h n

भारतीय दर्शन की बहुजन परंपरा

बुद्ध द्वारा स्थापित भिक्षु-संघ दिखावे और कर्मकांड की संस्कृति से मुक्त था। सहजता के साथ-साथ वह उस सामूहिकताबोध की भी रक्षा करता था, जो ब्राह्मण धर्म के नेतृत्व में वर्ण-व्यवस्था के मजबूत होने के साथ-साथ छीजता जा रहा था। इसलिए जनसाधारण को जैसे ही बुद्ध-मार्ग के रूप में पुरोहितवाद से मुक्ति का रास्ता दिखाई दिया, उसने ब्राह्मणवाद से किनारा करना आरंभ कर दिया

नास्ति दत्तम् नास्ति हूतम् नास्ति परलोकम् इति।।—मेधातिथि
(प्रसाद चढ़ाना, यज्ञों में आहुतियां देना व्यर्थ है । परलोक जैसा कुछ भी नहीं है।)

मक्खली गोशाल

वैदिक संस्कृति के कर्मकांड, बलिप्रथा, पुरोहितवाद का उल्लेख जब-जब होता है, उसके प्रतिरोधी स्वरों की खोज हमें सीधे बौद्ध दर्शन तक ले जाती है। हम वैदिक समाज की कुरीतियों का प्रतिकार बुद्ध के दर्शन में खोजने लगते हैं। भारतीय संस्कृति के इतिहास में बौद्ध दर्शन का उदय युगांतरकारी घटना थी। जैन दर्शन की भांति उसका निकास भी श्रमण परंपरा से हुआ था। दोनों स्वतंत्र-समृद्ध दार्शनिक परंपरा से अनुप्रेत थे। ईश्वर, आत्मा, परमात्मा जैसी ध्यान भटकाने वाली अवधारणाएं दोनों को अस्वीकार थीं। बावजूद इसके बौद्ध दर्शन सीधे ध्यान में आता है तो इसलिए कि उसकी सफलता के अनुपात में समकालीन दर्शनों को मिली सफलता नगण्य थी। स्वयं बुद्ध अपनी सफलता के प्रति आश्वस्त थे। कुछ अवसरों पर तो संघ के प्रति उनका आत्मविश्वास देखते ही बनता था। महावीर के निधन के उपरांत उनके अनुयायियों के आपसी लड़ाई-झगड़े का समाचार जब चुंड द्वारा बुद्ध तक पहुंचाया गया तो उनका कहना था, ‘चुंड अब संसार में कितने उपदेशक हैं, जिन्हें इतनी प्रतिष्ठा और मान-सम्मान प्राप्त हुआ है, जितना मुझे? मुझे तो ऐसा कोई उपदेशक दिखाई नहीं पड़ता। हे चुंड! आज संसार में अनेक धार्मिक संघ हैं। परंतु मुझे ऐसा कोई संघ दिखाई नहीं पड़ता, जिसके भिक्षु संघ ने बौद्ध संघ जितनी सफलता और लोक-सिद्धि अर्जित की हो। यदि कोई व्यक्ति किसी धर्म को सभी तरह से सफल, संपूर्ण, त्रुटिहीन, सुगठित एवं सुस्थापित बताना चाहेगा, तो वह इसी संघ का उदाहरण देगा।’ अपनी विचारधारा, धर्म और संप्रदाय के प्रति सघन विश्वास, अनपेक्षित नहीं है। यह बात अलग हैं कि बुद्ध के निर्वाण प्राप्ति के महज ढाई सौ वर्ष के भीतर बौद्ध धर्म भी 18 संप्रदायों में बंट चुका था तथा उसके विभिन्न धड़ों के बीच गहरे मतभेद थे।

बावजूद इसके पुरोहित संस्कृति का असल विरोध बौद्ध दर्शन में नहीं था। सवाल है बुद्ध को मध्य-मार्गी माने तो पुरोहित संस्कृति का वास्तविक प्रतिपक्ष कौन-सा दर्शन था? क्या अहिंसा पर अव्यावहारिकता की सीमा तक जोर देने वाले जैन दर्शन को इसका श्रेय दिया जाए? बुद्ध की भांति महावीर भी भारत की प्राचीन श्रमण परंपरा की देन थे। उन्होंने भी वेदों को अप्रामाण्य मानकर ईश्वरत्व को नकारा था। बावजूद इसके जैन दर्शन, ब्राह्मणवादी दर्शनों का वास्तविक प्रतिपक्ष नहीं था। बौद्ध दर्शन की तरह वह भी मध्यमार्गी था। ब्राह्मणवादी दर्शन का असल विरोध भौतिकवादी विचारधारा में था, जिसके बुद्ध के जीवनकाल में ही कम से कम पांच प्रखर विचारक थे। मक्खलि गोसाल, अजित केशकंबलि, संजय वेलट्ठपुत्त, पूरण कस्सप और पुकुद कात्यायन। इस बात के पर्याप्त प्रमाण है कि बुद्ध को बोध प्राप्ति, या उनके प्रसिद्ध होने से बहुत पहले पांचों भौतिकवादी विचारक काफी प्रतिष्ठा बटोर चुके थे। उनकी विद्वता की धाक उनके विरोधियों पर भी थी। छठा नाम निगंठ नाथपुत्त का है, जो आगे चलकर जैन दर्शन के प्रवर्तक महावीर स्वामी के रूप में ख्यात हुए। विडंबना है कि बुद्ध और निगंठ नाथपुत्त को छोड़कर किसी भी विद्वान का उसके जीवन और विचारों को लेकर कोई स्वतंत्र, मौलिक ग्रंथ उपलब्ध नहीं है। उनके जीवन और विचारों का संक्षिप्त परिचय हमें बौद्ध एवं जैन ग्रंथों से प्राप्त होता है। उनके वर्णन में पर्याप्त भिन्नता है, किंतु इस बात से दोनों एकमत हैं कि पांचों दार्शनिक ब्राह्मणवादी दर्शनों के सशक्त विरोधी थे।

भौतिकवादी दार्शनिकों को लेकर ‘दीघ-निकाय’ के सामञ्ञफल सुत्त में गौतम बुद्ध एवं अजातशत्रु के बीच लंबी चर्चा है। उन्हें ‘संघ स्वामी’, ‘गणाध्यक्ष’, ‘बहुपूज्य’, ‘गणाचार्य’, ‘परमप्रज्ञ’, ‘अनुभवी विद्वान’, ‘साधु’, ‘मत-संस्थापक’, ‘तत्ववेत्ता’, ‘असंख्य समर्थकों वाला’ जैसे एकसमान विशेषणों से संबोधित किया गया है। सामञ्ञफल सुत्त के अनुसार उन दिनों बुद्ध राजगृह में वैद्य जीवक के आम्रवन में 1250 भिक्षुओं के साथ ठहरे हुए थे। उधर मगध-सम्राट अजातशत्रु दरबार में उत्तम आसन पर विराजमान था। पूर्णमासी का दिन था। उल्लासमय वातावरण के बावजूद अप्रसन्न सम्राट किसी विलक्षण मेधावी ‘श्रमण या ब्राह्मण के तत्वज्ञान द्वारा चित्त को प्रसन्न’ करना चाहता था। धर्म की आधारशिला सांसारिक सुखोपभोग को हेय और निस्सार दिखाने पर टिकी होती है। इस कसौटी पर बौद्ध धर्म भी बाकी से अलग नहीं रहा। सामञ्ञफल सुत्त का ध्येय सम्राट अजातशत्रु को श्रमण जीवन की उपयोगिता समझाकर ‘धम्म’ की ओर प्रवृत्त करना है। अंतर बस इतना है कि ब्राह्मणवादी धर्मों में मोक्ष की अवधारणा मुक्ति (मृत्योपरांत) के नाम पर रची गई है। बौद्ध धर्म के अनुसार निर्वाण इसी जन्म में संभव है। संवाद की शुरुआत में विकल अजातशत्रु दरबारियों से प्रश्न करता है—’क्या आप ऐसे विद्वान का नाम बता सकते हैं, जिसके पास बैठकर कुछ तत्व चर्चा की जा सके?’

अजित केशकंबली

एक दरबारी पूर्ण कस्सप का नाम लेता है, ‘महाराज! पूर्ण कस्सप, संघ-स्वामी, गणाध्यक्ष, गण-प्रमुख, बहु-सम्मानित, वयोवृद्ध, ज्ञानी, यशस्वी, मत-संस्थापक और बहुप्रज्ञ हैं। आप उन्हीं से ज्ञान-चर्चा करें।’ अजातशत्रु के शांत रहने पर दूसरे दरबारी बारी-बारी से मक्खलि गोसाल, पुकुद कात्यायन, अजित केशकंबलि, निगंठ नाथपुत्त तथा संजय वेलट्ठिपुत्त का नाम लेते हैं। अजातशत्रु उनसे प्रभावित होने की बजाय जीवक से पूछता है। जीवक अपने आम्रकुंज में ठहरे गौतम बुद्ध के पास जाने की सलाह देता है। कोई प्रश्न या शंका जाहिर करने की बजाय अजातशत्रु अपनी पांच सौ पत्नियों को हथनियों पर बिठा, स्वयं राजसी हाथी पर सवार होकर, पूरे ठाठ-बाट के साथ बुद्ध से भेंट करने हेतु प्रस्थान कर देता है। आम्रकुंज में संपूर्ण शांति देख अजातशत्रु के मन में संदेह उमड़ आता है —

‘सौम्य जीवक! कहीं तुम मुझसे छल तो नहीं कर रहे हो। तुमने बताया कि शास्ता के साथ 1250 भिक्षु भी हैं। पर यहां तो गहन सन्नाटा है। ऐसा क्यों?’ जीवक के आश्वासन देने पर सम्राट आम्रकुंज में प्रवेश करता है। वहां बुद्ध निर्मल-शांत जलाशय के समान भिक्षु-संघ के मध्य दिव्य कमल की भांति विराजमान हैं। कुशल-क्षेम जानने के पश्चात शास्ता उससे संबोधित होते हैं। अजातशत्रु अपनी जिज्ञासा व्यक्त करता है—’भंते जिस प्रकार विभिन्न प्रकार के शिल्प यथा हस्ति-आरोहण, अश्वारोहण, धनुर्विद्या, रथिक तथा शिल्पकार, युद्ध-ध्वज धारण करने वाले, उग्र योद्धा, महानाग (हाथी से युद्ध करने वाले), दास, कल्पक (नाई), नहापक (नहलाने वाले), काष्ठकार, चर्मकार, रजक, मालाकार, पेशकार, लौहकर्मी आदि अपने-अपने कर्तव्य द्वारा स्वयं को तृप्त करते हैं, उनका फल प्राप्त करते हैं, अपने सगे-संबंधियों, मित्रों, अमात्यों को भी लाभ पहुंचाते हैं—क्या वैसा फल इसी जन्म में श्रामण्य जीवन द्वारा भी संभव है?’ बुद्ध प्रतिप्रश्न करते हैं— ‘क्या यही प्रश्न तुमने दूसरे श्रमणों के सम्मुख भी रखा है?’ अजातशत्रु के ‘हां’ कहने पर वे उनके उत्तर बताने को कहते हैं।

सर्वप्रथम पूर्ण कस्सप के विचारों का जिक्र होता है। अजातशत्रु बताता है कि जब उसने पूर्ण कस्सप से यही प्रश्न किया तो उसका कहना था— ‘कार्य करते-कराते हुए, छेदन करते-कराते, शोक करते-कराते, चलते-चलाते, लूटते, चोरी-सैंधमारी करते-कराते, हत्या करते-कराते, दान देते-दिलाने से कोई पाप-पुण्य नहीं होता। यदि कोई व्यक्ति छुरे से किसी दूसरे व्यक्ति की गर्दन भी तराश दे, तब भी उससे कोई पाप नहीं होता। जीव-जगत की संपूर्ण हलचल सहित ब्रह्मांड की अनेकानेक क्रिया-अभिक्रियाएं भौतिक घटनाएं मात्र हैं। उनका कोई नैतिक या दैवीय आधार नहीं है।’ अक्रियावादी कस्सप के अनुसार मनुष्य भौतिक परिवेश का हिस्सा-भर होता है। घटनाएं उसके नियंत्रण से बाहर होती हैं। पूर्ण कस्सप से असंतुष्ट अजातशत्रु कहता है, ‘भंते जैसे कोई पूछे आम, जवाब मिले कटहल, और पूछे कटहल, जवाब मिले आम। ऐसे ही मैंने जो पूछा था, उसके स्थान पर पूर्ण कस्सप ने ‘अक्रियावाद’ का बखान किया। मैंने उनके कथन की न तो प्रशंसा की, न निंदा। केवल शांत-भाव से वहां से उठकर चला आया।’

आगे मक्खलि गोसाल के विचारों के बारे में बताया जाता है। उसके अनुसार—’घटनाएं स्वत: घटती हैं। उनका न तो कोई कारण होता है, न ही कोई पूर्व निर्धारित शर्त। उनके क्लेश और शुद्धि का कोई हेतु नहीं है। प्रत्यय भी नहीं है। बिना हेतु और प्रत्यय के सत्व क्लेश और शुद्धि प्राप्त करते हैं। न तो कोई बल है, न ही वीर्य, न ही पराक्रम। सभी भूत जगत, प्राणिमात्र आदि परवश और नियति के अधीन हैं। निर्बल, निर्वीर्य भाग्य और संयोग के फेर से सब छह जातियों में उत्पन्न हो सुख-दुख का भोग करते हैं…। संसार में सुख और दुख बराबर हैं। घटना-बढऩा, उठना-गिरना, उत्कर्ष-अपकर्ष जैसा कुछ नहीं होता। जैसे सूत की गेंद फेंकने पर उछलकर गिरती है और फिर शांत हो जाती है। वैसे ही ज्ञानी और मूर्ख सांसारिक कर्मों से गुजरते हुए अपने दुख का अंत करते रहते हैं।’ थोड़े ऐर-फेर के साथ गोसाल पूर्ण कस्सप के विचारों को ही दोहराता है।

‘अजित केशकंबलि के अनुसार न दान की उपयोगिता है, न यज्ञ की। न पाप है न ही पुण्य। न लोक है, न ही परलोक है, न माता हैं न ही पिता। न तो अयोनिज सत्व है, न ही ज्ञानी पुरुष जो इस लोक को जानकर इसकी व्याख्या करेंगे। मानव-मात्र चार तत्वों के योग से बना है। जब कोई मरता है तो पृथ्वी महापृथ्वी में, विलीन हो जाती है, जल, तेज, वायु आदि आकाश में विलीन हो जाते हैं। मृत देह को लोग खाट पर डालकर ले जाते हैं। उसकी निंदा या प्रशंसा होती है। थोड़ी देर बाद सबकुछ भस्म हो जाता है। हड्डियां उजली हो श्वेत कपोतों की भांति छितरा जाती हैं। न आत्मा है न ही परमात्मा। केवल मूर्ख लोग दान देते हैं, जिसका कोई फल नही होता। पंडित हो या मूर्ख, मृत्यु-पश्चात बाद सब नष्ट हो जाते हैं।’

कौत्स

अजातशत्रु आगे बताता है, ‘अगले दिन मैं पुकुद कात्यायन के सान्निध्य में पहुंचा। उसका मानना है कि सृष्टि, ‘सात पदार्थों से बनी है। उन्हें न तो बदलना संभव है, न ही विकारग्रस्त कर पाना। सातों पदार्थ परस्पर स्वतंत्र और निरपेक्ष हैं। वे न तो एक-दूसरे को हानि पहुंचाते हैं, न किसी और तरह से प्रभावित करते हैं। वे सात पदार्थ हैं—पृथ्वी, अग्नि, वायु, आकाश, सुख, दुख एवं जीवन। मनुष्य को इन सातों को लेकर हर्ष-शोक से बचना चाहिए। सातों मूल पदार्थ अचल, अखंड, निरपेक्ष और अपरिवर्तनीय हैं। पूरी तरह अजर, अमर, अपरिवर्तनीय है। नियति, प्रारब्ध, कर्म-अपकर्म जैसा कुछ नहीं है। यदि कोई तेज धार के हथियार से किसी की गर्दन तराश देता है तब भी वह कोई अपराध नहीं करता। केवल अपने हथियार से शरीर के दो हिस्सों के बीच तीसरे तत्व के लिए अंतराल बना देता है।’ अजातशत्रु बताता है— ‘भंते! मैंने तो श्रामण्य जीवन के फल के बारे में पूछा था, परंतु पकुद ने इधर-उधर की बातें कीं। उसके अनुसार सृष्टि के बीच कोई अंतर्संबद्धता नहीं है। सबकुछ निरपेक्ष और स्वतंत्र है। ऐसा भला कैसे हो सकता है!’ इसके पश्चात वह निगंठ नाथपुत्त के विचारों पर टिप्पणी करता है। लेकिन जैन मत इस लेख की विषय-सीमा से बाहर होने के कारण उसे छोड़ा जा रहा है।

संजय वेलट्ठिपुत्त का उत्तर अनेक संशयों से भरा था— ‘महाराज यदि आप पूछें कि क्या इस लोक के अलावा भी कहीं जीवन (मृत्यु पश्चात) है? और मैं यह सोचता हूं कि मृत्यु-पश्चात भी जीवन है। तो मैं आपको क्यों बताऊं! यदि मैं सोचता हूं कि परलोक है तो मैं आपको क्यों बताऊं कि परलोक है। इसलिए मैं ऐसा नहीं कहता। मैं वैसा भी नहीं कहता। मैं नहीं कहता कि यह नहीं है। मैं नहीं कहता कि नहीं, नहीं है। मैं नहीं कहता कि तथागत मरने के बाद भी होते हैं। मैं नहीं कहता कि तथागत मरने के बाद नहीं होते हैं।’ यानी संदेह ही संदेह। कुछ भी निश्चित नहीं। जिस संसार में हम रहते हैं, वहां जीवन को सुखी एवं सुरक्षित बनाने के लिए कुछ विश्वास भी करना पड़ता है। यह कहकर अजातशत्रु चुप हो जाता है। अध्याय में आगे श्रामण्य जीवन के फल के बारे में चर्चा है।

इन विचारों का गंभीरतापूर्वक अध्ययन किया जाए तो कोई खास अंतर दिखाई नहीं पड़ता। लगता है कि सब एक ही बात को घुमा-फिराकर कह रहे हैं। जहां कुछ अंतराभास है, वहां स्पष्टता की कमी है। इस कारण उनकी ओर से किसी परिपक्च दर्शन की तस्वीर नहीं बन पाती। दूसरा अंतर प्रवृत्ति को लेकर है। अजातशत्रु का प्रश्न श्रमण जीवन की उपयोगिता को लेकर है। वह जानना चाहता है कि जो लोग सश्रम आजीविका कमाकर लोकजीवन में अपना योगदान देते हैं, तथा वे लोग जो सांसारिक जीवन को त्यागकर निष्पृह, निर्लिप्त सांसारिक यायावर जीवन अपनाते हैं—दोनों के फल में क्या अंतर है? लोकजीवन में सीधे सहयोग करने वालों का योगदान स्पष्ट दिखता है। जबकि श्रमण जीवन को अपनाने वाले लोगों का योगदान, भले ही उनके अपने निमित्त हो अथवा कुल समाज के—नजर नहीं आता। इसका सही-सही उत्तर देने के बजाय वे अपने-अपने दार्शनिक विचारों का वर्णन करने लगते हैं। इस प्रसंग की चर्चा ‘दीघ-निकाय’ के अलावा ‘मिलिंद प्रश्न’ तथा दूसरी जगह भी हुई है। यह सच है, यह दावे के साथ नहीं कहा जा सकता। क्योंकि निगंठ नाथपुत्त को छोड़कर जिन्होंने आगे चलकर जैन मत का प्रवर्तन किया, शेष पांचों दार्शनिकों के लिए श्रमण संस्कृति को लेकर खास उत्साह नहीं था। ‘दीघ-निकाय’ में उन्हें ‘संघ प्रमुख’, गणाध्यक्ष, ज्ञानी, अनुभवी, यशस्वी, तीर्थंकर (मत-संस्थापक) आदि बताया गया है, लेकिन संघ प्रमुख से लेखक का आशय अनुयायियों के समुच्चय से है। भौतिकवादी दार्शनिकों में सृष्टि की उत्पत्ति को लेकर भले ही मतांतर हों, लेकिन वे सभी जीवन से भागने के बजाय उसकी उपयोगिता पर जोर देते थे। सुख उनके लिए मायावी अथवा हेय वस्तु नहीं था। बल्कि वह तत्व था (और है भी), जो जीवन को उत्सव में ढालने के लिए आवश्यक होता है—’दुख के डर से हमें उस सुख से मुंह नहीं मोडऩा चाहिए, जिसे हमारी बुद्धि अपने लिए अनुकूल समझती है। पशुओं द्वारा चर लिए जाने के भय से लोग धान बोना बंद नहीं कर देते। न ही भिखारियों के भय से भोजन पकाना रोक देते हैं।(माधवाचार्य, सर्वदर्शन संग्रह, 9.3)। धर्म और मोक्ष के नाम पर जब समस्त संसाधन पंडितों और क्षत्रियों ने हथिया लिए हों, तब ऐसी सोच क्रांतिकारी ही कही जाएगी।

यह संभव है कि अजातशत्रु का नास्तिक दार्शनिकों से मुलाकात करना सिर्फ लेखकीय कल्पना हो। या वस्तुत: उस रूप में न हो जैसा ‘दीघ-निकाय’ तथा दूसरे धर्मग्रंथों में बताया गया है। लेकिन इससे उन दार्शनिकों को कल्पित नहीं कहा जा सकता। बल्कि इससे उनकी समाज में व्यापक स्वीकार्यता का पता चलता है। अपने मत की स्थापना के लिए बौद्ध दार्शनिकों को न केवल अपने पूर्ववर्ती दार्शनिकों के मत का खंडन अनिवार्य जान पड़ता है, बल्कि खंडन के लिए शक्तिशाली मगध सम्राट को बीच में लाना पड़ता है। अपने धर्म-संप्रदाय के लिए दूसरे धर्म-संप्रदाय को कमतर आंकना, उनमें जानबूझकर खोट निकालना धर्माचार्यों की पुरानी प्रवृत्ति रही है। बौद्ध विचारक भी इससे मुक्त न थे। हमारी विवशता है कि प्राचीन भौतिकवादी दर्शनों के अध्ययन-विश्लेषण हेतु स्वतंत्र ग्रंथ के अभाव में, हमें उन्हीं जैन और बौद्ध स्रोतों की ओर लौटना पड़ता है जिनके लेखक उनके प्रतिद्विंद्वी और आलोचक रहे हैं; तथा जिन्होंने तथ्यों को मनमाने ढंग से तोड़-मरोड़कर पेश किया है।

भारतीय वाङ्मय में बहुजन परंपरा के इन दार्शनिकों को लेकर जानकारी न केवल अत्यल्प है, बल्कि उसमें काफी विरोधाभास भी है। ‘दीघ-निकाय’ में पांचों नास्तिक विचारकों को बुद्ध का समकालीन बताया गया है। एक जातक कथा के अनुसार पांचों भौतिकवादी दार्शनिक काशी सम्राट बुद्धगुप्त के महामात्य थे। अपने पूर्वजन्मों में बुद्ध ने उन पांचों को परास्त किया था। इससे वे बुद्ध के पूर्ववर्ती सिद्ध होते हैं। ‘मिलिंद प्रश्न’ ‘दीघ-निकाय’ से 250-300 वर्ष बाद की रचना है। ‘दीघ-निकाय’ में संवाद सम्राट अजातशत्रु और गौतम बुद्ध के बीच है, ‘मिलिदं प्रश्न’ में अजातशत्रु की जगह ग्रीक मूल का भारतीय सम्राट मिनांडर ले लेता है। शब्दावलि दोनों की समान है। विद्वान ‘मिलिंद प्रश्न’ की मौलिकता पर संदेह करते हैं। मल्लशेखर, दुर्गाप्रसाद चट्टोपाध्याय आदि का मानना है कि ‘मिलिंद प्रश्न’ का संबंधित प्रकरण सामञ्ञफल सुत्त की सस्ती नकल है। ‘संयुत्त निकाय’ (1/69) के एक प्रसंग में कोशल सम्राट प्रसेनदि मक्खलि गोसाल तथा अन्य नास्तिक विचारकों की तुलना में गौतमबुद्ध को नौसीखिया बताता है। यह भी आया है कि गोसाल महावीर से दो वर्ष पहले ही ‘जिन’ की पदवी प्राप्त कर चुके थे।

आजीवक दार्शनिकों के बारे में गहन शोध करने वाले ए. एल. बाशम का तो यहां तक मानना है कि निगंठ नाथपुत्त सहित सभी छह उपदेशक ‘एक ही उपदेश समवाय के सदस्य थे।’ जैन और बौद्ध लेखकों ने उनके विचारों को घुमा-फिराकर प्रस्तुत किया है। पांचवी शताब्दी के बौद्ध विद्वान बुद्धघोष के अनुसार पूर्ण कस्सप दास थे। जिस स्वामी के यहां रहते थे, उसके पास पहले से ही 99 दास थे। कस्सप के शामिल होने के पश्चात संख्या बढ़कर 100 हो गई। इस संख्या को पूर्ण मानते हुए उनका नामकरण किया गया था। जैन परंपरा में बताया गया है कि वे संपूर्ण ज्ञानी होने के कारण ही वे ‘पूर्ण’ कहलाए। ‘कस्सप’ उपनाम को देखते हुए वेणीमाधव बरुआ उन्हें ब्राह्मण गौत्रीय बताते हैं। यह बात हजम नहीं होती। क्योंकि जिस काल में पूर्ण कस्सप का जन्म हुआ, उसमें ब्राह्मण को, वह चाहे जितना विपन्न हो, दास नहीं बनाया जा सकता था। दूसरे कस्सप गोत्रनाम के शूद्रों में भी होते हैं। मक्खलि का जन्म गोशाला में हुआ था। इसी से उनके नाम के साथ ‘गोसाल’ जुड़ा। जैन परंपरा के अनुसार ‘मक्खलि’ ‘मंख’ से बना है। मंख एक पिछड़ी जाति थी। जिसके सदस्य चारण या भाट जैसा जीवन यापन करते हैं। जैन साहित्य के अनुसार मक्खलि हाथ में मूर्ति लेकर भटका करता था। अजित केशकंबलि के बारे में बताया जाता है कि वह शरीर पर हमेशा मोटा कंबल लिपेटे रखता था। पुकुद कात्यायन और संजय वेलट्ठिपुत्त के बारे में अधिक जानकारी नहीं है। बुद्धघोष ने पकुध को सनकी बताया है। उसके अनुसार वह हमेशा गर्म पानी ही ग्रहण करता था। नदी-नाले को पार करना पाप समझता था। यदि करना ही पड़े तो बाद में प्रायश्चित करता था। यदि गर्म पानी न मिले तो वह नहाना छोड़ देता था। संजय वेलट्ठिपुत्र को कुछ विद्वान ‘संजय परिब्बाक’ कहते हैं। संजय के साथी जब अपने गुरु का साथ छोड़ देते हैं। इससे निराश होकर वह आत्महत्या कर लेता है। पूर्ण कस्सप भी बुद्ध से जादू के खेल में पराजित आत्महत्या का मार्ग चुनता है। कुछ विद्वानों का मानना है कि लोकायत दर्शन, जिसे वे अपनी-अपनी तरह से परिभाषित करते हैं, का ईसा से 250-300 साल पहले तक एक विशिष्ट ग्रंथ था। इन दिनों उसका कोई अस्तित्व नहीं है। संभव है उसे नष्ट कर दिया गया हो। पोंगापंथी पुरोहितों के लिए यह सामान्य बात थी।

सवाल है कि अपने प्रवर्तक और शास्ता के जीवन-संबंधी घटनाओं, विचारों को संग्रहीत करने का जो युगांतरकारी कार्य बुद्ध के शिष्यों ने किया, वैसा पूर्ण कस्सप, मक्खलि गोसाल या अजित केशकंबलि के शिष्यों ने क्यों नहीं किया? इसका समाधान भारतीय समाज की अंतर्ग्रंथियों को सुलझाने में हमारी मदद कर सकता है। हालांकि जो लोग भारत की सामाजिक संरचना से परिचित हैं, उनके लिए यह जटिल पहेली नहीं है। महाभारतकाल तक वर्ण-व्यवस्था जाति व्यवस्था के रूप में रूढ़ हो चुकी थी। ब्राह्मण समाज के शीर्ष पर आसीन थे। बिना उनकी सहमति के किसी भी निर्णय को लागू कर पाना असंभव था। निहित स्वार्थ के लिए वे नास्तिक विचारधारा को नापसंद करते थे। चूंकि नास्तिक विचारक न केवल ईश्वर और उसकी सत्ता का बल्कि सभी प्रकार के कर्मकांडों, जिनके चलते ब्राह्मणों को विशेषाधिकार प्राप्त थे, का विरोध करते थे। अतएव ब्राह्मणों द्वारा जो उस समय का पढ़ा-लिखा वर्ग था—उनकी उपेक्षा स्वाभाविक थी।

महावीर स्वामी और बुद्ध के साथ ऐसा संभव नहीं था। वे दोनों क्षत्रिय कुलोत्पन्न थे। समाज के शीर्ष वर्गों पर उनका प्रभाव था। बुद्ध के प्रमुख शिष्य आनंद, सारिपुत्र, मोदग्लायन आदि ब्राह्मण वर्ग से आए थे। ‘यथा राजा तथा प्रजा’ की नीति पर अमल करते हुए बुद्ध ने अपने समय के सभी सम्राटों को प्रभावित किया था। उनके जीवनकाल में ही उनका ‘मार्ग’ काफी प्रतिष्ठा बटोर चुका था। इसलिए बुद्ध के निर्वाण प्राप्ति के तुरंत बाद उनके शिष्यों ने उनके विचारों और जीवन-यात्रा को शब्द-बद्ध करना आरंभ कर दिया था। बुद्ध द्वारा स्थापित भिक्षु-संघ दिखावे और कर्मकांड की संस्कृति से मुक्त था। सहजता के साथ-साथ वह उस सामूहिकताबोध की भी रक्षा करता था, जो ब्राह्मण धर्म के नेतृत्व में वर्ण-व्यवस्था के मजबूत होने के साथ-साथ छीजता जा रहा था। इसलिए जनसाधारण को जैसे ही बुद्ध-मार्ग के रूप में पुरोहितवाद से मुक्ति का रास्ता दिखाई दिया, उसने ब्राह्मणवाद से किनारा करना आरंभ कर दिया। कह सकते हैं कि समाज का श्रेष्ठिवर्ग यज्ञादि आयोजनों, बलि आदि से होने वाले नुकसान से बचने के लिए बौद्ध धर्म की ओर प्रवृत्त हुआ था। जबकि जनसाधारण उस नुकसान की भरपाई के साथ जातीय भेदभाव एवं पुरोहितवाद से मुक्ति की कामना के साथ उसकी ओर आकर्पित था। घोर नास्तिकतावाद तथा विशेषाधिकार प्राप्त ब्राह्मणवाद के बीच लोगों ने मध्य मार्ग को अपनाना ही उचित समझा था। अपनी राजनीतिक पैठ के फलस्वरूप जैन और बौद्ध दर्शन स्वयं को ब्राह्मण धर्म का विकल्प सिद्ध करने में सफल सिद्ध हुए। जबकि नास्तिक विचारकों के साथ उनके विचार भी पीछे छूटते चले गए। परंपरापोषी लेखकों ने जब भी उनका जिक्र किया, ‘दीघ-निकाय’ की भांति खंडन और कटाक्ष की भाषा में किया।

आम धारणा है कि जनसाधारण केवल ‘खाओ पीओ और मौज करो के दर्शन पर यकीन करता था। इसलिए वह लोकायत कहलाता था। क्या केवल भोगवाद के आधार पर ब्राह्मणवाद के किले में सैंध लगाना संभव था? भौतिकवादी चिंतनधारा प्रकृति केंद्रित रही है। श्रम के आधार पर आत्मनिर्भरता का जीवन जीने वाले लोगों के लिए यह स्वाभाविक ही था। इसलिए भौतिकवादी दार्शनिकों के बारे में जो बातें ‘दीघ-निकाय’ और दूसरे ग्रंथों में बताई गई हैं, उनको शब्दश: नहीं लिया जाना चाहिए। लोकायतों और आजीवकों की विचारधारा वस्तुत: जीवन और प्रकृति को ही सबकुछ मानने वाली, ‘सर्वेश्वरवाद’ जैसा उदार दर्शन रही होगी। बौद्ध और जैन धर्म के उदय से पहले उन्होंने ही ब्राह्मणवादी दर्शनों के विरोध की जमीन तैयार की थी, जिसपर आगे चलकर उन दर्शनों ने अपनी सफलता की महागाथाएं लिखीं और मानवतावादी दर्शन कहलाए। नास्तिक विचारकों का चिंतनकर्म धारा के विरुद्ध चलने जैसा चुनौतीपूर्ण कार्य था, जिसे उन्होंने अपनी अद्वितीय प्रतिभा, संघर्ष एवं लोकसमर्थन के दम पर संपन्न किया था। उन विचारकों के बारे में जानना, समझना भारतीय सभ्यता, संस्कृति और दर्शन के सबसे परिवर्तनकारी और संघर्ष-धर्मा युग से संवाद करने जैसा है।

(फारवर्ड प्रेस के मई 2016 अंक में प्रकाशित)


फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्‍त बहुजन मुद्दों की पुस्‍तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्‍स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्‍य, सस्‍क‍ृति व सामाजिक-राजनीति की व्‍यापक समस्‍याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्‍स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +919968527911, ईमेल : info@forwardmagazine.in

लेखक के बारे में

ओमप्रकाश कश्यप

साहित्यकार एवं विचारक ओमप्रकाश कश्यप की विविध विधाओं की तैतीस पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं। बाल साहित्य के भी सशक्त रचनाकार ओमप्रकाश कश्यप को 2002 में हिन्दी अकादमी दिल्ली के द्वारा और 2015 में उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान के द्वारा समानित किया जा चुका है। विभिन्न पत्रपत्रिकाओं में नियमित लेखन

संबंधित आलेख

हूल विद्रोह की कहानी, जिसकी मूल भावना को नहीं समझते आज के राजनेता
आज के आदिवासी नेता राजनीतिक लाभ के लिए ‘हूल दिवस’ पर सिदो-कान्हू की मूर्ति को माला पहनाते हैं और दुमका के भोगनाडीह में, जो...
यात्रा संस्मरण : जब मैं अशोक की पुत्री संघमित्रा की कर्मस्थली श्रीलंका पहुंचा (अंतिम भाग)
चीवर धारण करने के बाद गत वर्ष अक्टूबर माह में मोहनदास नैमिशराय भंते विमल धम्मा के रूप में श्रीलंका की यात्रा पर गए थे।...
जब मैं एक उदारवादी सवर्ण के कवितापाठ में शरीक हुआ
मैंने ओमप्रकाश वाल्मीकि और सूरजपाल चौहान को पढ़ रखा था और वे जिस दुनिया में रहते थे मैं उससे वाकिफ था। एक दिन जब...
When I attended a liberal Savarna’s poetry reading
Having read Om Prakash Valmiki and Suraj Pal Chauhan’s works and identified with the worlds they inhabited, and then one day listening to Ashok...
मिट्टी से बुद्धत्व तक : कुम्हरिपा की साधना और प्रेरणा
चौरासी सिद्धों में कुम्हरिपा, लुइपा (मछुआरा) और दारिकपा (धोबी) जैसे अनेक सिद्ध भी हाशिये के समुदायों से थे। ऐसे अनेक सिद्धों ने अपने निम्न...