h n

आरएसएस के अांगन में प्रणब मुखर्जी

प्रणब मुखर्जी ने अपने उपर उठ रहे सवालों को विराम नहीं दिया है। उन्होंने कहा है कि आगामी 7 जून को नागपुर में आरएसएस के प्रचारकों को संबोधित करेंगे। क्या उनका संबोधन कांग्रेस और आरएसएस के बीच अंदरूनी रिश्तों का प्रमाण होगा या फिर यह एक सोची समझी राजनीति है? क्या यह पहला अवसर होगा जब कोई कांग्रेसी आरएसएस के आंगन में अपनी उपस्थिति दर्ज कराएगा? बता रहे हैं डॉ. सिद्धार्थ :

प्रणब मुखर्जी, से पहले महात्मा गांधी जा चुके हैं, संघ के शिविर में

पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी द्वारा संघ मुख्यालय नागपुर जाकर संघ के भावी प्रचारकों को संबोधित करने के आमंत्रण को स्वीकार करने पर कुल लोग हाय-तौबा मचा रहे हैं। कहा जा रहा है कि ऐसा करके प्रणब मुखर्जी आरएसएस को वैधता प्रदान कर रहे हैं। लेकिन क्या प्रणब मुखर्जी ऐसे पहले व्यक्ति हैं, जो आरएसएस को वैधता प्रदान कर रहे हैं, उसकी प्रतिष्ठा बढ़ाने में मदद कर रहे हैं और उसके साथ एक सहमति कायम कर रहे हैं। यह करते हुए प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तरीके से उसके दर्शन, विचार और कार्यक्रम को जायज ठहराएंगे, क्या इस अन्य नेता, पार्टी और संस्थान ऐसा पहले नहीं कर चुके हैं?

पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी

गौरतलब है कि प्रणब मुखर्जी आगामी 7 जून को नागपुर में आरएसएस के उन कार्यकर्ताओं को संबोधित करेंगे, जिन्होंने संघ के शैक्षिक पाठ्यक्रम का तृतीय शिक्षा वर्ग पास किया है। यह ट्रेनिंग पास करने वाले ही आगे चलकर पूर्णकालिक प्रचारक बनते हैं। आरएसएस की स्थापना 27 सितंबर सन् 1925 को  विजयादशमी के दिन डॉ. केशव हेडगेवार द्वारा की गयी थी। आज के करीब 93 वर्ष पहले। इन 93 वर्षों में आरएसएस को भारत की लगभग सभी पार्टियों और उनके नेताओं ने वैधता प्रदान किया।

आरएसएस को वैधता प्रदान करने का काम 1934 में  ही महात्मा गांधी कर चुके हैं। अब वही काम यदि प्रणब मुखर्जी आज कर रहे हैं,तो इतना हल्ला हंगामा क्यों? क्या 1934 में आरएसएस कोई महान संस्था थी और आज पतित संस्था हो गई है? उसके विचार जो तब थे,वही आज हैं। कांग्रेसियों का संघ से काफी नजदीकी रिश्ता रहा है, 25 दिसंबर 1934 को महात्मा गांधी ने पहली बार संघ से रिश्ता कायम कर संघ को वैधता प्रदान की थी। गांधी संघ के वर्धा शिविर में शामिल हुए थे, इतना ही नहीं उन्होंने संघ प्रमुख  हेडगेवार को उनके मिशन की सफलता के लिए बधाई भी दी थी।

पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी और आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत

वर्ष 1966 में इंदिरा गांधी ने प्रधानमंत्री बनते ही  वी.डी. सावरकर पर डाक टिकट जारी किया। यह वही सावरकर हैं, जो मनुस्मृति की प्रशंसा के गीत गाते हैं और मुस्लिम महिलाओं के साथ बलात्कार को शौर्यपूर्ण एवं वीरतापूर्ण कार्य मानते हैं और आज संघ-भाजपा के सबसे बड़े प्रेरणास्रोत हैं। आरएसएस के एकनाथ रानाड़े के आमंत्रण पर 1977 में  प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने कन्याकुमारी में विवेकानंद राॅक मेमोरियल का उदघाटन किया था

22 दिसंबर 1949 को अयोध्या की बाबरी मस्जिद में रामलला की मूर्ति की स्थापना में कांग्रेस की अहम भूमिका थी। इसने उस नींव का काम किया, जिस पर संघ और भाजपा की राजनीति फली-फूली। इसे और आगे बढ़ाया  प्रधानमंत्री के रूप में राजीव गांधी ने। 1 फरवरी 1986 को रामजन्मभूमि का ताला प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने खुलवाया था। बाबरी मस्जिद कांग्रेसी शासन काल में ही 1992 में गिराई गई। यह काम करके कांग्रेस ने संघ के लिए और उर्बर जमीन तैयार की  और अल्पसंख्यकों के दोयम दर्जे का नागरिक होने का एहसास करा दिया।

मुस्लिम सहित अन्य अल्पसंख्यकों के कत्लेआम और दलितों पर सवर्णों  के अत्याचार को प्रश्रय देने में कांग्रेस संघ-भाजपा से बहुत पीछे नहीं रही है। कांग्रेसी नेता सलमान खुर्शीद का यह बयान सौ प्रतिशत  जायज है कि कांग्रेस के हाथ मुसलमानों के खून से रंगे हुए है, यदि बात दलितों के बारे में भी लागू होती है। महाराष्ट्र इसका सबसे ज्वलंत उदाहरण रहा है, जहां दलित पैंथर का जन्म ही 1972 में सवर्णों के असहनीय अत्याचार का प्रतिवाद करने लिए हुआ था। उस समय केंद्र और महाराष्ट्र में कांग्रेस का ही शासन था।

आरएसएस की शिविर का एक दृश्य

आज कांग्रेस नरम हिंदुत्व की राजनीति पर ही भरोसा कर रही है, नरम हिंदुत्व कट्टर हिंदुत्व के लिए जमीन तैयार करता है। हिंदुत्व के प्रति समान नजरिया अपनाने चलते ही डॉ. आंबेडकर ने हिंदू महासभा और कांग्रेस में  कोई बुनियादी अंतर नहीं मानते थे, उन्होंने ने अपनी किताब पाकिस्तान अथवा भारत का विभाजन में दो टूक शब्दों में लिखा है कि यह कहने का कोई लाभ नहीं है कि कांग्रेस हिंदू संगठन नहीं है। यह एक ऐसा संगठन है, जो अपने गठन में हिंदू ही है, वह हिंदू मानस की ही अभिव्यक्ति करेगा और हिंदू आकंक्षाओं का ही समर्थन करेगा। कांग्रेस और हिंदू महासभा में बस इतना ही अंतर है कि जहां हिंदू महासभा अपने कथनों में अधिक अभद्र है और अपने कृत्यों में भी कठोर है, वहीं कांग्रेस नीति-निपुण और शिष्ट है। इस तथ्यगत अंतर के अलावा कांग्रेस और हिंदू महासभा के बीच कोई अंतर नहीं है

आरएसएस को वैधता प्रदान करने का काम अपने को सोशिलिस्ट कहने वाले और संसदमार्गी वामपंथियों ने भी किया है। इस काम में दलितों की राजनीति करने वाली पार्टी बसपा की नेता मायावती जी भी पीछे नहीं रहीं हैं।

मसलनगैर कांग्रेसवाद के नाम पर संघ और उसकी राजनीतिक शाखा जनसंघ को वैधता प्रदान करने में लोहिया का भी योगदान रहा है।12 अप्रैल 1964 को उन्होंने दीनदयाल उपाध्याय के साथ मिलकर एक वक्तव्य जारी किया। लोहिया को भारतीय जनसंघ के नजदीक लाने की कोशिश नानाजी देशमुख ने की थी। 1963 में कानपुर में हुए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एक कैंप में वे लोहिया को लेकर गए थे। इसी नींव पर आगे चलकर भारतीय जनसंघ, सोशलिस्ट पार्टी और स्वतंत्र पार्टी के साथ ही कांग्रेस से निकली हुईं कुछ पार्टियां मसलन बंगाल कांग्रेस, संगठन कांग्रेस का 1967 के चुनावों के पहले गठबंधन बना। लोहिया भले ही आर्थिक और सामाजिक मामलों में ओबीसी समाज के साथ खड़े रहे हों, लेकिन वे सांस्कृति तौर पर आरएसएस के साथ खड़े थे। राम और कृष्ण उन्हें भी उतने ही प्यारे थे, जिनते आरएसएस को हैं।

अपने को लोहिया और जयप्रकाश का शिष्य कहने वाले सामाजिक न्यायवादियों ने कब-कब कैसे-कैसे संघ को वैधता प्रदान किए यह जगजाहिर है। जार्ज फर्नाडिज और शरद यादव तो लंबे समय तक एनडीए के संयोजक थे। इतना ही नहीं, गैर कांग्रेसवाद के नाम पर भारतीय संसद मार्गी वामपंथी पार्टियां भी संघ-जनसंघ या भाजपा के साथ सहयोग कर उन्हें वैधता प्रदान करती रही हैं। हाल में पंश्चिम बंगाल के पंचायत चुनावों में इस तरह की खबरें आई थीं। लेकिन पहले भी वे गैर-कांग्रेसवाद के नाम पर बनने वाले गठजोड़ों में संघ के साथ खड़े हुए थे।

बसपा ने भाजपा को वैधता प्रदान करने में पीछे नहीं रही है, हद तब हो गई थी, जब 2002 में गुजरात में मुसलमानों के कत्लेआम के बाद बसपा सुप्रीमो मायावती जी ने गुजरात जाकर भाजपा के पक्ष में प्रचार किया। इतना ही नहीं बसपा ने यह नारा भी दिया कि ब्राह्मण शंख बजायेगा, हाथी बढ़ता जायेगा।


फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्‍त बहुजन मुद्दों की पुस्‍तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्‍स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्‍य, सस्‍क‍ृति व सामाजिक-राजनीति की व्‍यापक समस्‍याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्‍स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +919968527911, ईमेल : info@forwardmagazine.in

फारवर्ड प्रेस की किताबें किंडल पर प्रिंट की तुलना में सस्ते दामों पर उपलब्ध हैं। कृपया इन लिंकों पर देखें :

महिषासुर एक जननायक’

महिषासुर : मिथक व परंपराए

बहुजन साहित्य की प्रस्तावना 

दलित पैंथर्स : एन ऑथरेटिव हिस्ट्री : लेखक : जेवी पवार 

जाति के प्रश्न पर कबीर चिंतन के जन सरोकार

जाति के प्रश्न पर कबी

चिंतन के जन सरोकार

 

लेखक के बारे में

डॉ. सिद्धार्थ रामू

डॉ. सिद्धार्थ रामू लेखक, पत्रकार और अनुवादक हैं। “सामाजिक क्रांति की योद्धा सावित्रीबाई फुले : जीवन के विविध आयाम” एवं “बहुजन नवजागरण और प्रतिरोध के विविध स्वर : बहुजन नायक और नायिकाएं” इनकी प्रकाशित पुस्तकें है। इन्होंने बद्रीनारायण की किताब “कांशीराम : लीडर ऑफ दलित्स” का हिंदी अनुवाद 'बहुजन नायक कांशीराम' नाम से किया है, जो राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित है। साथ ही इन्होंने डॉ. आंबेडकर की किताब “जाति का विनाश” (अनुवादक : राजकिशोर) का एनोटेटेड संस्करण तैयार किया है, जो फारवर्ड प्रेस द्वारा प्रकाशित है।

संबंधित आलेख

जब राहुल गांधी हम सभी के बीच दिल्ली विश्वविद्यालय आए
बातचीत के दौरान राहुल गांधी ने विश्वविद्यालयों में दलित इतिहास, आदिवासी इतिहास, ओबीसी इतिहास को पढ़ाए जाने की मांग की। उन्होंने कहा कि 90...
प्रधानमंत्री के नए ‘डायलॉग’ का इंतजार कर रहा है बिहार!
बिहार भाजपा की परेशानी यह है कि आज की तारीख में ऐसा कोई नेता नहीं है जो चुनाव में पार्टी का नेतृत्व कर सके।...
कौन बैठे हैं उच्च न्यायालयों में शीर्ष पर? (संदर्भ पटना व झारखंड उच्च न्यायालय)
सवर्ण जातियों में सबसे श्रेष्ठ मानी जानेवाली ब्राह्मण जाति के जजों की पटना उच्च न्यायालय में हिस्सेदारी 30.55 प्रतिशत है। जबकि राज्य की आबादी...
क्यों दक्षिण भारत के उच्च न्यायालयों के अधिकांश जज ओबीसी, दलित और आदिवासी होते हैं तथा हिंदी पट्टी में द्विज-सवर्ण?
जस्टिस चंद्रचूड़ और जस्टिस खन्ना के कार्यकाल में देश के विभिन्न उच्च न्यायालयों में हुई जजों की नियुक्तियों में पिछड़ा वर्ग, अत्यंत पिछड़ा वर्ग,...
बिहार के गांवों में पति का प्रभुत्‍व और जाति की दबंगता दरकी, लेकिन खत्‍म नहीं हुई
रोहतास और औरंगाबाद जिले में सर्वेक्षण के मुताबिक, पिछले 35 वर्षों में ग्रामीण सत्‍ता में सवर्णों के आधिपत्‍य को यादव जाति ने चुनौती दी...