भारतीय समाज में जातियों की बेल सदियों से रही है। युग बदले एक राजा आया दूसरे ने उसका सिंहासन सम्भाला। पीढ़ी दर पीढ़ी यही सब होता रहा। मन्दिर भी बनते रहे। उनमे भक्तो की भीड़ भी बढ़ती गई। पूजा पाठ भी होता रहा। पर न परम्पराएँ बदली और न प्रथाएं। सामाजिक और धार्मिक जीवन मे लोगो की। झलकारी बाई (22 नवंबर 1830 – 4 अप्रैल 1857) न रानी थी और न पटरानी। वह न किसी सामन्त की बेटी थी। और न किसी जागीरदार की पत्नी। 22, नवम्बर, 1830 में वह तो भोजला गाँव के एक साधरण परिवार में पैदा हुई थी।उनके पिता का नाम मूलचन्द तथा माता का नाम लहकारी बाई था। घर में कपड़ा बुनने का काम होता था।
तत्कालीन समाज मे बहुजन समाज के बच्चों को स्कूल में पढ़ना नसीब न था। मनुस्मृति के नियम समाज पर लागू थे। झलकारी के पिता तो अपनी बेटी को पढ़ाना लिखना चाहते थे,लेकिन एक तो गरीबी दूसरे जाति भेद,दोनों की गिरफ्त में उनके परिवार को रहना पडता था। ऐसी स्थिति में परिवार में बच्चों को भी परम्परागत कार्य करना पड़ता था।
उन दिनों के सामाजिक नियमों के अनुसार बचपन मे ही विवाह कर दिया जाता था। अतः खोज बीन के बाद पूरन नाम के कम उम्र के ही नौजवान से विवाह कर दिया गया। पूरन भी कोरी जाति(ओबीसी) से था। झलकारी के बारे में एक महत्वपूर्ण बात यह है कि विवाह से पहले ही जब वह घर मे प्रयोग के लिए ईंधन,लकड़ी आदि लेने के लिए जाती थी तो एक बार बाघ ने उस पर हमला कर दिया,जिससे बचने के लिए उसने बहादुरी से बाघ का सामना किया और उसे अपनी कुल्हाड़ी से मार दिया। इसकी खबर दूर-दूर तक फैल गईं। झलकारी का नाम जन-जन की ज़ुबान पर हो गया। झलकारी के द्वारा बाघ मारने की खबर रानी लक्ष्मीबाई तक भी पहुँच गईं। इस तरह उनकी बस्ती के बाहर नगर में भी उनका सम्मान बढ़ा। हालांकि उस सम्मान को सवर्ण समाज स्वीकार करने वाले न थे
झलकारी बाई के बारे में बुंदेलखंड के घर घर मे आज भी उनके शौर्य की कहानी सुनी और कही जाती है। चूंकि उनकी शक्ल रानी लक्ष्मीबाई से मिलती जुलती थी, इसलिए महाराष्ट्रीय स्त्री की वेश में सजधज कर घोड़े पर सवार होकर तथा हाथ मे तलवार लिए जनरल ह्यूरोज़ से मिलने चली जाती है।
देश भर में अंग्रेजो के खिलाफ जंग का एलान होने लगा था। झांसी भी इससे बची नही रह सकी थी। झांसी की रानी लक्ष्मीबाई का परेशान होना लाजमी था। उसका दूसरा कारण भी था। वह यह कि आसपास के राजाओं में एकता नही थी। उनके अपने स्वार्थ थे। वे अधिकांश सवर्ण थे। कुछ अंग्रेजों की वकालत भी करते थे। ऐसे में रानी ने दलित और पिछड़ी जतियों से सहयोग मांगा। जो उन्होंने दिया। झलकारी बाई के पति का नाम पूरन था , जो पहलवानी करता था। झलकारी एक दो बार रानी से महल जाकर मिल चुकी थीं। ऐसी स्थिति में रानी ने महिलाओं की फौज बनाना उचित समझा। जिसकी कमांडर झलकारी को बनाया। झलकारी ने पहले से ही घुड़सवारी करना, तलवार चलाना, गोला फेंकना तथा बन्दूक चलाना आदि सीख लिया था। उनके पति को तोप चलाना रानी के सैनिकों ने सिखाया था। इस तरह बहुजन समाज के लोगो ने झांसी की अंग्रेजों से रक्षा करने की ठानी।
हालांकि सवर्णो को यह सब पसन्द नहीं था। वे तो चाहते थे कि बहुजन समाज उनकी गुलामी करता रहे। लेकिन बहुजन समाज के लोगों ने उस चुनौेती को स्वीकार किया। इस तरह झलकारी बाई, पूरन और अन्य बहुजनों ने झांसी की रक्षार्थ अपने जीवन को न्यौच्छावर किया।
इतिहास में झलकारी बाई का नाम अमर रहेगा।
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