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पत्रों में डा. आंबेडकर : निजी और सार्वजनिक संघर्षों का दस्तावेज

डा.आंबेडकर द्वारा और डा. आंबेडकर को लिखे गये पत्रों के जरिये जनार्दन गोंड तत्कालीन राजनीति और सामाजिक संघर्षों को व्याख्यायित कर रहे हैं. ये पत्र बाबा साहेब आंबेडकर के निजी संघर्षों को समझने के लिए भी ऐतिहासिक दस्तावेज हैं

कहने-सुनने में थोड़ा अटपटा भले लगता हो पर यह सच है कि पत्रों ने दुनिया बदल दिए। तख्ते पलट दिए। दुनिया के इतिहास में कुछ पत्रों को आज भी बड़े सिद्दत से याद किया जाता है। मार्टिन लूथर किंग जूनियर ने 16 अपैल 1963 को जेल से एक पत्र सहयोगी कलर्जीमेन (Clergymen) को लिखा था। पत्र में आह्वान किया गया था – दुनिया में अन्याय चाहे जहां भी होता हो, उससे पृथ्वी के किसी भी कोने में न्याय के बाधित होने की आशंका रहती है (Injustice anywhere is a threat to justice everywhere)। इस पत्र ने अमेरीका में नस्लविरोधी आंदोलन को तेज कर दिया। उसके बाद की स्थिति को पूरी दुनिया जानती है।

दुनिया के सभी हिस्सों में समाज को दिशा देने वालों और संघर्ष करने वालों को पूंजीवादी और पुरातन रूढ़िवादी शक्तियों से मुठभेड़ करना पड़ा, चाहे वे मार्टिन लूथर किंग जूनियर हों या डॉ भीमराव आंबेडकर। उन्होंने नस्लवाद और प्रतिगामी शक्तियों से संघर्ष करने के क्रम में पत्रों का इस्तेमाल बतौर सामाजिक आंदोलन के उपकरण के रूप में किया।

डा.आंबेडकर अखबार पढ़ते हुए

यदि एक पल के लिए आधुनिक भारतीय समाज और राजनीतिक परिदृश्य की कल्पना डॉ. भीमराव आंबेडकर के अभाव में की जाये, मान लिया जाये कि आजाद भारत आंबेडकर के बिना आगे बढ़ा होता, बहुजन राजनीति और समाज को किसी दूसरे राजनीतिज्ञ द्वारा दिशा दिया गया होता, मान लिया जाए कि गांधी के ‘हरिजनवादी कृपा दृष्टि’ से ही मूलनिवासी समाज को राजनीतिक ऊर्जा मिली होती, इन तमाम परिस्थितियों में जो तस्वीर कल्पित होती है, वह बहुत ही अपूर्ण और खेदजनक लगती है। इन परिस्थितियों को देखते हुए आंबेडकर एक आवश्यक नेता के रूप सामने आते हैं। एक ऐसे नेता के रूप में जिनके अभाव मूलनिवासी भारतीय समाज के उद्धार की कल्पना नहीं की जा सकती।

बाबा साहेब के तमाम संघर्षों को समझने के लिए उन्होंने विपुल साहित्य छोड़ रखा है। जिनसे बहुजन और भारतीय जनमानस को समझने में आसानी होती है। आंबेडकर वांगमय पर बहुजन विद्वानों ने विचार किया है। इसलिए प्रस्तुत आलेख में बाबा साहेब के निजी पत्रों का जायजा लिया गया है। पत्रों के माध्यम से उनकी मनोदशा और संबंधों को समझने का प्रयास किया गया है। कई बार पत्रों से कई बनी-बनाई या बना दी गई अवधारणायें टूट जाती हैं।

पत्रों के अध्ययन से पता चलता है कि जब ‘बहिष्कृत हितकारिणी सभा’ के बाद आंबेडकर ने ‘समाज समता संघ’ बनाया तब उन्हें दलित वर्ग के अतिरिक्त ब्राह्मण वर्ग का भी सहयोग प्राप्त हुआ। कैसी विडंबना है कि लोकमान्य तिलक आंबेडकर के घोर विरोधी थे और श्रीपंत धरपंत बलवंत तिलक (लोकमान्य का बेटा) बाबा साहेब के पक्के प्रशंसक और सहयोगी थे। “25 मई 1928 की शाम भांबड़ी स्टेशन के पास पुना मेल के नीचे आत्महत्या करने के पहले उन्होंने डा. आंबेडकर को अंतिम पत्र में लिखा था कि आप समाज समता संघ का कार्य भविष्य में आगे बढ़ाने के लिए अथक परश्रम कर रहे हैं, इससे मुझे बहुत संतुष्टि मिलती है और परमेश्वर आपके प्रयासों को यश देंगे, ऐसा मुझे पक्का विश्वास है।” (डॉ अंबेडकर के पत्र, अनुवादक – डॉ वामनराव ढोके, संपादक – अजय कुमार, गौतम बुक सेंटर, संस्करण 2007 पृ. 9)

पत्रों के द्वारा बाबा साहेब के संवेदनात्मक पक्ष को बखूबी जाना जा सकता है। इन पत्रों से पता चलता है कि देश को आधुनिक राजनीति से जोड़ने वाले व्यक्ति का व्यक्तिगत स्तर पर लोगों के साथ कैसा बर्ताव था। 4 अगस्त, सन 1913 को वे कोलंबिया विश्वविद्यालय, न्यूयार्क से एक पत्र शिवनाक गांवकर जमादार को मेरे प्रिय जमादार संबोधन से लिखा गया है। पत्र बड़ा है, जिसमें जमादार के प्रति कृतज्ञता जाहिर की गई है। जमादार शिवनाक बाबा साहेब के नजदीकी मित्रों में एक थे, साथ ही मुंबई इन्फैंट्री के पेंशनभोगी भी थे। पत्र में शेक्सपियर के एक कथन का उपयोग करते हुए बात आगे बढाई गई है, “there is tide in the affairs of men. Which if taken at the flood leads on to fortune. Omitted the voyage of their life is, bound in shallows miseries (इंसानों के जीवन उतार – चढ़ाव आते ही रहते हैं। उससे लड़कर यदि इस बाढ़ को पार कर लिया जाए तो जिंदगी संवर जाती है और यदि नजरअंदाज कर दिया जाय तो जिंदगी का सफर उथला हो जाता है और कष्टों से घिर जाता है।) जमादार की पुत्री गंगू जमादार का भी जिक्र इसी पत्र में हुआ है, जो महार समाज की कक्षा चार तक शिक्षा हासिल करने वाली पहली लड़की थी।

प्रस्तुत पत्र में बाबा साहेब ने जमादार को धन्यवाद दिया है। साथ ही वे खुशी भी व्यक्त करते हैं कि जमांदार अपनी बेटी गंगू को शिक्षा दिला रहे हैं, जो बड़ी बात है। पत्र में कोलंबिया विश्वविद्यालय के परिवेश की भी चर्चा की गई है। साथ ही उम्मीद जताई गई है कि माना कि खाने-पीने की समस्या है मगर शीघ्र ही अध्ययन सुचारू रूप से शुरू हो जाएगा, तो इन समस्याओं पर ध्यान जाएगा ही नहीं।

बाबा साहेब के पत्र व्यवहार उनके समय के राजनेताओं से भी हुए हैं, द क्रॉनिकल के संपादक, इंडियन नेशनल कांग्रेस के प्रमुख नेता और मुंबई (तब बंबई) के महापौर फिरोज शाह मेहता को संबोधित करते हुए एक पत्र लिखा गया है, जिसका विशेष राजनैतिक महत्व है। पत्र में श्री गोखले एवं श्री एम.पी. मेहता के निधन पर शोक जताया गया है और उनके योगदान को चीरस्थाई करने की बात कही गई है। पत्र में श्री मेहता के नाम पर एक व्यवस्थित पुस्तकालय  खोले जाने की पैरवी करते हुए वे कहते हैं, ‘मैं अमेरिका के सबसे बड़े विश्वविद्यालयों में से एक का विद्यार्थी होने के नाते यह विश्वास करता हूं कि पुस्तकालय एक ऐसी जगह होती है, जहां लोगों के बौद्धिक एवं सामाजिक विकास एवं प्रतिभा में वृद्धि होती है। मुझे बड़े दुःख के साथ कहना पड़ रहा है कि बंबई शहर में इसकी कमी है। अत: इस सुअवसर का लाभ उठाते हुए मैं बंबई की जनता से प्रार्थना कर रहा हूं कि आधुनिक भारत के इस नायक का सुव्यवस्थित और स्थाई स्मारक बनाने का पूण्य कार्य करें।’ यह पत्र भी कोलंबिया विश्वविद्यालय से लिखा गया है। पत्र में अपने समय के नेताओं को याद किया गया है। साथ ही उनकी स्मृति में पुस्तकालय बनाने पर जोर दिया गया है। बाबा साहेब मानते थे कि ज्ञान से समाज को दिशा और गति मिलती है। सबको आगे बढ़ने का अवसर प्राप्त होता है। उनकी यही प्रवृत्ति आगे चलकर  सामाजिक आंदोलन और संविधान के निर्माण के समय सबके लिए सबके लिए शिक्षा के अधिकार के रूप में फलीभूत हुई। साथ ही पत्र से ज्ञात होता है कि वे सर्वसमावेशी थे। गोखले और मेहता जैसे गैर -दलित नेताओं को भावभीनी आदरांजलि देना चाहते हैं।

विधि मंत्री के रूप डा. आंबेडकर शपथ ग्रहण करते हुए

कई पत्रों में दूसरे लोगों ने बाबा साहेब के विषय में लिखा है। एक पत्र मिस्टर वेब, जो अपने समय के मानव विश्वकोष के नाम से जाने जाते थे, जिन्होंने फैबियन सोसायटी की स्थापना की थी, साथ ही साथ एक प्रखर समाजवादी विचारक थे, को लिखा गया है। पत्र लिखने वाले हैं, प्रो. एलविन आर सेलिगमैन, जो कोलंबिया विश्वविद्यालय के प्रोफेसर, जिन्होंने डा भीमराव अंबेडकर के शोध – प्रबंध, ‘इवोल्युशन ऑफ प्रॉविंसियल फाइनेंस इन ब्रिटिश इंडिया’ की प्रस्तावना लिखी थी, उन्होंने लिखा है। पत्र इस प्रकार है –

मिस्टर वेब                                                                                                                                               कोलम्बिया विश्वविद्यालय,

4, ग्रेस्नेवर रोड,                                                                                                                                         न्यूयार्क शहर,              

वेस्टमेंस्टर, एम्बेन्कमेंट,                                                                                                                           राजनीतिशास्त्र संकाय  

लंदन, इग्लैंड,                                                                                                                                             23, मई, 1916         

 

मेरे प्रिय वेब,

अगर आप अनुमति देंगे तो मैं अपने शोध छात्र मि. भीमराव आंबेडकर का आपसे परिचय कराना चाहता हूं। आंबेडकर बड़ौदा की स्टेट स्कॉलरशिप पर हमारे पास तीन साल के लिए आए हैं। भारत के वित्तीय इतिहास पर अपने शोध प्रबंध समाप्त करने के लिए लंदन में अभी प्रथम वर्ष गुजार रहे हैं। वे एक उत्तम, संयमशील, खुले विचारों वाले उदारवृत्ति वाले योग्य छात्र हैं। मुझे विश्वास है कि उनके शोध-कार्य में मदद करने में आपको भी खुशी होगी।

आपका आज्ञाकारी,

एडविन आर.ए. सेलिगमैन

अंबेडकर के पक्ष में विदेशी भूमि से यह सहयोग भी प्राप्त हुआ। साक्ष्य में प्रस्तुत है यह पत्र –

सर लियोनेल अब्राहम,

मिस्टर आंबेडकर स्कूल ऑफ इकॉनामिक्स में एक स्नातक छात्र की हैसियत से प्रवेश ले रहे हैं। वे इंडिया ऑफिस लाइब्रेरी में पढ़ना चाहते हैं। मैं आपका अत्यंत आभारी रहूंगा, यदि आप कृपा करके,जो हो सके, जो अनुमति योग्य हो, वे सब सुविधाएं उन्हें दें।

आपका विश्वसनीय,

सिडनी वेब

प्रस्तुत पत्रों की रौशनी में विचार किया जाए कि क्या भारत में किसी दलित छात्र के लिए  किसी प्रोफेसर से इस प्रकार की सदिच्छा की उम्मीद की जा सकती (है) थी? अंग्रेज विदेशी थे। वे हर तरह से भारत का शोषण कर रहे  थे, पर शोषण जातिगत नहीं था। जबकि आजाद भारत में आज भी जातिगत शोषण नहीं रूक पाया है। यह बात अलग है कि अब तक भारत के जातिगत शोषण का इतिहास दर्ज नही किया जा सका है। दो – एक आधे – अधूरे प्रयास हुए हैं, पर उन्हें पर्याप्त नही कहा जा सकता। बाबा साहेब पर अंग्रेजों की जातिविहीन व्यवस्था का बहुत सार्थक प्रभाव पड़ा होगा। उनके समता और मानववादी चिंतन पर बुद्ध के अतिरिक्त पाश्चात्य विचारकों का भी असर पड़ा, जो संविधान में कई स्थलों पर विंबित हुआ है। आंबेडकर समावेशी चिंतक थे। उन्होंने दुनियां के चिंतन को न केवल पढ़ा था, बल्कि पचाया भी था। उनकी इस क्षमता को विदेशी विद्वान भी स्वीकार करते हैं।

ऊपर दिया गया पत्र सन 1916 का है। विचार किया जाए कि सन 1916 में विदेशी प्रोफेसर बाबा साहेब के लिए पैरवी करता है, जबकि हमारे देश में आज भी रोहित बेमुला जैसे मेधावी छात्रों को आत्महत्या का चुनाव शोषण की तुलना में सहज और सरल प्रतीत होता है।

गोलमेज सम्मेलन में डा. आंबेडकर और गांधी

बाबा साहेब का संघर्ष एक दलित निर्धन छात्र का संघर्ष था, जिसके दौरान दलित-अछूत होने के नाते वे भारत में प्रताड़ित व अवहेलित होते रहे। पर उनके मन की करुणा कभी कम नहीं हुई। उनके द्वारा स्थापित संस्थाएं और संविधान की संरचना इस स्वभाव का गवाह हैं। शिक्षा ग्रहण करने के दौरान बाबा साहेब को धनाभाव की समस्या से गुजरना पड़ा, जिसकी वजह से कई बार उनका अध्ययन भी बाधित हुआ। एक पत्र इसी संदर्भ में है –

तार का पता

एज्युकेशन बडौदा,                                                                                                                                             ई.ई.डी.एफ.एस. नं. 43                

                                                                                                                                                                         नं. 8088, आंफ 119 19-19

ऑफिस ऑफ दी एज्युकेशन कमिश्नर

फ्राम,                                                                                                                                                                  बडौदा, 13-14मई, 1920

ए.बी. क्लार्क स्कॉयर, बी.ए. (कंनटंब)

दी एज्युकेशन कमिश्नर, बडौदा स्टेट, बडौदा,

टू

डॉ भीमराव अंबेडकर,

दी सिडमहम कॉलेज ऑफ कॉमर्स एंड इकोनॉमिक्स, बंबई

विषय – कर्ज की वापसी

महोदय,

सम्मान के साथ मेरे पत्र क्रमांक 4675 दिनांक 24 नवंबर 1920: तत्पश्चात स्मृति पत्र क्रं. 6121 दिनांक 18 मार्च 1920 पर उपर्युक्त विषय में आपका ध्यानाकर्षण करना चाहता हूं और निवेदन है कि इस संदर्भ में आप अच्छी तरह विचार करेंगे और शिघ्रता से स्टेट की कर्ज वापसी की कार्रवाही करेंगे।

सम्मान सहित महोदय,

आपका अति आज्ञाकारी कर्मचारी,

बी. ए. क्लार्क

कमिश्नर ऑफ एजुकेशन, बड़ौदा स्टेट

विदेश से शिक्षा हासिल करने के लिए बड़ौदा स्टेट की ओर से बाबा साहेब को रू. 21000 की धनराशि दी गई थी, जिसे शिक्षा पूरी कर लेने के बाद स्टेट की नौकरी करके चुकाना था। शिक्षा पूरी कर लेने के बाद बाबा साहेब ने स्टेट की सेवा में पदभार ग्रहण कर लिया, परंतु वहाँ के जातिगत भेदभाव के कारण नौकरी छोड़नी पड़ी। बाबा साहेब साहूजी महाराज के प्रति कृतज्ञ थे। वे स्टेट का कर्ज चुकाने के लिए बंबई के में प्राध्यापक दी सिडमहम कॉलेज ऑफ कॉमर्स एंड इकोनॉमिक्स, बंबई की नौकरी के लिए आवेदन किए। इस कॉलेज के प्रधानाचार्य पर्सी एंस्टी ने स्टेट को आश्वस्त किया कि कॉलेज की ओर आंबेडकर के वेतन से काटकर स्टेट का कर्ज अदा कर दिया जाएगा। पत्र इस प्रकार है –

बड़ोदा में नौकरी करने के लिए डॉ. आंबेडकर अनिच्छुक हैं, क्योंकि वहां की शर्तें, उनकी जाति से संबंधित व्यक्ति के लिए कठिन कर देती हैं और दूसरी ओर हिज हायनेस (बड़ौदा नरेश) के उपकार को पूरी तरह मान्यता भी देते हैं और वे मुझे यकीन दिलाते हैं कि उनको पेशगी में दी गई रकम, जैसे ही स्थाई नियुक्ति उन्हें मिलती है, वापस कर देंगे।

बाबा साहेब शाहूजी महाराज का विशेष आदर करते थे। आंबेडकर 31 जनवरी 1920 को मूक समाज (अछूतों) के लिए मूक नायक एक पक्षिक पत्र की शुरूआत की। उन्होंने पत्र का संपादन पांडुरंग नंदराम भटकर को सौंपा। पत्र का एक विशेष अंक साहूजी महाराज के बहुजन हित में किए गए कार्यों पर केन्द्रित था, जिसे महाराज के जन्म दिन 26 जून को निकालने का निर्णय लिया गया। इसी संदर्भ में आंबेडकर शाहूजी को संबोधित करते हुए यह पत्र लिखते हैं –

मूक नायक अंक

परक बंबई

13. 06. 1920

श्री मन्महाराज शाहूजी छत्रपति करवीर

हुजूर की सेवा में,

माणगांव और नागपुर की सभाओं में जो प्रस्ताव पारित हुए थे उनका अनुसरण करते हुए 26 जून को आपका जन्मदिवस मनाया जाने वाला है। उसी दिन आपके आश्रय से निकलने वाले मूक नायक का विशेष अंक निकलने का आयोजन है। उसमें हुजूर के फोटो सहित आपके कार्यकाल में हुए उज्ज्वल कार्यों की रूपरेखा भी दी जाएगी। इसलिए हुजूर से संबंधित वास्तविक जानकारी प्राप्त करने के लिए मैंने विनती की थी। परंतु वह जानकारी अब तक नहीं प्राप्त हुई है, इसलिए खेद होता है। थोड़े ही दिन बचे हैं। इसलिए आवश्यक जानकारी प्राप्त करने के लिए मैंने स्वयं ही आने का सोचा है। इस उद्देश्य से मैं आज शाम को कोल्हापुर आने के लिए निकल रहा हूं। मंगलवार शाम को पहुचुंगा। हुजूर के दर्शन का लाभ तो होगा ही।

आपका कृपाभिलाषी

भीमराव आंबेडकर

शाहूजी महाराज और आंबेडकर के परस्पर विश्वास और आदर का संबंध था। महाराज विशेष परिस्थितियों में बाबा साहेब से परामर्श और सहयोग लेते रहते थे। पत्रों से पता चलता है कि शाहूजी महाराज बहुजन समाज और राजनीति में गहरी रूचि लेते थे। इन पत्रों से यह भी ज्ञात होता है कि कैसे तिलक और सवर्ण नेता महाराज और स्टेट के धन का दुरूपयोग करते थे। साथ ही यह भी कि वे बहुजन जातियों पर वे क्या राय रखते। साक्ष्य स्वरूप प्रस्तुत है यह पत्र –

छत्रपति महाराज ऑफ कोल्हापुर

 

कोल्हापुर

23.06.1920

मेरे प्रिय डॉ. आंबेडकर,

मेसर्स लिटिल एंड कंपनी से कृपया दो विषयों पर संपर्क कीजिए। पहला मुद्दा यह की तिलक द्वारा महारों को अपराधी कहा गया। क्या उनके विरोध में दीवानी केस दायर कर सकते हैं? दूसरा मुद्दा यह कि क्या जनता के लिए दिए गए अनुदान का उपयोग उनकी पार्टी द्वारा सही तरीके से किया जा रहा है? इस संबंध में लंबा हिसाब – किताब देखा गया है। उन एकाउंट (ब्यौरों) को देखते हुए क्या उन लोगों के खिलाफ दीवानी या फौजदारी या दोनों मुकदमें दायर करने की संभावना है ?

आपका आज्ञाकारी,

शाहूजी छत्रपति

अपने समय में बाबा साहेब युगपुरुष थे। वे देश और दुनिया से जुड़े हुए थे। पत्र इस जुड़ाव को समझने में मदद करते हैं। पत्र उनके संघर्ष और संपर्क का आईना हैं। पत्रों के सहारे उनके समय को जाना परखा जा सकता है। सामाजिक–सांस्कृतिक, राजनैतिक और आर्थिक मोर्चे पर उन्हें जितना संघर्ष करना पड़ा था, उसकी बानगी इन पत्रों में देखी जा सकती है। इस तरह के अनेक पत्र हैं जो मूलनिवासी अवधारणा के लिए ऐतिहासिक महत्त्व रखते हैं। इन्हें जान समझ कर मूलनिवासी अवधारणा के अंतरराष्ट्रीय स्वरूप का निर्धारण किया जा सकता है।  प्रस्तुत आलेख में कुछ पत्रों के माध्यम से बस एक झांकी भर पेश करने का प्रयास किया गया है। उम्मीद है कि इस विषय को अकादमिक और विमर्श के दायरे में लाया जाएगा ताकि कुछ बंद दरवाजे खोले जा सकें।


फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्‍त बहुजन मुद्दों की पुस्‍तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्‍स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्‍य, सस्‍क‍ृति व सामाजिक-राजनीति की व्‍यापक समस्‍याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्‍स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +919968527911, ईमेल : info@forwardmagazine.in

लेखक के बारे में

जनार्दन गोंड

जनार्दन गोंड आदिवासी-दलित-बहुजन मुद्दों पर लिखते हैं और अनुवाद कार्य भी करते हैं। ‘आदिवासी सत्ता’, ‘आदिवासी साहित्य’, ‘दलित अस्मिता’, ‘पूर्वग्रह’, ‘हंस’, ‘परिकथा’, ‘युद्धरत आम आदमी’ पत्रिकाओं में लेख ,कहानियां एवं कविताएं प्रकाशित। निरुप्रह के सिनेमा अंक का अतिथि संपादन एवं आदिवासी साहित्य,संस्कृति एवं भाषा पर एक पुस्तक का संपादन। सम्प्रति इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिंदी व आधुनिक भारतीय भाषा विभाग में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं।

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