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अनिल सरकार और त्रिपुरा का दलित आंदोलन

1991 में जब देश बाबासाहेब भीमराव आंबेडकर की जन्मशती मना रहा था, तब अनिल सरकार ने त्रिपुरा के दलित आंदोलन को फैलाने के गंभीर प्रयास प्रारंभ किए। उन्होंने पूर्वोत्तर में दलित आंदोलन को मार्क्सवाद से जोड़कर उसे नया परिप्रेक्ष्य दिया

त्रिपुरा का इतिहास बहुत पुराना है। यह त्रिपुरा नरेश के बारे में ‘राजमाला’ गाथाओं तथा मुग़ल इतिहासकारों के वर्णनों से जाना जा सकता है। त्रिपुरा का उल्लेख महाभारत, पुराणों तथा अशोक के शिलालेखों में भी मिलता है। आज़ादी के बाद भारतीय गणराज्य में विलय के पूर्व यहां राजशाही थी। कहा जाता है कि राजा त्रिपुर, जो ययाति वंश के 39 वें राजा थे, के नाम पर इस राज्य का नाम त्रिपुरा पड़ा। एक मत के मुताबिक, स्थानीय त्रिपुर सुन्दरी देवी के नाम पर यहाँ का नाम त्रिपुरा पड़ा। एक अन्य मत के मुताबिक यह शब्द स्थानीय काकबरक भाषा के दो शब्दों का मिश्रण है – त्वि और प्रा। त्वि का अर्थ होता है पानी और प्रा का अर्थ है निकट। ऐसा माना जाता है कि प्रचीन काल में यह क्षेत्र समुद्र (बंगाल की खाड़ी) के इतने निकट था कि इसे इस नाम से बुलाया जाने लगा। राजमाला के अनुसार त्रिपुरा के शासकों को ‘फा’ उपनाम से पुकारा जाता, था जिसका अर्थ ‘पिता’ होता है। माणिक्य वंश के राजाओं ने लगभग पांच सौ वर्षों तक यहां राज किया। उन राजाओं को जब-तब जनजातियों के तीव्र प्रतिरोध का भी सामना करना पड़ा।

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अनिल सरकार

राजसत्ता के शोषण व अत्याचार के खिलाफ 1850 में त्रिपुरा की जनजातियों ने विद्रोह किया, जिसकी कमान परीक्षित एवं कीर्ति नामक आदिवासी युवकों ने संभाली थी। उस विद्रोह के बाद कुछ समय के लिए राजसत्ता का अत्याचार थम गया था। 1850 के उस विद्रोह को तिप्रा विद्रोह के नाम से जाना जाता है। त्रिपुरा की जमातिया जनजातियों ने 1863 में राजसत्ता के खिलाफ विद्रोह किया, जिसे जमातिया विद्रोह के नाम से जाना जाता है। राज्य की कुकी जनजातियों ने राजसत्ता के खिलाफ 1844 से लेकर 1890 तक संग्राम किया, जिसे कुकी विद्रोह के नाम से जाना जाता है। त्रिपुरा की रियांग जनजातियों ने भी 1942 में विद्रोह कर राजसत्ता तथा ब्रिटिश साम्राज्यवाद का प्रतिरोध किया था। त्रिपुरा में उन्नीस जनजातियां हैं – त्रिपुरी अथवा देववर्मा, रियांग, जमातिया, नोवातिया, चकमा, हालाम, मोग, लुशाई, उचई, कूकी, गारो, मुंडा, भील, ओरांग, संथाल, खासी, चमैली, भूरिया एवं लेप्चा। इन जनजातियों के पिछड़े होने की सबसे बड़ी वजह अशिक्षा रही है। अत: उन्हें शिक्षित करने के लिए कतिपय कम्युनिस्ट नेताओं ने 1945 में त्रिपुरा राज्य जनशिक्षा समिति का गठन किया। इस समिति ने दशरथ देव, सुधन्बा देववर्मा और हेमंत देववर्मा के नेतृत्व में पूरे त्रिपुरा में शिक्षा के प्रसार में महती भूमिका निभाई। 1948 में कम्युनिस्ट पार्टी पर प्रतिबंध लगने के बाद दशरथ देव, सुधन्बा देववर्मा और हेमंत देववर्मा तथा बीरेन दत्त ने त्रिपुरा राज्य गणमुक्ति परिषद का गठन किया। परिषद् ने पूरे त्रिपुरा में जनजातियों के शोषण के खिलाफ लगातार आवाज उठाई।

त्रिपुरा भारत में
15 अक्तूबर, 1949 को त्रिपुरा भारत गणराज्य में शामिल हो गया। 1956 में राज्योंन के पुनर्गठन के बाद यह केंद्रशासित प्रदेश बना। 1972 में इसने पूर्ण राज्य का दर्जा प्राप्त किया। विभिन्न ऐतिहासिक आदिवासी विद्रोहों और आदिवासी तथा गैर-आदिवासी जनता के संयुक्त आंदोलनों के चलते 1978 में पहली वाम मोर्चा सरकार का गठन यहां हुआ। इसमें त्रिपुरा राज्य जन शिक्षा समिति तथा त्रिपुरा राज्य गणमुक्ति परिषद की बड़ी भूमिका रही। चूंकि इन समितियों का नेतृत्व दशरथ देव, सुधन्बा देववर्मा, हेमंत देववर्मा तथा बीरेन दत्त जैसे कम्युनिस्ट नेताओं के हाथों में था इसलिए राज्य की जनजातियों तथा अनुसूचित जातियों के बीच कम्युनिस्ट पार्टी का प्रभाव बढ़ता गया। परवर्ती काल में इस प्रभाव को आगे ले जाने का काम माकपा नेता तथा दलित चिंतक व कवि अनिल सरकार ने किया।

1991 में जब देश बाबासाहेब भीमराव आंबेडकर की जन्मशती मना रहा था, तब अनिल सरकार ने त्रिपुरा के दलित आंदोलन को फैलाने के गंभीर प्रयास प्रारंभ किए। उन्होंने पूर्वोत्तर में दलित आंदोलन को मार्क्सवाद से जोड़कर उसे नया परिप्रेक्ष्य दिया। अगले 25 वर्षों में आंबेडकर व मार्क्स के विचारों में समन्वय स्थापित कर अनिल सरकार ने पूर्वोत्तर में दलित आंदोलन को अनवरत आगे बढ़ाया। 1994 में त्रिपुरा सरकार में कैबिनेट मंत्री बनने और अनुसूचित जाति, अन्य पिछड़ा वर्ग व धार्मिक अल्पसंख्यक कल्याण विभाग मिलते ही अनिल सरकार ने राज्य के दलित छात्रों के लिए आंबेडकर अवार्ड और आंबेडकर मेरिट अवार्ड की स्थापना की। उनके प्रयास से ही त्रिपुरा में अनुसूचित जाति व जनजाति, अल्पसंख्यक व पिछड़े वर्ग के प्रथम श्रेणी में मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण करने वाले विद्यार्थियों को आांबेडकर अवार्ड और बारहवीं के होनहार छात्रों को आंबेडकर मेरिट अवार्ड दिया जाने लगा। पुरस्कार स्वरूप पाँच से पंद्रह सौ रुपए, आंबेडकर साहित्य, आांबेडकर की जीवनी, अन्य दलित साहित्य, अद्वैतमल बर्मन से लेकर रवींद्र व नजरूल साहित्य भेंट किया जाने लगा। आंबेडकर एक्सेलेंसी अवार्ड भी त्रिपुरा में प्रदान किया जाने लगा। समाज सेवा के लिए पंद्रह हजार रुपए का आंबेडकर अवार्ड अलग से दिया जाने लगा। अद्वैतमल बर्मन की स्मृति में दो पुरस्कारों की शुरुआत हुई। पहला पूर्वोत्तर हेतु तथा दूसरा पूर्वोत्तर से बाहर के व्यक्ति के लिए।

त्रिपुरा में सरकार 14 अप्रैल से आंबेडकर जयंती पखवाड़ा मनाती है। संगोष्ठियाँ की जाती हैं, व्याख्यान दिए जाते हैं, सांस्कृतिक कार्यक्रम होते हैं, क्विज प्रतियोगिताएँ व आंबेडकर फुटबाल व कबड्डी प्रतियोगिताओं का आयोजन होता है। पूरे त्रिपुरा को वाम सरकार पखवाड़े भर के लिए आंबेडकरमय बना देती है। आज त्रिपुरा का बच्चा-बच्चा आंबेडकर को जान गया है। त्रिपुरा सरकार के कार्यों के कारण दलितों व जनजातियों में आत्मसम्मान का बोध बढ़ा है। इसके साथ ही हर दलित व आदिवासी छात्र के पढऩे, आगे बढऩे और उसे रोजगार का अवसर उपलब्ध कराने का महत्वपूर्ण कार्य त्रिपुरा प्रशासन ने किया। आरक्षण को कड़ाई से लागू कराया। त्रिपुरा की लगभग आधी आबादी अनुसूचित जाति और आदिवासियों की है। 2011 की जनगणना के अनुसार त्रिपुरा की कुल आबादी है 65.4 लाख है और इसका 17.8 प्रतिशत दलित और 31.8 प्रतिशत आदिवासी हैं। दलितों व आदिवासियों के माकपा के पक्ष में होने के कारण ही लगातार पांचवीं बार 2013 में माकपा सत्ता में आई। इस आबादी को माकपा से जोडऩेवाले अनिल सरकार ही थे। पहले दशरथ देव जनजातियों के एकछत्र नेता थे। परवर्ती काल में अनिल सरकार त्रिपुरा के दलितों-आदिवासियों के एकछत्र नेता बने। उन्होंने 9 फरवरी 2015 को अंतिम सांस लेने तक दलित आंदोलन चलाया। उनके प्रयासों से ही माकपा ने दलितों का राष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित किया, जिसमें पार्टी के राजनीतिक प्रस्ताव में दलितों के सामाजिक शोषण का मुकाबला करने का ऐलान किया था।

दलित साहित्य के पितामह

tripura-1-300x200अनिल सरकार ने त्रिपुरा में दलित आंदोलन को ही खड़ा नहीं किया, दलित साहित्य के प्रवर्तक भी वही बने। सन 1950 के दशक के आखिर में अनिल सरकार ने बांग्ला साहित्य में गद्य के मार्फत प्रवेश किया। पर वे गद्य तक ही सीमित नहीं रहे। उन्होंने कविताएं लिखनी शुरू कीं। अनिल के डेढ़ दर्जन कविता संग्रह प्रकाशित हुए हैं। ‘स्वजनर मुख’, ‘शेष पलटन’, ‘ब्रात्य जनेर कविता’, ‘प्रियजन वैन’, ‘बाताशेर पाये शब्द’, ‘अश्वमेधेर घोड़ा’, ‘हीरा सिंह हरिान’, ‘स्वनिर्वाचित कविता’, ‘शत पुष्प’, ‘कविता समग्र’, ‘आपरंग देखे जा’, ‘सर्कस’, ‘टक भीषन टक’, ‘हावड़ा एक्सप्रेस’, ‘कोलकातार काल सांप’, ‘क्लाउड्स फ्राम द ईस्ट’, ‘वी आर मर्जिग’ और ‘श्रेष्ठ कविता’ अनिल सरकार की बहुचर्चित कविता पुस्तकें हैं। अनिल सरकार बांग्ला में प्रतिवादी कविता के सबसे प्रबल कंठस्वर हैं। अनिल सरकार की कविताओं की आवृत्ति वरिष्ठ फिल्म अभिनेता सौमित्र चटर्जी ने की है। अनिल सरकार की 30 प्रतिवादी कविताओं की सौमित्र द्वारा की गई आवृत्ति की सीडी कोलकाता में ‘भावना’ द्वारा निकाला गया है। ‘कठिन समय’ शीर्षक के इस सीडी में ‘बात्यजनेर कविता’, ‘शूद्र’, ‘हीरा सिंह हरिजन’, ‘घूम नेई’, ‘चेरि हरिन’ ‘शहीद कवि’ और ‘आंबेडकर प्रति’ शीर्षक कविताएं हैं। ‘आंबेडकर प्रति’ कविता पढ़ते हुए अनिल सरकार की ‘मर्क्सेर प्रति’ कविता याद आती है जिसमें उन्होंने लिखा है-‘मेरी नींद खुलती है, उनके पांव की आहट से जगने के बाद देखता हूं मातृभूमि विपन्न है।’ अनिल सरकार की एक कविता का शीर्षक है, ‘दलित जन्मते क्यों हैं’ (दलितरा केनो जन्माय)। इस लंबी कविता के आरंभ में कवि कहता है- ‘जंतु, जानवर की तरह बस्ती के नरक में हम जन्म लेते हैं और पड़ोसी बाबुओं की जूठन पर पलते-बढ़ते हैं।’ छह पृष्ठों की इस लंबी कविता में पूरे भारत के दलितों का दर्द है। अनिल सरकार ‘शूद्र’ शीर्षक कविता में कहते हैं- ‘किसका बेटा/ भात खाता है/ दूध में सानकर भात/ किसका बेटा/ जूता चमकाता है/ खुद की कमाई खुद खाता है/ चमार का/ लोहार का/ तुम लोगों का नहीं। इसीलिए इतना गुस्सा करते हो/ शूद्र से भय करते हो/ कारण/ अंधेरे तमस को चीरकर/ बाहर निकल आती है विजय।’ अनिल सरकार की ‘सात बहनें’ शीर्षक कविता की आरंभिक पंक्तियां देखें: एक मां/ सात बेटियां/ सात जगमगाते सितारे/ एक फूल/ एक फल/ एक पानी की धारा/ एक पहाड़/ एक नौका/ एक नदी-नद/ हिमालय की कन्याएं हैं वे/ शत्रु उनका करते हैं वध। अनिल सरकार की एक कविता का शीर्षक है ‘ब्रात्यजनेर कविता’ (ब्रात्यजन की कविता)। इसकी आरंभिक पंक्तियां हैं-मां मेरे संपूर्ण शरीर में/ आजन्म बहती रही है जन्म की यंत्रणा। ‘हीरा सिंह हरिजन’ शीर्षक कविता के आखिर में अनिल सरकार आह्वान करते हैं: हीरा सिंह हरिजन सुनो/ हम तो तुम्हें कुर्सी नहीं देंगे/ तुम/ बड़े होकर/ जबर्दस्ती/ उस पर बैठना।

माकपा के वरिष्ठ नेता होते हुए भी अनिल सरकार ने मायावती पर कविता लिखने से गुरेज नहीं किया। एक दलित की बेटी जब यूपी की मुख्यमंत्री बनी तो उस पर अनिल ने तीन कविताएं लिखीं। अनिल सरकार की कविताएं हमेशा दलितों, निम्नवर्गो, अस्पृश्य लोगों के पक्ष में खड़ी रहती थीं। त्रिपुरा में बांग्ला में दलित साहित्य रचनेवालों में अनिल सरकार के अलावा कमल कुमार सिंह, मानस देववर्मा, भूपेन दत्त भौमिक, भीष्मदेव भट्टाचार्य, कालीपद चक्रवर्ती, विचित्र चौधरी, कृष्णधन नाथ, कल्पना शिव, दिलीप दास, सिराजुद्दीन अहमद, देवब्रत देवराय, आशीष दास, श्यामापद चक्रवर्ती, जहर चक्रवर्ती, मिता दास, विधान राय, अपांशु देवनाथ, मनोरंजन विश्वास, सुकोमल ऋषि दास, निशिकांत वाद्यकर, जलधर मल्लिक, सुबल दाल वैष्णव और जीवन दास विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। कमलकुमार सिंह ने बांग्ला में आांबेडकर की जीवनी लिखी तो ‘ब्रह्मवाद व वस्तुवाद’, ‘शूद्रजागरण’, ‘दलित साहित्य संपर्क’ जैसी बहुचर्चित दलित कृतियां भीं। मानस देववर्मा की कहानी ‘स्वप्ने तव कुल लक्ष्मी’ में बताया गया है कि एक आदिवासी युवक जब नौकरी के लिए आवेदन करने जाता है तो वह मातृभाषा की जगह क्या भरे, इस बारे में पशोपेश में पड़ जाता है। वह अगरतला में रहता है। नागर सभ्यता किस तरह जनजातियों की भाषा लील रही है, इसे कथाकार ने अभिव्यक्त किया है। भीष्मदेव की कहानी ‘राघ’ में उस आदिवासी शिशु ब्रजबालक की कहानी कही गई है, जो मजदूरी करके भी भूखा रहने को अभिशप्त है। कालीपद चक्रवर्ती की कहानी ‘तीर’ बताती है कि चाय बागानों के मालिक किस तरह निचले वर्ग से आनेवाले मजदूरों का शोषण करते हैं। ये सभी दलित रचनाएं बांग्ला में हैं। सुधबंधी देववर्मा ने काकबरक में पहला उपन्यास लिखा-‘हाचुक कौरई’। कुमुदकुंड चौधरी ने ‘पाहाड़ेर कोले’ शीर्षक से बांग्ला में भी इसे अनूदित किया है। काकबरक की रचनाओं में भी जनजातियों के जीवन राग की गूंज सुनी जा सकती है। त्रिपुरा में दलित साहित्य आंदोलन को गति देने में दलित साहित्य सभा का विशेष योगदान रहा है। दलित साहित्य सभा द्वारा एक पत्रिका प्रकाशित की जाती है जिसका नाम है ‘दलित साहित्य’। इसके अलावा दलित साहित्य प्रचार केंद्र, चतुष्कोण, एकलव्य प्रकाशन, जनपद, विवेक और दलित संग्राम की भूमिका भी कम महत्वपूर्ण नहीं है।

(फारवर्ड प्रेस के फरवरी, 2016 अंक में प्रकाशित )


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लेखक के बारे में

कृपाशंकर चौबे

हिंदी आलोचक व पत्रकार कृपाशंकर चौबे ने विभिन्नव विषयों पर कई पुस्तकें लिखी हैं। उनकी प्रमुख पुस्तकें 'संवाद चलता रहे', 'रंग, स्वर और शब्द', 'महाअरण्य की माँ', 'मृणाल सेन का छायालोक', 'नजरबंद तसलीमा', 'पानी रे पानी' तथा 'पत्रकारिता के उत्तर आधुनिक चरण' हैं। वे बांग्ला मासिक 'भाषाबंधन' तथा बांग्ला त्रैमासिक 'वर्तिका' के संपादक भी हैं

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