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महागठबंधन : संतों के घर झगड़ा भारी

नीतीश कुमार बहुत नुकसान में नहीं हैं। लोक दायरे में उनकी स्थिति ऐसी तो बनी ही हुई है कि भाजपा को भी उनके लिए बिना शर्त समर्थन की घोषणा बार-बार करनी पड़ रही है। उनकी कठिनाइयां उनके दल के भीतर है। कहने को उनका दल राष्ट्रीय जरुर है लेकिन वह काहिल, अदूरदर्शी और चापलूस नेताओं का आरामगाह बन कर रह गया है। विश्लेषण कर रहे हैं प्रेमकुमार मणि :

21 जून की तारीख नीतीश कुमार के लिए कुछ खास रही है। 21 जून 1994 को उन्होंने जनता दल से अपने को अलग किया था और लालू प्रसाद को एक झटका दिया था। अनेक वर्षों तक लड़-झगड़ कर दोनों 2014 में फिर एक साथ हुए। तीन साल साथ रहकर पिछले महीने की 21 जून को फिर एक झटका दिया, जब उन्होंने भाजपा के राष्ट्रपति उम्मीदवार को अपने समर्थन की घोषणा कर दी। 22 जून को विपक्षी दलों की बैठक होनी थी। नीतीश बैठक में नहीं गए, उनका कोई प्रतिनिधि भी शामिल नहीं हुआ। 23 जून को लालू प्रसाद के आवास पर आयोजित इफ्तार पार्टी में दोनों कटे-कटे से दिखे। अगले रोज अलबत्ता दोनों के बीच बातचीत की खबर मिली, लेकिन मामला कुछ बना नहीं। नीतीश अपने फैसले पर कायम रहे। दिल्ली में विपक्षी दलों की बैठक से निकलकर लालू प्रसाद ने जिहादी अंदाज में भाजपा-विरोध के अपने संकल्प को दुहराया। साल भर पहले संघ-मुक्त भारत का नारा देने वाले नीतीश कुमार अपने ही शिविर में अलग-थलग दिखने लगे। उन्होंने राजनीतिक विश्लेषकों को हैरत में डाल दिया। बिहार की राजनीति ज्यादातर लोगों के लिए एक अबूझ पहेली बन गई।

इस वर्ष के प्रारंभ में पटना में एक सांस्कृतिक कार्यक्रम के दौरान एक-दूसरे का अभिवादन करते लालू-नीतीश

पहेली और जटिल हो गई, जब जुलाई की 5 तारीख को सीबीआई ने लालू प्रसाद, उनकी पत्नी और पूर्व मुख्यमंत्री राबड़ी देवी और बिहार के उपमुख्यमंत्री तेजस्वी प्रसाद यादव के खिलाफ भ्रष्टाचार संबंधी एफआईआर दर्ज किया। इनके ठिकानों पर छापा भी मारा। उपमुख्यमंत्री तेजस्वी प्रसाद यादव से पटना में उनके आवास पर सीबीआई अधिकारियों ने लंबी पूछ-ताछ की। इस घटना ने पहले से ही धधकते आग में घी डाल दिया। महागठबंधन की राजनीति आईसीयू में पहुंच गई। नाना प्रकार के अफवाहों की बाढ़ आ गई। अनेक झूठ सच दिखने लगे और अनेक सच झूठ। यह कहना गलत नहीं होगा कि झूठ और सच का अंतर मिट गया।

मैंने पहले ही (राष्ट्रीय सहारा, हस्तक्षेप 24 जून) कहा है कि बिहार में महागठबंधन की राजनीति की उलटी गिनती शुरु हो गई है। इसमें कौन दोषी है और कौन पवित्र यह एक अलग विषय है। और अब जब महागठबंधन का विखरना तय सा दिख रहा है तब विमर्श का बिन्दु यही रह जाएगा कि यह सब क्यों और कैसे हुआ। यह भी कि इन सबके लिए कौन कितना जिम्मेवार है।

हाल ही में पथ निर्माण विभाग की समीक्षा बैठक के दौरान मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के साथ उपमुख्यमंत्री तेजस्वी प्रसाद यादव

सबसे पहले सवाल यह उठना चाहिए कि लालू और नीतीश 1994 में किन कारणों से अलग हुए थे। दोनों की राजनीति 1974  के जयप्रकाश आंदोलन की कोख से निकली है। आपातकाल में दोनों जेल में रहे। 1977 में लालू प्रसाद छपरा से लोकसभा के सदस्य चुन लिए गए, लेकिन कुछ महीनों बाद ही हुए बिहार विधान सभा चुनाव में नीतीश कुमार चुनाव हार गए। वह पहली दफा 1985 में बिहार विधान सभा के सदस्य बने। 1989 में नीतीश लोकसभा के लिए चुने गए और विश्वनाथ प्रताप सिंह के मंत्रीमंडल में राज्यमंत्री बनाए गए। लालू प्रसाद उनसे आगे-आगे रहे। कर्पूरी ठाकुर की मृत्यु के बाद वह उनकी जगह विपक्ष के नेता बने और 1990 में बिहार के मुख्यमंत्री हुए। मंडल आंदोलन में अपनी सक्रियता से लालू प्रसाद पिछड़े-दलित वर्गों के कद्दावर नेता बन गए, बिहारी राजनीति के महानायक। ऐसी स्थिति में ही इंदिरा गांधी तानाशाही प्रवृतियों से घिरने लगी थीं। लालू प्रसाद के साथ भी ऐसा ही हुआ। अपने सहयोगियों से ही वह दूर होने लगे। 1994 में नीतीश कुमार अपने सहयोगियों के साथ अलग हो गए और एक लंबे संघर्ष के बाद अंततः लालू प्रसाद को राजनीतिक हाशिए पर ला दिया। इस संघर्ष में उन्होंने भारतीय जनता पार्टी का सहयोग लिया। 2013 के जून में वह भाजपा से भी अलग हुए और साल भर बाद ही राजनीति परिस्थितियां ऐसी हुईं कि लालू प्रसाद और नीतीश कुमार फिर साथ हुए। इस साथ ने 2015 के बिहार विधान सभा चुनाव में भाजपा को धूल चटा दी। कुल 243 सीटों में राजद-जदयू-कांग्रेस गठबंधन ने 178 सीटें हासिल की। राजद के विधायकों की संख्या जदयू के विधायकों से नौ अधिक थी। बावजूद इसके नीतीश नेता बनाए गए। उपमुख्यमंत्री राजद के नेता और लालू प्रसाद के बेटे तेजस्वी बनाए गए। लालू प्रसाद के दूसरे बेटे भी मंत्रीमंडल में शामिल हुए।

गड़बड़ी यहीं से शुरु हुई। भाजपा की भगवा राजनीति संकीर्ण राष्ट्रवाद और अमीरपरस्त राजनीति का विरोध कर रही महागठबंधन की राजनीति ने अपने आदर्श के जो बेलबूटे गढ़े थे वह अचानक सवालों के घेरे में आ गई, जब लालू प्रसाद ने अपने वंशवादी राजनीति के खूंटे से उसे जबरन बांध दिया। एक तरफ आदर्श था तो दूसरी तरफ संख्या बल। लोकतंत्र में संख्याबल जरूरी होता है। नीतीश कुमार ने विश्वास के साथ कमान संभाली कि तय कार्यक्रमों को पूरा करने में कोई अड़चन नहीं आएगी, क्योंकि इन पर सर्वानुमति है। सत्ता की भागीदारी तो होती ही है। उपमुख्यमंत्री तेजस्वी प्रसाद यादव के कार्य व्यवहार को भी जनता की प्रशंसा मिली। नीतीश कुमार ने शराबबंदी और दूसरे कार्यक्रमों से जनता में विश्वास जगाया और अपने सबसे बड़े विरोधी प्रधानमंत्री मोदी तक की प्रशंसा हासिल की। लेकिन इसी बीच लालू प्रसाद के बड़े बेटे मंत्री तेज प्रताप पर माटी का मामला उठा कि अपने निर्माणाधीन मॉल की माटी बेचकर उन्होंने सरकारी धन हासिल किया है और इसमें हेरा-फेरी हुई है। और जब बात निकली तब दूर तक गई। मॉल की माटी से मामला मॉल, मॉल की जमीन और जमीन हासिल करने में कंपनियों की हेरा फेरी और फिर लालू प्रसाद का रेलमंत्री काल। तेजस्वी प्रसाद यादव गलत नहीं कहते कि इन सब मामलों के समय तो उनकी उम्र तेरह-चौदह साल थी। शायद वे जुवेनाइल नियमों का सहारा चाहते हैं। लेकिन एक लोक कहावत है – बाढ़े पूत पिता के धरमे। यदि पिता के धर्म (पुण्य) से पुत्र की समृद्धि होगी तो उसके अधर्म से पतन भी तो होगा। तेजस्वी की इस स्थिति के लिए जिम्मेवार तो स्वयं उनके माननीय पिता हैं। समाज को विनाश की ओर धकेलते हुए कोई कैसे स्वयं अपने पूरे कुनबे को उस ओर धकेल देता है, इसका पुख्ता उदाहरण है यह घटना।

वर्ष 1992 में एक बैठक के दौरान तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद और साथ में शरद यादव व नीतीश कुमार

नीतीश कुमार क्या करेंगे? यह सवाल हर कोई पूछ रहा है। पुराने जमाने के चीन में वहां के राजा के मंत्री कुंग-फू-जू ने अपने समय के मशहूर दार्शनिक लाउ-त्से से पूछा था – राजा को क्या करना चाहिए? लाउ-त्से ने कहा था – उसे निष्क्रिय रहना चाहिए।

नीतीश कम से कम इस मामले में निष्क्रिय हैं। इन तमाम घटनाओं के बीच वह राजगीर के वेणुवन में स्वास्थ्य लाभ करते रहे। उनके राजकाल से संबंधित कोई मामला नहीं है। उनके उपमुख्यमंत्री का मामला जरूर है, लेकिन व्यक्तिगत मामला है। पार्टी की बैठक कर उन्होंने अपने सहयोगी से अपेक्षा की है कि जनता के बीच जाकर स्पष्टीकरण दें और लोकमर्यादा के मानदंडो की रक्षा करें। यह एक अभिभावक की भी सलाह दिखती है।

लेकिन लालू प्रसाद की प्रकृति ऐसी नहीं है कि उच्च मानदंडों को बनाये रखने के लिए अपने बेटे को कहेंगे। उनके बयानों और कार्यकलापों से ऐसा ही लगता है कि भ्रष्टाचार के इन आरोपों के साथ ही भाजपा के विरुद्ध संघर्ष करेंगे। उनके सिद्धांतकार भी इसके लिए उनकी पीठ थपथपा रहे हैं। दंगे-फसाद करने वाले आतंकवादियों को भी समर्थन मिल जाते हैं तो जनता के कुछ हिस्सों का समर्थन लालू जी को भी मिल ही जाएगा। इनके साथ शायद उनकी राजनीति भी चलती रहेगी। लेकिन जिन लोगों को आदर्शों पर अंश भर भी भरोसा है वे तो यह सोचेंगे ही कि निजी पूंजी का विरोध करने वाला यह समाजवादी अपने कुनबे को पूंजी के इस कुंड में क्यों डाल गया? क्या जयप्रकाश नारायण और कर्पूरी ठाकुर से इस व्यक्ति ने यही शिक्षा पायी थी? लालू प्रसाद के सहयोगी कह रहे हैं कि क्या नीतीश और भाजपा के इर्द-गिर्द के लोग हरिश्चंद्र की औलाद हैं? यह तो वे लोग जवाब देंगे, लेकिन इस कथन से इस बात को तो पुष्टि होती है कि सीबीआई के आरोप निराधार नहीं है। इस तू-तू-मैं-मैं के बीच कोई गठबंधन टिकेगा, इसकी संभावना कम दिखती है।

ऐसे में नीतीश कुमार का क्या होगा? राष्ट्रपति चुनाव में श्री कोविंद का समर्थन कर उन्होंने स्वयं को विवाद में डाल लिया है और राजनैतिक रुप से उहापोह की स्थिति खड़ी कर दी है। उनके उपमुख्यमंत्री पर सीबीआई के शिकंजे ने भी उनकी स्थिति पर प्रश्न चिह्न खड़े किए हैं। ऐसे में उनके पास तीन विकल्प हैं। पहला तो यह कि अपने सहयेागी पर इस्तीफा का दबाव बनाएं और उसे अंजाम दें। इसमें इसकी गुंजायश रहेगी कि अन्य कोई तेजस्वी की जगह ले। दूसरा विकल्प महागठबंधन से अलग होकर भाजपा के अप्रत्यक्ष या प्रत्यक्ष सहयोग से सरकार चलाने का होगा। और तीसरा विकल्प स्वयं नीतीश कुमार का इस्तीफा होगा। फिलहाल पहला ही विकल्प चलेगा, इसी की संभावना है, लेकिन इससे महागठबंधन के टिकाऊपन की गारंटी नहीं मिल जाती। वह दरक चुका है।

लेकिन नीतीश कुमार बहुत नुकसान में नहीं हैं। लोक दायरे में उनकी स्थिति ऐसी तो बनी ही हुई है कि भाजपा को भी उनके लिए बिना शर्त समर्थन की घोषणा बार-बार करनी पड़ रही है। उनकी कठिनाइयां उनके दल के भीतर है।

कहने को उनका दल राष्ट्रीय जरुर है लेकिन वह काहिल, अदूरदर्शी और चापलूस नेताओं का आरामगाह बन कर रह गया है। यदि उन्होंने अपने दल में कामराज योजना जैसी किसी परियोजना पर काम करके उसे ठीक ठाक किया तब तो वह नयी राजनैतिक चुनौतियों पर काबू कर पाएंगे अन्यथा भाजपा के राजनैतिक साम्राज्यवाद का हिस्सा बन कर रह जाएंगे।


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लेखक के बारे में

प्रेमकुमार मणि

प्रेमकुमार मणि हिंदी के प्रतिनिधि लेखक, चिंतक व सामाजिक न्याय के पक्षधर राजनीतिकर्मी हैं

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