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कुठांव : सवर्ण केंद्रित नारीवाद बनाम बहुजन न्याय का स्त्री विमर्श का सवाल उठाता उपन्यास

अब्दुल बिस्मिल्लाह का उपन्यास ‘कुठांव’ हमें यही बताता है कि बहुजन और पसमांदा महिलाओं का संघर्ष सिर्फ पुरुषों से नहीं है, बल्कि वह उस पूरे सामाजिक ढांचे से है, जो पितृसत्ता, जातिवाद और मजहबी भेदभाव की कई परतों से बना है। जबकि सवर्ण केंद्रित नारीवाद सिर्फ ‘चॉइस’ और ‘स्वतंत्रता’ की भाषा में बात करता है। बता रहे हैं अब्दुल्लाह मंसूर

भारतीय नारीवाद की बहस अक्सर एक ऐसी बहस की तरह पेश की जाती है जो हर औरत के हक़ की बात करती है। लेकिन जब हम गहराई से देखते हैं तो पाते हैं कि इस बहस में आवाज़ ज़्यादातर उन स्त्रियों की हैं जो सवर्ण, शहरी और सुविधासंपन्न पृष्ठभूमि से आती हैं। वहीं वे औरतें जो जाति, मज़हब, वर्ग और भाषा के आधार पर हाशिए पर हैं, उनकी आवाज़ इस बहस में या तो दबा दी जाती हैं या महज़ सहानुभूति की वस्तु बन जाती हैं। अब्दुल बिस्मिल्लाह का उपन्यास ‘कुठांव’ भारतीय नारीवाद की इसी दोरंगी तस्वीर को सामने लाता है। 

एक ओर वह सवर्ण केंद्रित नारीवाद है जो अपने ही विशेषाधिकारों की ज़द में उलझा है, और दूसरी ओर बहुजन न्याय का स्त्री विमर्श है, जो ज़मीनी हकीकत, जातिगत अपमान और अस्तित्व की लड़ाई से जन्म लेता है। यह उपन्यास उस हलालखोर मुस्लिम स्त्री के अनुभव को केंद्र में रखता है, जिसे न सिर्फ़ मज़हबी पितृसत्ता का सामना करना पड़ता है, बल्कि जातिगत नफ़रत, यौन हिंसा और सामाजिक बहिष्कार का भी। 

‘कुठांव’ शब्द शरीर के उस मर्मस्थल को दर्शाता है, जहां चोट सबसे अधिक महसूस होती है। इसी प्रतीक के सहारे अब्दुल बिस्मिल्लाह ने मुस्लिम समाज में व्याप्त जातिवादी व्यवस्था और स्त्रियों के संघर्ष को उजागर किया है। उपन्यास में मस्जिदों की अग्रिम सफें केवल उच्च जातियों के लिए सुरक्षित दिखाई गई हैं, हलालखोर जाति के लोगों के स्पर्श को नापाक माना जाता है, और सामाजिक मेलजोल में भेदभाव आम है। यह सब उस भ्रम को तोड़ता है कि मुस्लिम समाज पूरी तरह बराबरी और भाईचारे पर आधारित है। भारत में इस्लाम की सामाजिक संरचना अरब या मध्य एशिया जैसी नहीं रही, बल्कि यहां सवर्ण जातियों ने इस्लाम कबूल करने के बाद भी अपनी जातिगत श्रेष्ठता बनाए रखी। सैयद, शेख, पठान जैसी जातियां आज भी मुस्लिम समाज के ऊंचे पायदान पर हैं, जबकि हलालखोर, धुनिया, नदाफ़ जैसी जातियां अछूतों की स्थिति में हैं। उपन्यास में यह ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य बार-बार उभरता है और यह स्पष्ट किया जाता है कि कैसे सवर्ण हिंदुओं ने इस्लाम स्वीकार करने के बावजूद पसमांदा तबकों को बराबरी नहीं दी।

कथा का केंद्र मिर्जापुर के गोपालगंज गांव की हलालखोर लड़की सितारा और अशराफ खानदान के नईम के बीच के रिश्ते पर आधारित है। सितारा की मां इद्दन अपनी बेटी की शादी ऊंची जाति में करवाने का सपना देखती है, लेकिन उसे जातिगत हीनता का अहसास हमेशा बना रहता है। इद्दन की गरीबी, पितृसत्ता, और सामाजिक अपमान की पीड़ा बहुजन स्त्री के उस जीवन को दर्शाती है, जिसमें संघर्ष ही नियति है। सितारा की सुंदरता भी अशराफ दृष्टिकोण से देखी जाती है, जिससे उसकी आत्मा और पहचान को लगातार चोट पहुंचती है। 

मसलन, उपन्यास में एक जगह दलित मुस्लिम लड़की ‘हुमा’ के बारे में लिखा गया है– “जिसका चेहरा चौड़ा था। आंखें फैली-फैली सी थीं। होंठ बर्फी के तराशे हुए टुकड़ों की तरह। छातियों पर अमरुद जैसी कुछ आकृतियां उभरी हुई थीं। नाक ऐसी जैसे किसी कीड़े ने काट लिया हो।” मतलब यह कि ऐसी शक्ल-सूरत की लड़कियां बदसूरत होती हैं। यह रंगभेदी सोच, जहां गोरी नस्ल की जिस्मानी खासियतों को सुंदरता का मापदंड माना जाता है। हमारी सुंदरता की समझ अशरफिया ही क्यों है? ऐसे ही उपन्यास में एक खां साहब के घर की लड़की ‘ज़ुबैदा’ तथाकथित खूबसूरत लड़की है। लेकिन सितारा भी खूबसूरत ही है पर वह हलालखोर यानि हेला है। 

यह दिखाता है कि जाति और जेंडर जब एक साथ किसी महिला के खिलाफ काम करते हैं, तो शोषण की तीव्रता और गहराई बढ़ जाती है। अशराफ पुरुषों द्वारा निम्न जाति की महिलाओं के साथ संबंध बनाना, लेकिन विवाह न करना, इस सत्ता-संबंध को और भी स्पष्ट करता है। बहुजन स्त्री केवल श्रम का नहीं, बल्कि शरीर के उपभोग का भी साधन बना दी जाती है। इद्दन जैसी स्त्रियां जातिगत और लैंगिक शोषण का दोहरा बोझ उठाती हैं। वे शिक्षा, सम्मान और आत्मनिर्भरता की चाह तो रखती हैं, लेकिन सामाजिक संरचना उन्हें बार-बार अपमानित करती है। इद्दन अपनी बेटी को पढ़ाना चाहती है, लेकिन उसके लिए भी उसे जातिगत और यौनिक अपमान सहने पड़ते हैं। ठाकुर गजेंद्र सिंह जैसे पात्र यह दिखाते हैं कि सत्ता और संसाधन किस तरह दलित-पसमांदा स्त्रियों की मजबूरी का लाभ उठाते हैं।

‘कुठांव’ उपन्यास का आवरण पृष्ठ

इंटरसेक्शनैलिटी का मतलब होता है कि जब किसी इंसान के साथ एक साथ कई वजहों से भेदभाव होता है तो उसका दुख और संघर्ष बहुत गहरा और जटिल हो जाता है। सोचिए कि एक हलालखोर जाति की महिला के बारे में, जो पहले से ही एक ‘नीची’ जाति की मानी जाती है, ऊपर से वो मुस्लिम है, जिससे उसे समाज में इस्लामोफोबिया का भी सामना करना पड़ता है और साथ ही मुस्लिम होने के कारण उसे दलित आरक्षण भी नहीं मिलता। फिर वह गरीब है, जिसके पास संसाधन नहीं हैं। वह महिला है, इसलिए उसे मर्दवादी सोच का भी हर रोज़ सामना करना पड़ता है। सबसे बड़ी बात, उसे न तो दलितों की तरह आरक्षण मिलता है, और न ही मुख्यधारा नारीवाद उसकी बात सुनता है। ऐसी महिला के लिए नारीवाद का मतलब ‘माय चॉइस’ या ‘मैं क्या पहनूं’ जैसी बातें नहीं होतीं। उसके लिए नारीवाद का मतलब होता है– बिना डरे जीना, अपनी बेटी को पढ़ा पाना, अस्पताल में इंसान की तरह इलाज मिलना, और ससुराल या समाज में ज़िंदा बच पाना। उसका नारीवाद अख़बारों या ट्विटर पर नहीं, खेतों, ईंट-भट्ठों, सब्ज़ी मंडियों और सड़कों पर रोज़-रोज़ लड़ा जाता है।

सवर्ण केंद्रित नारीवाद की सीमाएं तब और अधिक स्पष्ट हो जाती हैं जब यह केवल शहरी, अंग्रेज़ीभाषी, करियर-उन्मुख महिलाओं तक सीमित रह जाता है। ऐसी स्थिति में यह विमर्श बहुजन स्त्रियों के जीवन की जटिल और कठिन वास्तविकताओं से कट जाता है। जहां सवर्ण नारीवाद विवाह की स्वतंत्रता, समान वेतन और सामाजिक रूढ़ियों के विरोध की बात करता है, वहीं बहुजन स्त्री के लिए यह संघर्ष जीवन और मृत्यु के बीच झूलता है, जहां वह अपने सम्मान, सुरक्षा और अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही होती है। ऐसे में यह सवाल उठता है कि जो पसमांदा औरतें खेतों में मज़दूरी करती हैं, सब्जियां बेचती हैं, दुकानों में झाड़ू-पोंछा करती हैं या महानगरों में घरेलू कामगार बनी हुई हैं, वे उस नारीवाद से कैसे जुड़ें, जिसकी लड़ाई अक्सर सोशल मीडिया के हैशटैग जैसे ‘बुर्का माय चॉइस’ या ‘माय प्राइड’ तक सिमट जाती है? जब विकल्प सभी के लिए सुलभ न हों, तब ‘चॉइस’ की अवधारणा भी वर्ग, जाति और सामाजिक संदर्भ से निर्धारित होती है। जिन औरतों के लिए बुर्का एक सांस्कृतिक प्रतीक नहीं बल्कि रोज़मर्रा की मज़बूरी या जीविका की शर्त हो, उनके लिए ‘चॉइस’ का अर्थ ही भिन्न होता है। जब मंचों पर कुछ महिलाएं बुर्का और बिकनी दोनों को एक साथ व्यक्तिगत स्वतंत्रता के प्रतीक के रूप में प्रस्तुत करती हैं, तो यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या यह नारीवाद उन महिलाओं की ज़िंदगी से भी जुड़ता है जिनके पास कोई विकल्प मौजूद नहीं है? वे औरतें जो शिक्षा, भाषा और मंच से वंचित हैं, न तो ‘बिकनी में आज़ादी’ की बात कर सकती हैं और न ही ‘बुर्के में इज़्ज़त’ की दलीलें समझ सकती हैं। उनके लिए असली सवाल यह है कि क्या उन्हें समाज इंसान के तौर पर देखता भी है?

डा. पायल तड़वी का मामला इस बात का ज्वलंत उदाहरण है कि कैसे एक आदिवासी मुस्लिम लड़की को जातिगत और लैंगिक भेदभाव के कारण आत्महत्या करनी पड़ी। पायल मुंबई के एक प्रतिष्ठित अस्पताल में एमडी (स्त्री रोग) की छात्रा थीं और भील आदिवासी समुदाय से आती थीं। पढ़ाई में तेज़, मेहनती और अपनी मां के नक्शे-क़दम पर एक डाक्टर बनने का सपना लिए पायल ने जिस मेडिकल कॉलेज में दाखिला लिया, वहीं उसे ऊंची जाति की महिला साथियों द्वारा लगातार अपमान, जातिसूचक टिप्पणियां, और मानसिक उत्पीड़न का सामना करना पड़ा। उन्हें यह स्वीकार करना तक गवारा नहीं था कि एक आदिवासी मुस्लिम लड़की उनके बराबर खड़ी हो सकती है। अंततः, मई 2019 में पायल ने यह शोषण सह न सकने की स्थिति में आत्महत्या कर ली।

यह घटना बताती है कि हमारे सामाजिक संस्थान, विशेषकर वे जो मेरिट और समानता के दावों के साथ खड़े होते हैं, असल में बहुजन स्त्रियों के लिए कितने असुरक्षित हैं। पायल का संघर्ष केवल व्यक्तिगत नहीं था, बल्कि एक पूरे सामाजिक ढांचे की विफलता का परिणाम था, जिसमें जाति और जेंडर की परतें एक साथ काम करती हैं और जिन्हें सवर्ण-केंद्रित विमर्श अक्सर देखने से इनकार करता है।

बहुजन न्याय का स्त्री विमर्श की सबसे बड़ी विशेषता उसका जमीनीपन है। यह आंदोलन खेतों, कारखानों, गलियों और झुग्गियों से उठता है। इसकी जड़ें समाज के उन तबकों में हैं, जो सबसे अधिक हाशिए पर हैं। बहुजन स्त्रियां अपने अनुभव के आधार पर नारीवाद को परिभाषित करती हैं, और उसमें उनका संघर्ष, प्रतिरोध और आत्मसम्मान शामिल होता है। यह नारीवाद केवल अधिकारों की बात नहीं करता, बल्कि गरिमा और पहचान की मांग करता है। मीडिया भी इस भेदभाव को बढ़ावा देती है। जब ब्रांड, विज्ञापन और फिल्में केवल सवर्ण, सुंदर, अंग्रेज़ी बोलने वाली महिलाओं को प्रस्तुत करते हैं, तो बहुजन स्त्रियां अदृश्य हो जाती हैं। उनका संघर्ष मुख्यधारा में स्थान नहीं पाता, और जब वे बोलती हैं तो उनकी आवाज़ को या तो दबा दिया जाता है या उपहास में बदल दिया जाता है। यह दृश्य नारीवाद के भीतर के सवर्ण आधिपत्य को भी उजागर करता है।

पसमांदा विमर्श के अंतर्गत मुस्लिम महिला की स्थिति और भी जटिल हो जाती है। उसे धार्मिक रूढ़िवाद, जातिगत भेदभाव और स्त्री-विरोधी मानसिकता का एक साथ सामना करना पड़ता है। न मुख्यधारा मुस्लिम नेतृत्व उसकी बात सुनता है, न सवर्ण-अशराफ नारीवादी आंदोलन उसे साथ लेने को तैयार होता है। उसकी समस्याएं, जैसे शिक्षा, रोजगार, घरेलू हिंसा और सामाजिक बहिष्कार, बार-बार विमर्श के बाहर छूट जाती हैं। नारीवाद को यदि वास्तव में प्रासंगिक बनाना है तो उसमें दलित, आदिवासी, पसमांदा, और हर हाशिए की पहचान को शामिल करना होगा। यह आंदोलन केवल दिल्ली और मुंबई में बैठकर या ट्विटर तक सीमित नहीं हो सकता। इसकी असली प्रासंगिकता तब होगी जब यह खेतों में काम करती महिलाओं, ईंट-भट्टों पर तपती लड़कियों, और घरों में झाड़ू-पोछा करती स्त्रियों की आवाज़ बने। बहुजन न्याय का स्त्री विमर्श की सफलता के लिए शिक्षा, संगठन और नेतृत्व अनिवार्य हैं। जब बहुजन स्त्रियां संगठित होंगी, जब वे अपनी बात खुद कहेंगी, तब ही बदलाव होगा। शिक्षा उन्हें आत्मनिर्भर बनाती है, संगठन उन्हें ताकत देता है और नेतृत्व उन्हें समाज में पहचान देता है। यही बहुजन न्याय का स्त्री विमर्श की ताकत है कि वह व्यक्तिगत दर्द को सामूहिक प्रतिरोध में बदल देता है।

भारतीय समाज में नारीवाद की बहस तब तक अधूरी और एकांगी बनी रहेगी, जब तक उसमें जाति, वर्ग, धर्म और सामाजिक पहचान की विविधता को ईमानदारी से शामिल नहीं किया जाता। अब्दुल बिस्मिल्लाह का उपन्यास ‘कुठांव’ हमें यही बताता है कि बहुजन और पसमांदा महिलाओं का संघर्ष सिर्फ पुरुषों से नहीं है, बल्कि वह उस पूरे सामाजिक ढांचे से है, जो पितृसत्ता, जातिवाद और मजहबी भेदभाव की कई परतों से बना है। जबकि सवर्ण केंद्रित नारीवाद जब सिर्फ ‘चॉइस’ और ‘स्वतंत्रता’ की भाषा में बात करता है, तो वह उन स्त्रियों की जमीनी हकीकत को नज़रअंदाज़ कर देता है, जो ज़िंदगी की बुनियादी ज़रूरतों और इज़्ज़त के लिए संघर्ष कर रही हैं। ब्लैक फेमिनिज़्म का उदाहरण हमें बताता है कि जब मुख्यधारा नारीवाद हाशिए की महिलाओं की आवाज़ नहीं सुनता, तो वे अपना रास्ता खुद बनाती हैं। भारत में भी हमें एक ऐसे नारीवादी आंदोलन की ज़रूरत है जो सच्चे मायनों में समावेशी हो, जिसमें खेतों में काम करने वाली, सब्ज़ी बेचने वाली, अस्पतालों में घिसती, मज़दूरी करती, झुग्गियों में रहने वाली और पर्दे के पीछे दबी रह गई हर औरत की कहानी शामिल हो।

समीक्षित पुस्तक : कुठांव (उपन्यास)
उपान्यासकार : अब्दुल बिस्मिल्लाह
प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
मूल्य : 199 रुपए

(आलेख संपादन : राजन/नवल/अनिल)


फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्‍त बहुजन मुद्दों की पुस्‍तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्‍स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्‍य, संस्‍क‍ृति व सामाजिक-राजनीति की व्‍यापक समस्‍याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्‍स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +917827427311, ईमेल : info@forwardmagazine.in

लेखक के बारे में

अब्दुल्लाह मंसूर

लेखक पेशे से शिक्षक हैं और ‘पसमांदा डेमोक्रेसी’ नामक यूट्यूब चैनल के संचालक हैं

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