h n

केरल में दलित पुजारियों की नियु्क्ति और आंबेडकर

अभी हाल में केरल के मंदिरों में दलित पुजारियों की नियुक्ति का निर्णय हुआ है। मनप्पुरम शिव मंदिर में एक दलित पुजारी येदु कृष्णन की नियुक्ति भी हो गई है । आंबेडकर की नजर से इस परिघटना को कैसे समझा जाए, प्रस्तुत है इस संदर्भ में वरिष्ठ पत्रकार राजकिशोर का विश्लेषण :

 केरल में एक महत्वपूर्ण घटना हुई है। राज्य के पथानमथित्ता जिले के तिरुवल्ला कस्बे में स्थित मनप्पुरम शिव मंदिर में 9 अक्टूबर को एक दलित पुजारी की नियुक्ति हुई। दलित पुजारी बाईस साल के येदु कृष्णन हैं। वे पुलाया जाति के हैं, जो एक अनुसूचित जाति है। यह नियुक्ति किसी सामाजिक सुधार अभियान के कारण नहीं, बल्कि केरल सरकार के एक युगांतरकारी निर्णय के परिणामस्वरूप हुई है।

केरल का मनप्पुरम मंदिर : जहां पहली बार दलित पुजारी की हुई है सरकारी निुयक्ति

केरल देश का अकेला राज्य है, जहां मंदिरों की देखभाल का काम सरकार ने अपने हाथ में ले लिया है। अभी तक परंपरा यही रही है कि कोई ब्राह्मण ही मंदिर का पुजारी बन सकता था। उसकी मृत्यु के बाद यह पद उसका बड़ा बेटा संभालता है। कोई पुजारी चाहे तो अपने परिवार के बाहर के किसी व्यक्ति को भी अपना  उत्तराधिकारी नियुक्त कर सकता है। लेकिन ऐसा व्यक्ति ब्राह्मण जाति का होना चाहिए। अभी हाल तक दलितों को मंदिर में घुसने की भी अनुमति नहीं थी। केरल सरकार ने इस व्यवस्था को आधुनिक और लोकतांत्रिक बनाने की कोशिश की है।

केरल में धर्मस्थानों से संबंधित जो कानून बनाया गया है, उसके तहत पुजारियों की नियुक्ति स्वयं राज्य सरकार ही करती है। वह राज्य पब्लिक सर्विस कमीशन की तरह संभावित उम्मीदवारों की बाकायदा परीक्षा लेती है- पहले लिखित, उसके बाद साक्षात्कार के द्वारा। परीक्षा लेने का काम  त्रावणकोर देवस्वम बोर्ड (टीडीबी) को सौंपा गया है, जिसका गठन सरकार द्वारा किया जाता है। बोर्ड राज्य में स्थित लगभग 1200 मंदिरों का प्रबंधन करता है। इनमें सबरीमाला का प्रसिद्ध अयप्पा मंदिर भी शामिल है। इस साल त्रावणकोर देवस्वम बोर्ड ने राज्य के विभिन्न मंदिरों में पुजारी की नियुक्ति के लिए 36 गैर-ब्राह्मणों की सिफारिश की थी। पुजारी पद पर नियुक्ति में आरक्षण का प्रावधान भी है। इस प्रावधान के चलते ही इतनी बड़ी संख्या में गैर-ब्राह्मण उम्मीदवारों को चुनना संभव हुआ। इनमें छह दलित हैं। इन छह में से एक, येदु कृष्णन ने 9 अक्टूबर को अपना पद संभाल लिया।

श्रद्धालुओं को प्रसाद वितरित करते दलित पुजारी येदु कृष्णन

केरल सरकार की यह योजना सफल हो गयी तो यह एक क्रांतिकारी पहल है। जिन दलितों को मंदिर में घुसने नहीं दिया जाता था, वे अब पुजारी का काम करेंगे। जिसे ब्राह्मणवाद या मनुवाद कहा जाता है, उस पर यह एक जबरदस्त चोट है। जाति विभाजन करते समय ब्राह्मणों को धर्म और पढ़ने-पढ़ाने के अलावा कोई और काम नहीं दिया गया था। भिक्षाटन और गुरु दक्षिणा ही उनकी जीविका थी। यद्यपि समाज में उनका स्थान सर्वोपरि था, पर उनके लिए भौतिक समृद्धि का कोई रास्ता नहीं खोला गया था। उनका काम था ज्ञान प्राप्त करना, चिंतन-मनन करना और छात्रों को पढ़ाना। हिंदू समाज में मंदिरों का निर्माण बहुत देर से शुरू हुआ। रामायण और महाभारत में किसी भी मंदिर का उल्लेख नहीं है। मंदिर बनते ही धर्म की एक भौतिक अवस्थिति बन गयी और मंदिरों का सारा चढ़ावा पुजारियों की निजी संपत्ति हो गया, जिस पर यह प्रतिबंध कभी नहीं रहा कि धर्म की मद में आये हुए पैसे का बड़ा हिस्सा समाज हित में खर्च होगा। चूंकि किसी अन्य जाति के व्यक्ति को पुजारी होने की छूट नहीं थी, इसलिए इस पद पर ब्राह्मणों का एकाधिकार हो गया। केरल सरकार ने इस एकाधिकार को तोड़ने की शुरुआत की है। अब किसी भी जाति का व्यक्ति पुजारी बन सकता है – जाहिर है, पुजारी की परीक्षा पास करने के बाद।

लेकिन यह ब्राह्मणों की जीविका पर कुठाराघात नहीं है। पिछले सौ सालों में ब्राह्मण केवल धार्मिक गतिविधियों तक सीमित नहीं रहे हैं। उन्होंने अनेक दूसरे व्यवसाय ग्रहण किये हैं। वे सेना में शामिल हुए हैं, उन्होंने कल-कारखाने और दुकानें खोली हैं, सरकारी  और प्राइवेट नौकरी स्वीकार की है। कुछ होटल चलाते हैं तो कुछ वकालत करते हैं। इससे जीविकाओं का जो बँटवारा शुरू में हुआ था, वह अब भंग हो चुका है। इसलिए यह उचित ही है कि गैर-ब्राह्मण जातियों को भी ऐसे पेशों में लगना चाहिए जिन पर अब तक ब्राह्मणों का एकाधिकार रहा है।

केरल में दलित पुजारी की नियुक्ति को लेकर झारखंड के देवघर में विरोध प्रदर्शन करते ब्राह्मण

केरल सरकार के इस कदम का सब से बड़ा पहलू यह है कि यह जाति व्यवस्था को कमजोर करने में सहायक हो सकता है। सब से पहले तो यह ब्राह्मण के एक जन्मजात अधिकार को तोड़ता है। हिंदू समाज व्यवस्था में मंदिर सब से पवित्र जगह है। अतः कोई दलित या पिछड़ी जाति का व्यक्ति अगर पुजारी पद पर काम करता है, तो ब्राह्मण का यह जन्मजात अधिकार खत्म हो जायेगा और अन्य जातियों की प्रतिष्ठा बढ़ेगी। बेशक ब्राह्मणों की प्रतिष्ठा कम नहीं होगी, क्योंकि दलितों के पुजारी बन जाने मात्र से ब्राह्मणों का स्थान कम नहीं हो जायेगा। अधिकांश लोग अपने घरों में पूजा-पाठ के लिए ब्राह्मणों को ही निमंत्रित करेंगे। जाहिर है, सिर्फ सरकारी निर्णयों से जाति प्रथा खत्म नहीं हो सकती। इसके लिए जरूरी है कि सामाजिक स्तर पर भी जाति व्यवस्था की क्रूरता के प्रति सचेतनता पैदा हो। चूँकि सरकार ने मान्यता दे दी है, इसलिए गैर-ब्राह्मण पुजारी को समाज आसानी से स्वीकार नहीं करेगा। शायद यह केरल में संभव हो सके, पर अन्य राज्यों में उसे सामाजिक स्वीकृति मिलना लगभग असंभव है।

वर्ष 1930 में महाराष्ट्र के नासिक स्थित कलाराम मंदिर में दलितों के प्रवेश के लिए सत्याग्रह करते बाबा साहब डा‍ॅ. आंबेडकर

लेकिन स्थिति का एक दूसरा पहलू भी है। क्या केरल सरकार की यह व्यवस्था मूर्ति पूजा, गलत धार्मिक मान्यताओं और अंध-आस्थाओं के मजबूत होने में ही मदद नहीं करेगी? दलितों की मुक्ति का रास्ता क्या धर्म से हो कर जायेगा? जाति व्यवस्था की मजबूती इसी कारण है कि उसे धार्मिक व्यवस्था की मान्यता प्राप्त है। अतः जाति तभी टूटेगी, जब धर्म भी टूटेगा। इस सिलसिले में उन बाईस प्रतिज्ञाओं का स्मरण करना उचित होगा, जिन्हें 14 अक्टूबर 1956 को बौद्ध धर्म स्वीकार करते समय डॉ. बी आर अंबेडकर ने निर्धारित किया था। इनमें पहली छह प्रतिज्ञाएं ये हैं – 1. मैं ब्रह्मा, विष्णु और महेश में कोई विश्वास नहीं करूँगा और न ही उनकी पूजा करूँगा। 2. मैं राम और कृष्ण, जो भगवान के अवतार माने जाते हैं, में कोई आस्था नहीं रखूंगा और न ही उनकी पूजा करूँगा। 3. मैं गौरी, गणपति और हिन्दुओं के अन्य देवी-देवताओं में आस्था नहीं रखूंगा और न ही उनकी पूजा करूँगा। 4. मैं भगवान के अवतार में विश्वास नहीं करता हूं। 5. मैं यह नहीं मानता और न कभी मानूंगा कि भगवान बुद्ध विष्णु के अवतार थे। मैं इसे पागलपन और झूठा प्रचार-प्रसार मानता हूं। 6. मैं श्रद्धा (श्राद्ध) में भाग नहीं लूंगा और न ही पिंड-दान दूंगा।

स्पष्ट है कि डॉक्टर साहब दलितों को धार्मिक ताने-बाने से अलग करना चाहते थे। लेकिन केरल का रास्ता उन्हें हिंदू धर्म के वलय में शामिल कर उनके बुद्धिवादी होने में बाधक बनेगा। दलित उन्हीं देवी-देवताओं को पूजते रहेंगे, जिनका नाम ले कर उन्हें दलित बनाया गया था।


फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्‍त बहुजन मुद्दों की पुस्‍तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्‍स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्‍य, सस्‍क‍ृति व सामाजिक-राजनीति की व्‍यापक समस्‍याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्‍स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +919968527911, ईमेल : info@forwardmagazine.in

फारवर्ड प्रेस की किताबें किंडल पर प्रिंट की तुलना में सस्ते दामों पर उपलब्ध हैं। कृपया इन लिंकों पर देखें :

जाति के प्रश्न पर कबीर (Jati ke Prashn Par Kabir)

https://www.amazon.in/dp/B075R7X7N5

महिषासुर : एक जननायक (Mahishasur: Ek Jannayak)

https://www.amazon.in/dp/B06XGBK1NC

चिंतन के जन सरोकार (Chintan Ke Jansarokar)

https://www.amazon.in/dp/B0721KMRGL

बहुजन साहित्य की प्रस्तावना (Bahujan Sahitya Ki Prastaawanaa)

https://www.amazon.in/dp/B0749PKDCX

लेखक के बारे में

राजकिशोर

राजकिशोर (2 जनवरी 1947-4 जून 2018), कोलकाता (पश्चिम बंगाल)। वरिष्ठ पत्रकार और लेखक। ‘पत्रकारिता के परिप्रेक्ष्य’, ‘धर्म, सांप्रदायिकता और राजनीति’, ‘एक अहिंदू का घोषणापत्र’, ‘जाति कौन तोड़ेगा’, और ‘स्त्री-पुरुष : कुछ पुनर्विचार’, अादि उनकी महत्वपूर्ण वैचारिक रचनाएं हैं। इनके द्वारा संपादित 'आज के प्रश्न' पुस्तक श्रृंखला, ‘समकालीन पत्रकारिता : मूल्यांकन और मुद्दे’ आदि किताबें अत्यन्त चर्चित रही हैं। साहित्यिक कृतियों में ‘तुम्हारा सुख’, ‘सुनंदा की डायरी’ जैसे उपन्यास, और ‘अंधेरे में हंसी’ और ‘राजा का बाजा’ व्यंग्य रचनाएं हैं

संबंधित आलेख

हूल विद्रोह की कहानी, जिसकी मूल भावना को नहीं समझते आज के राजनेता
आज के आदिवासी नेता राजनीतिक लाभ के लिए ‘हूल दिवस’ पर सिदो-कान्हू की मूर्ति को माला पहनाते हैं और दुमका के भोगनाडीह में, जो...
यात्रा संस्मरण : जब मैं अशोक की पुत्री संघमित्रा की कर्मस्थली श्रीलंका पहुंचा (अंतिम भाग)
चीवर धारण करने के बाद गत वर्ष अक्टूबर माह में मोहनदास नैमिशराय भंते विमल धम्मा के रूप में श्रीलंका की यात्रा पर गए थे।...
जब मैं एक उदारवादी सवर्ण के कवितापाठ में शरीक हुआ
मैंने ओमप्रकाश वाल्मीकि और सूरजपाल चौहान को पढ़ रखा था और वे जिस दुनिया में रहते थे मैं उससे वाकिफ था। एक दिन जब...
When I attended a liberal Savarna’s poetry reading
Having read Om Prakash Valmiki and Suraj Pal Chauhan’s works and identified with the worlds they inhabited, and then one day listening to Ashok...
मिट्टी से बुद्धत्व तक : कुम्हरिपा की साधना और प्रेरणा
चौरासी सिद्धों में कुम्हरिपा, लुइपा (मछुआरा) और दारिकपा (धोबी) जैसे अनेक सिद्ध भी हाशिये के समुदायों से थे। ऐसे अनेक सिद्धों ने अपने निम्न...