसकी बदमस्ती के बाद की सुबह से शुरू की है। प्रेमचंद की कहानियों में कुत्ता एक गमखार तनहाई का साथी की हैसियत से आता है लेकिन दूसरा कफन का घीसू कुत्ता को तीन बार मारता है और दुत्कारता है। वह कुत्ते को लात मारता है। ‘कफन’ और ‘दूसरा कफन’ में यह बुनियादी अंतर है। प्रेमचंद का घीसू बची हुई पुरियां भिखारी को खिलाता है, कुत्ते को नहीं। लेकिन दूसरा कफन में शफक कहते है रात, जिस कुत्ते को उन्होंने पुरियां खिलाई थी,  वह उन दोने के बीच में घूस कर सो रहा था।

प्रेमचदं के घीसू से इस बात का पता चलता है कि जलाने के लिए लकड़ी काफी है, अब इसकी जरूरत नहीं है। शफक ‘दूसरा कफन’में लकड़ी की कमी का रोना रोते हें। कफन का घीसू रात में खेतों से आलू उखड़ कर लाता है और उसे भून कर खाता है। शफक ‘दूसरा कफन’में कहते हैं, ‘खेत भी उजाड़ पड़े थे, आलू की फसल बोरियों में बंद हो चुकी थी। यह बड़ी अजीब बात है कि घीसू ओर माधव रात में आलू भून कर खाते हें लेकनि सुबह होने पर खेत उजाड़ पड़े होते हैं और आलू की फसल बोरियों में बदं हो चुकी होती है। सिर्फ बारह घंट में खेत और आलू की यह हालत हो जाती है। यह कौन सा चमत्कार है। ‘दूसरा कफन’को ‘कफन’का एक्सटेंशन नहीं कहा जा सकता, यह ‘कफन’ का वर्जन है, जो प्रमचंद की कहानी के ट्रीटमेंट से मेल नहीं खाता।

मोहसिन अजममाबाद की कहानी ‘अनोखी मुसकुराहट’का किरदार ‘जमुनी’ है। कहानी के दूसरे किरदार ‘जमुनी’ का बाप और हनीफ डाकिया हैं । कब्र खोदना और मय्यत दफनाना जमुनी के बाप का पेशा है। जमुनी जब भी मय्यत को देखती है तो मुस्कुराने लगती है। जमुनी की पुरईसरार (भेदपूर्ण) हंसी वह मनोग्रंथि हैं जिस पर पूरी कहानी का ताना बाना बुना गया है। वह देखती है कि मय्यत आते है तो घर में चुल्हा जलता है। वह देखती है कि मय्यत  आते तो अच्छे-अच्छे कपड़े पहनने को मिलता है। उसकी झोपडी आबादी से दूर कब्रिस्तान के पास थी। आस-पास किसी का घर नहीं था। किसी के मर जाने पर कोई रोता भी है, उसे नहीं मालूम। उसके नजदीक मय्यत खुशी का अलामत संकेत है। अगर वह जानती है तो खुश होना और रोना पूरी तरह निर्भर है मय्यत के आने और न आने पर। इसी जेहनी आदत के साथ जुमनी की शादी हनीफ से हो जाती है। जमुनी की शख्सियत के नफसियाती गिरह का नतीजा कहानी के आखरी हिस्से में देखने को मिलता है। जमुनी का बच्चा तीन दिन से बीमार है। डाक्टर ने उसे एक दवा मालिश करने के लिए दिया है, जिस पर प्वाइजन का लेबल लगा हुआ है। ख्वाब की हालत में जमुनी जहर देकर अपने पर्सनल कॉम्पलेक्स की इच्छा पूर्ति करती है। चूंकि ख्वाब की हालत में ख्यालात प्रत्यक्ष बोध और स्मरणशक्ति में पारस्परिक संबंध खत्म हो जाता है, इसलिए वह यह नहीं पहचान सकी कि जिसे वह जहर दे रही है वह उसका अपना बच्चा है, जिसे चेतनावस्था में वह बहुत ज्यादा चाहती है। चेतना में बेटे की जिंदगी और अचेतन में मय्यत की ख्वाहिश। मय्यत को देखना मानसिक संतोष की पूर्ति है। यह मय्यत किसी का भी हो सकता है, खुद उसके अपने बच्चे का भी। मुशर्रफ आलम जौकी की कहानी ‘सूअरबाड़ी’ डोमों की एक बस्ती है। विनो कहानी का एक किरदार है और वह उस व्यक्ति की नुमाइंदगी करता है, जिसके लिए व्यक्तिगत फायदा सबसे अहम है। इस तबके की यह खासियत रही है कि अगर हालत उनके प्रतिकूल है, तो उस हालात के जिम्मेदार व्यवस्था को बुरा कहेंगे, लेकिन अगर हालात अनुकूल हो और यह तबका स्वयं उस व्यवस्था का हिस्सा है तो इस व्यवस्था की आलोचना करने वालों का विरोध करेगा। दक्षिण अफ्रिका में जुल्म सहने वाले तबके से वह हमदर्दी रखता है, क्योंकि वह जाने वाले विद्रोह के तबके के लोग थे। लेकिन अपने यहां बागियों पर गवर्नमंट के जुल्म को सही ठहराता है और मौन स्वीकृति के अंदाज में खुश रहता है। यूनूस जावेद की कहानी ‘अनाज’की खुशबू का किरदार जमील बाबा कब्र खोदने का काम करता है। मुस्लिम समाज में व्याप्त जिंदा लोगों के बीच भेदभाव तो जगजाहिर है। इस कहानी में मुर्दों के बीच भेदभाव को दिखाया गया है। मुर्दे के कब्रिस्तान भी अलग-अलग तबके, जात में विभाजित हो गए हैं। यह बड़े लोगों का कब्रिस्तान है, यह छोटे लोगों का कब्रिस्तान है। मसावात बरारबरी सिर्फ शब्द इस्लाम में है, मुस्लिम समाज में कहीं दिखाई नहीं देता। 1911 के जनगणना के अनुसार भारतीय मुस्लिम समाज में 94 जातियां थीं।

हिंदी कहानीकार जब दलित किरदार की तखलीक (रचना) करता है, तो अपने समाज से लेता है। उर्दू कहानीकार जब उर्दू कहानियों में दलित किरदार की रचना करता है, तो हिंदू समाज से लेता है, मुस्लिम समाज से नहीं। यद्यपि वह किरदार जिस जाति से आता है मुस्लिम समाज के अंदर भी है। इस्मत चुगताई की कहानी ‘दो हाथ’और ‘मैले का टोकरा’में भंगी किरदार आया है। उसका नाम राम अवतार और सीताराम है। यह जाति मुस्लिम समाज में भी है। इस जाति को बिहार में हलालखोर कहते है, जिसका कुलनाम लालबेगी है और हैदराबरद स्टेट में मीर-मेहतर कहते है। मध्य भारत में भंगी कहते हैं।

रजिया सज्जाद जहीर की कहानी ‘नीच’का किरदार शामली है, वह जिस जाति से आती है वह मुस्लिम समाज के अंदर भी मौजूद है, जिसे कुंजड़ा कहते हैं, जिसका कुलनाम राइन है। ख्वाजा अहमद अब्बास की कहानी ‘लाल और पीला’का किरदार गोपाल है। यह जाति भी मुस्लिम समाज में पाई जाती है। उसे कलाल कहते है।

उर्दू में ज्यादातर लिखने वाले का तअल्लूक अशराफ सवर्ण मुस्लिम से रहा है। किरदार की रचना करते वक्त उनके नजर के सामने मुस्लिम समाज रहता है, लेकिन पाखण्ड कर अपने समाज में प्रचलित जाति व्यवस्था केा नजरअंदाज कर अपने समाज में प्रचलित जाति व्यवस्था को नजरअंदाज करने का रूझान पाया जाता है। इसकी वजह यह है कि वह नहीं चाहते कि लोगों को पता चले कि मुस्लिम समाज में अंदर भी जात-पात और भेदभाव है। उनका मुख्य मकसद है कि वे सीधे-साधे और बेवकूफ की हद तक मासूम पसमांदा को खुराफात की चाशनी में डूबी हुई मजहबी गिरफ्त में लेकर अपने मजहबी और राजनीतिक एकाधिकार को सदा की तरह जारी रख सकें। जाबिर हुसैन की एक कहानी है ‘चमारटोली की पिंकी’,इस कहानी में वे कहते हैं चमारटोली के ग्यारह लोगों को सिर्फ इस वजह से गोली मार दी गई क्येांकि उस बस्ती में किसी दलित ने अपनी बच्ची का नाम पिंकी रख दिया था। पिंकी ठहरा बड़े घरों का बच्चों के पसंदीदा नाम। लेकिन लेखक स्वयं अपने समाज के अंदर झांक कर नहीं देखता। उर्दू अशराफिया लेखक को हिंदू समाज में प्रचलित जात-पात तुरंत नजर आ जाती है, लेकिन स्वयं अपने समाज में जात-पात को लेकर जो भेद-भाव है वह नहीं दिखता।

उच्च जाति के अशरफों के यहां जो खाना बनता है, वह खाना सहारनपुर में निम्न जाति के मुसलमानों को बनाने की मनाही थी, किसी प्रमुख व्यक्ति को भोजन पर निमंत्रित करने की भी उन्हें छूट नहीं थी। और तो और उंची जाति मुसलमानों के बच्चों के नाम जैसे- नाम तक रखने की निम्न जाति के मुसलमानों को मनाही थी। समान रूतबे वाले ही दो व्यक्ति अस्सलाम अलैकुम कहकर परस्पर अभिवादन कर सकते जबकि निम्न श्रेणी वाले आदाब और बंदगी कहते।

इस तरह हम देखते है कि दलित किरदार और पसमांदा किरदार में बहुत समानता है। लेकिन जहां दलित किरदार बाबा साहेब आंबेडकर के चिंतन को अपनी जिंदगी और व्यवहार में अपनाकर बदहाली से छुटकारा और बेहतरी की तरफ अग्रसर नजर आता है, वहीं पसमांदा किरदार के यहां मायूसी और ठहराव की सी कैफियत पाई जाती है।


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लेखक के बारे में

गुलाम रब्बानी

गुलाम रब्बानी जेएनयू से उर्दू साहित्य में अपना शोधकार्य पूरा कर चुके हैं। 'उर्दू अफसानों में दलित किरदार’शीर्षक से इनकी किताब प्रकाशित है।

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