h n

बहुजनों के सांस्कृतिक आंदोलन की वैचारिकी

मार्क्स ने धर्म को अफीम की संज्ञा दी थी। भारत जैसे विविधता वाले देश में धर्म और संस्कृति खतरनाक हथियार बन चुके हैं। सच्चाई है कि सांस्कृतिक वर्चस्व कायम कर आर्थिक और राजनीतिक वर्चस्व को बरकरार रखा जा रहा है। महिषासुर विमर्श इसका प्रतिरोध कर रहा है। मो. आरिफ खान की समीक्षा

प्रमोद रंजन द्वारा सम्पादित पुस्तकमहिषासुर मिथक व परंपराएंअसुर समाज की परम्पराओं की गहन जांच-पड़ताल और ज़मीनी शोध  पर आधारित है। जो इस बात का प्रमाण पेश करती है कि देश भर में असुरों पर ब्राहमणवादी संस्कृति के हज़ारों वर्षों के वर्चस्व और अन्य सांस्कृतिक समुदायों के खत्म करने की कोशिशों बावजूद भी असुरों की परंपराएं आज भी अस्तित्व में हैं और साथ ही संपूर्ण देश से ऐसी सूचनाएं मिल रही हैं जिससे इस बात का अनुमान लगाया जा सकता है कि महिषासुर आन्दोलन अपने पथ पर बढ़ते हुए प्रगति पर है। इस पुस्तक में इस बात का उल्लेख किया गया है कि महिषासुर आन्दोलन पिछले कुछ वर्षों से व्यापक रूप लेते हुए अपने पैर पसार रहा है। यह इस बात का प्रमाण है कि कर्नाटक,छत्तीसगढ़,मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार, ओड़िसा, पश्चिम बंगाल, गुजरात के बहुत से स्थानों से महिषासुर दिवस मनाए जाने की पुष्टि हुई है और पहली बार आदिवासियों ने महिषासुर और रावण के अपमान के ख़िलाफ़ थाने में शिकायत दर्ज करवाने की मांग भी की।  यह द्विज संस्कृति के लोगों  की बौखलाहट का ही परिचय है कि झारखंड में कुछ जगहों पर पुलिस ने महिषासुर दिवस मनाने से रोका।

हालांकि क़ानून कहता है कि सभी समुदायों को अपनी मान्यताओं के साथ जीने का अधिकार है और अन्य समुदायों की भावना को आहत करना दंडनीय अपराध है। परन्तु मुद्दा सिर्फ़ सांस्कृतिक नहीं, आर्थिक और राजनीतिक भी है। एक वर्ग ने इन्हीं सांस्कृतिक कथाओं के सहारे आर्थिक और राजनीतिक वर्चस्व स्थापित किया है। इसी कारण देश में अभिजन और बहुजन दो सामाजिक श्रेणियां बन गई हैं। इनमें से पहली वर्चस्वशाली और शोषक है जबकि दूसरी हर प्रकार से शोषित और वंचित है। इन दोनों वर्गों के सामाजिक ही नहीं, सांस्कृतिक हित भी भिन्न हैं। ऐसे में इस प्रश्न को हल करना न्यायपालिका के लिए भी कठिन होगा कि अगर दुर्गा का अपमान दंडनीय है तो महिषासुर और रावण का क्यों नहीं? दूसरी ओर हिंदूवादी संगठन इस आन्दोलन से बहुत विचलित है लेकिन यह देखना अधिक त्रासद है कि मार्क्सवादी दलों से जुड़े अभिजन बद्धिजीवी भी उनके सुर में से मिलाने लगते हैं। मतलब अभिजन चाहे किसी भी राजनीतिक दल से हों वे अपना वर्चस्व बनाये रखना चाहते हैं।

महिषासुर मिाथक व परंपराएं, फारवर्ड प्रेस बुक्स, 2017

महिषासुर सम्बन्धी परम्पराओं को समझने के लिए लेखक ने दो वर्षों से देश कई स्थानों की यात्रा की है। इस दौरान छोटानागपुर, बुन्देलखण्ड, राजस्थान, महाराष्ट्र, और कर्नाटक में महिषासुर से सम्बंधित अनेक स्थलों व परम्पराओं को देखने का अवसर मिला। महिषासुर आन्दोलन का उद्देश्य शव साधना नहीं है। यह आन्दोलन हिंसा और छल के सहारे खड़ी की गई असमानता पर आधारित संस्कृति के विरुद्ध है। यह दुर्गा पंडालों से महिषासुर की मूर्तियाँ हटवाने, रावण का पुतला जलाने से रोकने, महिषासुर या रावण की पूजा करने से रोकने के लिए नहीं है बल्कि सामाजिक घृणा के स्थान पर प्रेम की बुनियाद रखने के लिए है। यह सिर्फ़ धार्मिक-सांस्कृतिक प्रतीकों को ही जलाने का विरोध नहीं करता, बल्कि विरोध प्रदर्शनों में पुतला जलाने तक का विरोधी है। यह सुकरात से लेकर गौरी लंकेश तक की परम्परा से अपना रिश्ता जोड़ता है।

1947 में मिली राजनीतिक आज़ादी के बाद सांस्कृतिक-धार्मिक गुलामी का शिकंजा कसता जा रहा है। कबीर-फूले-आंबेडकर और पेरियार जिस आज़ादी से अपनी बात रख पा रहे थे, उतनी भी आज़ादी आज संभव नहीं रह गई है। ब्राह्मणवादी संस्कृति ने किन्नौर से लेकर कन्याकुमारी तक अपने पांव पसार लिए हैं और उसकी जकड़न निरंतर बढ़ती जा रही है। यह आन्दोलन सिर्फ़ द्विजवाद का ही नहीं बल्कि हर प्रकार की प्रतिगामी चेतना का विरोधी है और अभिजन के स्थान पर बहुजन संस्कृति की वकालत करता है। यह एक ऐसे आधुनिक समाज की प्रस्तावना करता है जिसमें हिंसा के लिए कोई जगह नहीं है। इस आन्दोलन की माँग है कि हमारी भारतीय संस्कृति के नाम पर मनाये जाने वाले हिंसक ब्राह्मणवाद से सम्बन्धित सभी त्योहारों की समाप्ति हो और विभिन्न समतावादी सामाजिक सांस्कृतिक आन्दोलनों द्वारा प्रस्तावित त्यौहारों,जयंतियां आदि इसकी जगह लें। महिषासुर दिवस के साथ आज कई ऐसे त्यौहार मौजूद हैं। यह आस्था पर विवेक, अमानवीयता पर मानवीयता और परम्परा पर ज्ञान की विजय का अभियान है।

यह भी पढ़ें : संस्कृति की पहचान और दावा

इस पुस्तक में इस बात का दिलचस्प उल्लेख किया गया है कि असुर जाति के लोग प्रकृति के काफ़ी करीब हैं। यहाँ तक कि उनके गाँवों के नाम भी प्रकृति से जुड़े हैं जैसे- सखुआ नामक पेड़ असुरों की संस्कृति में काफ़ी महत्वपूर्ण पेड़ माना जाता है। अन्य गाँवों के नाम हैं- काठोपनी अर्थात् लकड़ी और पानी की धारा, अमतीपानी एक प्रकार का पेड़ जिसके फल इमली के जैसे खट्टे मीठे होते हैं, आवडापाठ- पाठ का मतलब ऊँचे स्थान पर बसा एक गाँव और आवडा यानी आवले का पेड़, इस प्रकार के कई गाँवों के नाम हैं जैसे पोलपोलपात, सुजान, खैरीपात, हीरोडिह, आम्बकोना (मतलब आम) इसी तरह असुरों का जीवन प्रकृति पर आधारित माना जाता है।

असुरों की परम्परा में नारीवादी तथ्य और अवधारणायें भी देखने को मिलती हैं। क्योंकि असुर परम्परा में महिलाओं की इच्छा महत्वपूर्ण होती है। परन्तु हिन्दू धर्म ग्रंथों के अनुसार-असुर विवाहउसे कहते हैं जिसमें कन्या को मूल्य देकर खरीदा गया हो। हालाँकि वास्तविकता इसके विपरीत है। क्योंकि इस आदिम जनजाति की परंम्परा के अनुसार, असुर दंपत्ति बिना शादी किये भी एक-दूसरे के साथ जीवन व्यतीत कर सकते हैं। और संतान उत्पन्न कर सकते हैं। उनकी संतान को अवैध संतान नहीं कहा जाता है। यदि कोई असुर महिला बलात्कार की शिकार हो जाये और उसके कारण उसे बच्चा हो तो, उस बच्चे को भी समाज में उतनी ही मान-प्रतिष्ठा मिलती है जितनी अन्य बच्चों को मिलती है। इस प्रकार यह स्पष्ट होता है कि भले ही असुर परंपराएं  प्राचीन हों परन्तु उनमें आज की आधुनिक अवधारणायें देखने को मिलती है। मूलनिवासी असुरों और आदिवासियों की समाज रचना बहुत हद तक मातृसत्तात्मक  भी थी। आज भी अधिकांश जनजातीय समाजों में मातृसत्तात्मक व्यवस्था के अवशेष देखे जा सकते हैं। मध्य प्रदेश के बालाघाट,छिंदवाडा, बेतुल,मालवा,निमाड़, सहित अन्य अनेक ज़िलों में गोंडू, कोरक, मील,बैगा जैसे आदिवासियों में विवाह और परिवार की व्यवस्था में स्त्रियों को अधिकार प्राप्त हैं। देश के अनेक राज्यों में भी जनजातीय समाजों में वधुमूल्य की प्रथा है जबकि आर्य अर्थात् ब्राह्मण धर्म को मानने वालों में इसके विपरीत दहेज़ की प्रथा है। इन आदिवासी समाजों में तलाक़ और पुनर्विवाह के बहुत सरल नियम हैं। जिनमें स्त्रियों और पुरुषों दोनों को सुविधा प्राप्त है आर्यों की भांति इनके समाजों में विवाह एक जन्म-जन्म का बन्धन नहीं माना जाता है। लेखक ने स्वयं के अपने ज़मीनी अध्ययन में देखा है कि आज भी जनजातीय समाज में बहुत सारी प्रथायें और मान्यताएं हैं जो जेंडर की समानता पर आधारित है और महिलाओं को बहुत अलग तरह से अधिकार देती हैं।

अपने गुरू के कहने पर तपस्या में लीन शंबूक की हत्या करता राम

असुर समाज में देह सामाजिक प्रतिष्ठा की कसौटी नहीं है, सामान्य मामलों में विवाह में लड़का-लड़की की सहमति महत्वपूर्ण होती है। सहमति बनने की इस प्रक्रिया को सामाजिक स्वीकार्यता भी हासिल हैं। हिंदी कैलेण्डर के अनुसार नया वर्ष शुरू होने के मौके पर ही असुर सात दिनों का डोल जतरा मेला लगाते हैं। बिहार के मिथिलांचल में भी सौराठ सभा का आयोजन होता है जहाँ लड़के-लड़कियां जुटते हैं और अपने जीवन-साथी का चुनाव समाज की मर्जी से सबके सामने करते हैं। हालाँकि बिहार में यह परम्परा पतन के कगार पर है। विवाह के लिए असुर भी गोत्र देखकर शादी करते हैं परन्तु गोत्र महत्वपूर्ण तो है परन्तु अनिवार्य नहीं है और असुर अपने परिवारों के बीच भी शादी करते हैं। इस समाज में परिवार की बुनियाद ही स्वतंत्रता है क्योंकि असुर समाज आपसी सहमति के विचार से चलता है और दांपत्य जीवन की बुनियाद भी यही है। यहाँ तक कि विषम परिस्तिथियों में दंपत्ति स्वेच्छा से अलग हो सकते हैं। महिला चाहे तो किसी भी अन्य पुरुष के साथ रह सकती है और पुरुष भी अगर चाहे तो किसी भी अन्य महिला के साथ रह सकता है। और मृत्यु होने पर असुर समाज में लाश को जलाने की परम्परा नहीं है बल्कि यहाँ मिट्टी देने की परम्परा है अर्थात् दफनाया जाता है।

यह भी पढ़ें : महिषासुर मिथक व परंपराएं : एक बौद्धिक हस्तक्षेप

असुर समाज में लोकतांत्रिक पद्दतियां भी विद्यमान हैं। हालाँकि असुरों का अपना कोई लिखित क़ानून नहीं है। बल्कि परम्पराएं ही उनके जीवन को अनुशासित रखती हैं। उनमें धर्मगुरु नहीं बल्कि सामाजिक गुरु होता है। अन्य आदिवासियों की ही भांति इन्हें वे बैगा, पुजार, और पहान आदि संबोधनों से बुलाते हैं। यह आश्चर्यजनक तथ्य है कि असुर अपने सामाजिक गुरु का चुनाव लोकतांत्रिक तरीके से करते हैं। बैगा के चुनाव 3 तीन वर्ष के लिए किया जाता है।

असुर जाति के लोग बिना किसी संकोच के उपनाम में असुर लगाते हैं। कुछ राज्यों में आज भी महिषासुर जाति के लोग और उनके मंदिर हैं जो प्रदर्शित करता है कि आज भी महिषासुर की परम्पराएं अस्तित्व में हैं। हालांकि ओबीसी, आदिवासी और दलित समाज यही तीन श्रेणियां हैं जो भारत के बहुजन समाज के नए रूप में ब्राह्मणवादी मिथक शास्त्रों के निशाने पर हमेशा से रही हैं। सदियों से इन्हीं के नायक देवी देवताओं और इन्हीं के जीवन-दर्शन सहित इनके प्राकृतिक संसाधनों को चुराया गया हैं। तथाकथित मुख्यधारा का हिन्दू समाज या ब्राह्मणी धर्म व दर्शन, असल में हिन्दू समझे जाने वाले अधिकांश बहुजनों से चुराकर उनका ब्राह्मणीकरण किया गया है। बहुजनों की भौतिकवादी प्राकृतिक पूजन और मातृसत्तात्मक संस्कृति और दर्शन को चुराकर उसे अपना बनाया गया है और उसके ख़िलाफ़ षड़यंत्र करके बहुजन नायकों को राक्षस, दैत्य और असभ्य साबित गया है¸ बल्कि उसकी जगह मिथकों और कल्पनाओं से भरे पुराण लिखे गए हैं। अन्य देशों के यात्रियों के द्वारा यहाँ एक बड़ी ही विस्तृत और प्राचीन सभ्यता की बात कही गई है इससे स्पष्ट है कि इस देश में इतिहास जरुर घटित हुआ परन्तु उसका लेखन नहीं हुआ। क्योंकि ब्रह्मणों ने ब्राह्मणवादी संस्कृति और सांस्कृतिक वर्चस्व क़ायम रखने के लिए इतिहास को तोड़-मरोड़ कर पेश किया है। इस पुस्तक में इस बात का दावा किया गया है कि आंबेडकर का शोध भी इस तथ्य की ओर संकेत करता है कि इस देश की मूल परम्परा और मूल शासकों को धीरे-धीरे शिक्षा और व्यापर से वंचित करके समाज के सबसे निम्नतर स्तर पर ला दिया गया। भारत में जिन क्रूर लोगों और संस्कृति ने मूलनिवासी संस्कृति को छलपूर्वक नष्ट किया है वह उन्होंने मनौवेज्ञानिक और धार्मिक षड्यंत्रों द्वारा नष्ट किया है। इसी कारण उन्होंने कभी भी व्यवस्थित रूप से अपने छल-कर्म का इतिहास नहीं लिखा। उन्होंने हमेशा ही मिथक लिखे हैं, और अपने मिथकों में इस बात के संकेत जरुर छोड़े हैं कि वे कितने अमानवीय, अन्यायी, धूर्त और कपटी थे।

इस प्रकार महिषासुर इस सांस्कृतिक संघर्ष को आगे बढ़ा रहा है क्योंकि इस आन्दोलन का यह मानना है कि स्थापित और आदर्श के रूप में प्रस्तुत की गई सांस्कृतिक संरचना को तोड़े बिना वर्तमान में स्थापित प्रभुत्व को तोड़ा नहीं जा सकता है। प्रमोद रंजन लिखते हैं- सांस्कृतिक गुलामी सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक गुलामी को मजबूत करती है। उत्तर भारत में राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक गुलामी के विरुद्ध तो संघर्ष हुआ लेकिन सांस्कृतिक गुलामी अभी भी लगभग अछूती रही है। जो संघर्ष हुए भी हैं वे प्रायः धर्म सुधार के लिए हुए हैं अथवा उनका दायरा ब्रहामणों, द्विजों में मौजूद सामाजिक विकृतियों को कम करने तक सीमित रहा है। मनुवाद की नाभि पर प्रहार करने वाला कोई आन्दोलन नहीं हुआ। इस प्रकार महिषासुर आन्दोलन सवर्ण राष्ट्रीयता को चुनौती दे रहा है, जो निरंतर अपने विकास के पथ पर अग्रसर है।

(हिंदी मासिक पत्रिका ‘आंबेडकर इन इन्डिया’ के अप्रैल-मई अंक में प्रकाशित)

किताब :  महिषासुर : मिथक और परंपराएं

संपादक : प्रमोद रंजन

मूल्य : 350 रूपए (पेपर बैक), 850 रुपए (हार्डबाऊंड)

पुस्तक सीरिज : फारवर्ड प्रेस बुक्स, नई दिल्ली

प्रकाशक व डिस्ट्रीब्यूटर : द मार्जिनलाइज्ड, वर्धा/दिल्ली, मो : +917827427311 (वीपीपी की सुविधा उपलब्ध)

ऑनलाइन यहां से खरीदें : https://www.amazon.in/dp/8193561651

 


फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्‍त बहुजन मुद्दों की पुस्‍तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्‍स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्‍य, सस्‍क‍ृति व सामाजिक-राजनीति की व्‍यापक समस्‍याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्‍स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +919968527911, ईमेल : info@forwardmagazine.in

फारवर्ड प्रेस की किताबें किंडल पर प्रिंट की तुलना में सस्ते दामों पर उपलब्ध हैं। कृपया इन लिंकों पर देखें :

बहुजन साहित्य की प्रस्तावना 

दलित पैंथर्स : एन ऑथरेटिव हिस्ट्री : लेखक : जेवी पवार 

महिषासुर एक जननायक’

महिषासुर : मिथक व परंपराए

जाति के प्रश्न पर कबी

चिंतन के जन सरोकार 

लेखक के बारे में

मो. आरिफ खान

मो. आरिफ खान दिल्ली विश्वविद्यालय के राजनीति विज्ञान विभाग में शोधार्थी हैं।

संबंधित आलेख

सामाजिक आंदोलन में भाव, निभाव, एवं भावनाओं का संयोजन थे कांशीराम
जब तक आपको यह एहसास नहीं होगा कि आप संरचना में किस हाशिये से आते हैं, आप उस व्यवस्था के खिलाफ आवाज़ नहीं उठा...
दलित कविता में प्रतिक्रांति का स्वर
उत्तर भारत में दलित कविता के क्षेत्र में शून्यता की स्थिति तब भी नहीं थी, जब डॉ. आंबेडकर का आंदोलन चल रहा था। उस...
पुनर्पाठ : सिंधु घाटी बोल उठी
डॉ. सोहनपाल सुमनाक्षर का यह काव्य संकलन 1990 में प्रकाशित हुआ। इसकी विचारोत्तेजक भूमिका डॉ. धर्मवीर ने लिखी थी, जिसमें उन्होंने कहा था कि...
कबीर पर एक महत्वपूर्ण पुस्तक 
कबीर पूर्वी उत्तर प्रदेश के संत कबीरनगर के जनजीवन में रच-बस गए हैं। अकसर सुबह-सुबह गांव कहीं दूर से आती हुई कबीरा की आवाज़...
पुस्तक समीक्षा : स्त्री के मुक्त होने की तहरीरें (अंतिम कड़ी)
आधुनिक हिंदी कविता के पहले चरण के सभी कवि ऐसे ही स्वतंत्र-संपन्न समाज के लोग थे, जिन्हें दलितों, औरतों और शोषितों के दुख-दर्द से...