28 जून, 2018 को मगहर में कबीर के नाम पर जो भव्य समारोह हुआ, उसका लक्ष्य राजनीतिक था। ‘हिंदुस्तान’ अख़बार के वाराणसी संस्करण में 29 जून को पृष्ठ संख्या 16 पर खबर छपी है, “मगहर के मंच से मोदी ने अति पिछड़ों और दलितों की नब्ज़ पर हाथ रखा।।।।प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गुरुवार को मगहर से करोड़ों कबीर प्रेमियों के दिलों पर दस्तक दी। संत कबीर के प्राकट्य समारोह के जरिए उन्होंने उत्तर प्रदेश में लोकसभा चुनाव का बिगुल फूँका तो बिहार, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और गुजरात के भी समीकरण साधे। जानकार मानते हैं कि लोकसभा की करीब 50 सीटों के नतीजे कबीरपंथियों के रुख से तय होते हैं।”

इधर के वर्षों में लगातार कोशिश की जा रही है कि तीसरे मोर्चे के प्रतीकों को छीन लिया जाए। शोषितों-वंचितों के जितने भी समुदाय या समूह हैं उन पर धीरे-धीरे अपना जादू चलाने की कोशिश राष्ट्रवाद-आधारित राजनीति के द्वारा की जा रही है। आंबेडकर के बाद कबीर का नम्बर आया है। कबीर की कविताओं में मगहर का जिक्र बहुत कम है। उसकी तुलना में काशी की चर्चा ज्यादा है। बनारस में काशी की जो चौहद्दी परंपरागत रूप से बतायी जाती है, ‘लहरतारा’(कबीर का प्राकट्य-स्थल) उसके बाहर है। मतलब, कबीर का जन्म और निवास जिस लहरतारा में था, वह काशी से बाहर है और बनारस के भीतर है। बुद्ध भी ज्ञान-प्राप्ति के बाद बनारस आए थे, मगर गंगा नदी के किनारे रुकने के बजाए वरुणा नदी के किनारे रुकना उन्हें ज्यादा जँचा था। वे काशी के बजाए सारनाथ में सुविधा महसूस कर रहे थे। ‘बहुजन’ का नारा शुरू करनेवाले बुद्ध ‘काशी’ से कटकर ‘सारनाथ’ में खड़े हुए थे। कबीर भी उसी तरह की बहुजन-परंपरा के चिन्तक कवि हैं, उन्होंने भी काशी की परंपरा को आत्मसात नहीं किया। आज भी काशी में रचने-बसने का मतलब है उच्च जातियों की श्रेष्ठता को स्वीकार करना, मंदिरों को महत्त्वपूर्ण मानना और गंगा के बारे में कही गयी महात्म्य की बातों पर विश्वास प्रकट करना। दूसरे शब्दों में कहें तो ब्राह्मण, मंदिर और गंगा से निर्मित परिवेश को आँख मूँदकर/खोलकर स्वीकार करना। कबीर ने इन तीनों के प्रति अपनी असहमति जतायी है। इन तीनों के प्रति प्रबल सहमति जतायी थी तुलसीदास ने। तुलसी बाहर के थे, मगर काशी में इतना रच-बस गए कि आज भी यह काशी तुलसी की ज्यादा अपनी है, कबीर की कम।
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कबीर के जीवन की घटनाओं के बारे में प्रामाणिक रूप से अत्यंत कम बातें मालूम हैं। पक्के तौर पर नहीं बताया जा सकता है कि मगहर जाने के पीछे उनकी कोई व्यावहारिक समस्या थी या नहीं! उनकी कविता में जो कारण बताए गए हैं उनसे यही पता चलता है कि लोग तो भोले-भाले हैं। वे काशी को राम से भी ज्यादा महत्त्व देने लगते हैं। सच्चाई यही है कि राम बड़े हैं, काशी नहीं। यदि जीवन-मरण या लोकोत्तर जीवन आदि को लेकर किसी को निर्णायक ही मानना है तो ‘राम’ को मानो! काशी तो मगहर की तरह ही एक स्थान-मात्र है। ध्यान दिया जाना चाहिए कि काशी और मगहर — दोनों को समान रूप से ‘ऊसर’ बताने का साहस कबीर ने किया था। मगहर को ‘ऊसर’ कहने में तो कोई बात नहीं थी, मगर ‘काशी’ को ‘ऊसर’ कहना अत्यंत साहस का काम था। तुलसी को काशी के पंडितों ने सताया था — इसकी चर्चा मिलती है। मगर, काशी के पंडितों ने कबीर को कभी सताया हो — इसकी चर्चा नहीं मिलती। इतना जरूर है कि तुलसी की कविताओं में, बिना नाम लिए, कबीर की भर्त्सना अनेक जगहों पर मिलती है। कबीर ने अपनी कविताओं में इस बात की चर्चा कम ही की है कि काशी में किसी ने उनके विचारों के कारण उनसे मारपीट की हो! ‘साधो, देखा जग बौराना’ – जैसे पद में यह ज़रूर कहा गया है कि ‘साँच कहों तौ मारन धावे’। संभव है कि अपने अपमान की बातों की चर्चा करना कबीर को पसंद न हो! हो सकता है, वे इसके आधार पर अपने प्रति सहानुभूति जगाना पसंद नहीं करते हों! मगर यह बात अपनी जगह सच है कि कबीर अपने जीवन के अंतिम दो-तीन वर्षों में मगहर चले गए थे। ध्यान दिया जाना चाहिए कि मगहर और उसके आस-पास जुलाहों की भरपूर संख्या आज भी है और ब्राह्मणों की रुचि जितनी काशी में थी, उतनी मगहर में नहीं।

कबीर काशी की महत्ता को छोटा करने की घोषणा करके मगहर गए थे। इससे काशी छोटी हुई या नहीं? — यह सवाल महत्त्वपूर्ण नहीं है! ऐसा करके उन्होंने बहुजन समाज को एक नजरिया प्रदान किया। कबीर से लेकर आजतक बहुजन समाज की निगाह में ‘काशी’ के प्रति आस्था भी रही है और संशय भी! धार्मिक मिज़ाजवाली बहुजन जनता भगवान और मंदिर के प्रति आस्थावान है, लेकिन इन दोनों पर ब्राह्मण के अटूट आरक्षण के प्रति सदा से असहमत! उनके बीच का एक संत कवि ‘काशी’ की महत्ता को चुनौती देकर ‘मुक्ति’ का रास्ता दिखलाता है — मगहर की घटना का यही महत्त्व है। ‘काशी’ से कटते हुए बुद्ध का सारनाथ जाना और कबीर का ‘मगहर’ जाना — ‘बहुजन’ के इतिहास के प्रेरणापरक अध्याय हैं।
आज ‘विशिष्टजन’ की राजनीतिक विचारधारा ‘बहुजन’ के प्रतीकों को निगल रही है। लोकतन्त्र में ‘विशिष्टजन’ छद्म रच रहे हैं कि वे ‘बहुजन’ के बीच के है। ‘काशी’ से कबीर का निकलना और उसके पीछे कुछ ‘विशिष्टजन’ का मगहर जाना, बहुजन इतिहास में धुँधलका रच रहा है। कबीर काशी को नकारकर मगहर गए थे और आज बनारस का नकारा हुआ तथाकथित ‘फ़कीर’ मगहर गया है। कबीर के बहाने बहुजन प्रयासों को हड़पने और सत्ता में बने रहने की कोशिश सफल हो या असफल — कबीर के अध्येताओं के लिए यह ज्यादा महत्त्वपूर्ण नहीं है। महत्त्वपूर्ण यह है कि मगहर में कबीर को ‘समाधि’ भी मिली और ‘मजार’ भी। ‘विशिष्टजनों’ को ‘समाधि’ रास आयी है। उन्होंने कबीर का चिंतन-शिविर नानक और गोरखनाथ के साथ लगा दिया है!! आप चाहे जितना सिर पीट लें ये इसी तरह धुंधलका रचते रहेंगे और उसमें आपको धोखा देने के हरबे-हथियार जुटाते रहेंगे। प्रतीक्षा कीजिए उस दिन की जब स्वामी रामदेव कबीर के योग पर भाषण देंगे और खुद को उस परंपरा का ‘योगी’ बताएँगे! कबीर के मगहर में हिंदुत्व की राजनीतिक ‘समाधि’ बनेगी या नहीं – कुछ कहा नहीं जा सकता, मगर भारत की धर्मनिरपेक्ष राजनीति के लिए खतरे की एक और घंटी तो बज ही चुकी है!
(कॉपी एडिटर : नवल)
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