चंद्रशेखर का 2019 का राजनीतिक एजेंडा क्या होगा? यह प्रश्न हर उस व्यक्ति के सामने है, जो चंद्रशेखर से सहानुभूति रखने वाला है। हालांकि, 14 सितम्बर 2018 को जेल से रिहा होने के बाद चंद्रशेखर ने कहा था कि उनका मकसद भाजपा को हराना है, और उसे सत्ता में वापिस आने से रोकना है। वह अभी भी अपने इस मत पर कायम हैं और अपने सभी साक्षात्कारों में इस बात को दोहरा रहे हैं कि वह और उनकी आर्मी, चाहे जो हो जाए भाजपा को वापिस नहीं आने देंगे। लेकिन इसकी रणनीति क्या होगी, यह उन्होंने स्पष्ट नहीं किया है।
पहले हम मायावती और उनकी बहुजन समाज पार्टी (बसपा) की बात करते हैं, जिसका सहारनपुर गढ़ माना जाता है। चंद्रशेखर का अपना गृह जनपद भी सहारनपुर है, इसलिए यह देखना दिलचस्प होगा कि बसपा की राजनीति के साथ भीम आर्मी की भूमिका क्या होगी? चंद्रशेखर ने अभी तक मायावती का विरोध नहीं किया है। वह अभी भी उनको बुआ कहते हैं, जबकि मायावती ने न सिर्फ उनके बुआ कहने का विरोध किया है, बल्कि यह भी कहा है कि ‘चंद्रशेखर सहारनपुर दंगे का एक अभियुक्त है, जो मुझसे सम्बन्ध जोड़ने की कोशिश कर रहा है।’ यह बात उन्होंने चंद्रशेखर की रिहाई के दो दिन बाद 16 सितम्बर 2018 को लखनऊ में कही थी और यह भी साफ कर दिया था कि ‘मुझे ऐसे लोगों से कोई सम्बन्ध नहीं रखना है।’

भीम आर्मी चीम चंद्रशेखर
इससे स्पष्ट है कि मायावती की नजर में चंद्रशेखर एक अभियुक्त से ज्यादा कोई अहमियत नहीं रखते हैं। इससे उनकी आगे की राह आसान नजर नहीं आती है। मायावती कदापि नहीं चाहेंगी कि कोई और दलित नेता उनके समानांतर खड़ा होने की कोशिश करे। इसलिए मायावती ने चंद्रशेखर को यह भी सलाह दी है कि उसे अगर काम करना है, तो वह बसपा में आकर काम करे। बसपा में शामिल होकर काम करने का मतलब साफ़ है, अपने वजूद को खत्म करना और मायावती की मर्जी के बिना गतिविधि क्या, किसी भी मुद्दे पर बयान तक देने की मनाही।
चंद्रशेखर क्या, कोई भी संवेदनशील व्यक्ति इस तरह से आंदोलनों से दूर रहकर और अपना मुंह बंद रखकर अपने अस्तित्व को खत्म नहीं कर सकता। ऐसी राजनीतिक परिस्थिति में दलाल ही पनप सकते हैं, नेता नहीं। इसलिए बसपा के साथ चंद्रशेखर का टकराव अवश्यम्भावी है।
बहुजन विमर्श को विस्तार देतीं फारवर्ड प्रेस की पुस्तकें
टकराहट का यह संकेत मिलना शुरू भी हो गया है। चंद्रशेखर ने ‘हिन्दुस्तान’ (19 सितम्बर 2018) अख़बार को दिए साक्षात्कार में अपने और मायावती जी के बारे में सरोकार के अंतर को रेखांकित किया है। वह कहते हैं कि मायावती सर्वजन की राजनीति करती हैं, जबकि वह बहुजन के साथ हैं। इससे पता चलता है कि उनकी राजनीति बसपा समर्थक की नहीं रहने वाली है। इससे पहले 16 सितम्बर को भी चंद्रशेखर ने एक बड़ा बयान दिया था कि मायावती के आसपास वही लोग हैं, जिन्होंने दलितों का शोषण किया है, और वे दलितों के लिए कुछ नहीं करने देते।
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जेल से रिहा होने के बाद ही चंद्रशेखर ने कहा था भाजपा को हराना उनका लक्ष्य
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केजरीवाल और राहुल से भी परहेज नहीं
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मायावती ने कहा – चंद्रशेखर से उनका कोई संबंध नहीं
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सहारनपुर से आगे नहीं बढ़ सकी है चंद्रशेखर की राजनीतिक जमीन
जाहिर है कि चंद्रशेखर एक बड़े राजनीतिक बदलाव के पक्ष में हैं। अगर वह बहुजनों के साथ हैं, तो देखना यह है कि उनके बहुजन कौन हैं और कितना नया बहुजन नेतृत्व उनके साथ है?
चंद्रशेखर ने जेल से रिहा होने के बाद कहा था कि यदि समाज कहेगा तो वह चुनाव भी लड़ सकते हैं, और दलित हित में वह राहुल गांधी और अरविंद केजरीवाल से भी हाथ मिलाने को तैयार हैं। अगर वह चुनाव लड़ते हैं, तो क्या चंद्रशेखर भीम आर्मी को राजनीतिक दल में बदलेंगे या नई पार्टी बनायेंगे? क्योंकि चुनाव लड़ने के लिए यह आवश्यक है। लेकिन उन्हें इस सच्चाई को भी महसूस करना होगा कि वह एक छोटे से आन्दोलन से निकले हैं, जिसकी कोई राजनीतिक जमीन नहीं है और सहारनपुर से आगे उनकी कोई सामाजिक जमीन भी नहीं है। राजनीतिक जमीन एकाध दिन में या एकाध साल में नहीं बनती है, इसके लिए दस साल भी कम हैं। सामाजिक आंदोलनों से निकले दो युवा नेताओं के उदाहरण हमारे सामने हैं, एक हैं, जिग्नेश और दूसरे हैं, अल्पेश। दोनों ने ही कोई राजनीतिक पार्टी नहीं बनाई। अत: अल्पेश ने कांग्रेस के टिकट पर और जिग्नेश ने निर्दलीय चुनाव लड़ा और दोनों जीते। अगर चंद्रशेखर का इरादा चुनाव लड़ने का बनता है, तो उन्हें इन्हीं दो विकल्पों में से एक को चुनना होगा और वह जो भी विकल्प चुनेंगे, वह उनकी साख को खत्म कर सकता है।
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शायद चंद्रशेखर ने इस हकीकत को जान लिया है और ‘हिंदुस्तान’ को दिए गए इन्टरव्यू के अनुसार, उन्होंने चुनाव न लड़ने का फैसला कर लिया है। उन्होंने राजनीति को गंदगी की संज्ञा दी है और कहा है कि उन्हें राजनीति की गंदगी को बाहर रहकर साफ करना है। निश्चित रूप से वर्तमान परिस्थितियों में राजनीति का स्वरूप साफ़-सुथरा नहीं रह गया है। वह पूंजीवाद और जाति-धर्म से संचालित होने लगी है। अगर चंद्रशेखर बाहर रहकर इस गंदगी को, अगर गंदगी से उनका यही मतलब है, साफ़ करने के लिए कोई भूमिका निभाते हैं, तो निश्चित रूप से यह भी इतिहास में दर्ज करने लायक होगा। परन्तु फिलहाल विचार करने का प्रश्न यह है कि 2019 के आम चुनावों में उनकी क्या भूमिका होगी? भीम आर्मी राजनीतिक दल नहीं है, और वह स्वयं चुनाव लड़ेंगे नहीं, तब जाहिर है कि उनकी एक ही भूमिका हो सकती है कि वह किसी अन्य दल को चुनाव लड़ाएं। लेकिन किस दल को? यह दूसरा बड़ा प्रश्न है। यदि भाजपा के विरुद्ध कांग्रेस, बसपा, सपा और अन्य दलों का गठबन्धन नहीं बनता है, तो स्पष्ट है कि मैदान में सभी दलों के अपने-अपने उम्मीदवार होंगे। ऐसी परिस्थिति में चंद्रशेखर भाजपा को हराने के लिए किस दल को चुनाव लड़ाएंगे? एक स्थिति यह हो सकती है कि वह हर क्षेत्र में यह देखें कि किस दल का उम्मीदवार भाजपा को टक्कर देने में समर्थ है, उसका समर्थन करें और अपने समर्थकों से उसके पक्ष में वोट डालने को कहें। मसलन अगर कैराना में सपा का उम्मीदवार भाजपा को हरा सकता है, तो वहां वह सपा को, अगर सहारनपुर में बसपा मजबूत हो, तो वहां बसपा को, और मेरठ में अगर कांग्रेस का उम्मीदवार मजबूत हो, तो वहाँ कांग्रेस को अपने समर्थकों के वोट दिलवाने की राजनीति कर सकते हैं। लेकिन यह राजनीति उनकी साख को बर्बाद कर सकती है, क्योंकि उन पर कैराना में सपा से, और मेरठ में कांग्रेस से पैसे लेने के आरोप लग सकते हैं, और सहारनपुर बसपा का पक्ष लेकर वह अपनी बुआ का साथ देंगे, जो उन्हें एक अभियुक्त ही समझती हैं।
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क्या 2019 के आम चुनावों में चंद्रशेखर की यही नियति होनी है? लेकिन इससे से भी बड़ा प्रश्न यह है कि वह बसपा के परम्परागत वोट को विभाजित करने में शायद ही सफल हो पायें। जैसे सवर्ण वोटर भाजपा से लाख नाराज होने के बावजूद भाजपा को ही वोट देगा, उसी तरह जाटव और चमार वोटर मायावती से लाख नाराज होने के बावजूद बसपा को ही वोट देगा। किन्तु यदि चंद्रशेखर और भीम आर्मी का काम उनके इलाके में इतना प्रभावशाली है कि उन्हें यह पक्का लगता है कि वह बसपा का परम्परागत वोट विभाजित कराने में सफल हो सकते हैं, तो उन पर भाजपा की ओर से खेलने का आरोप लगना तय है। कुल मिलाकर फिलहाल का दृश्य यही है।
(कॉपी संपादन : सिद्धार्थ/एफपी डेस्क)
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Sad to see that one more Dalit leader has fallen prey to brahmanical machination. The blind followers of Mayawati should realise that she has compromised with BJP long ago when she began amassing wealth like nobody’s business. Not many supporters are looking at her as PM candidate, though we do want somebody from Bahujan class as PM. Eventually, by her blind ambition she will divide the bahujan votes and help the Manuvadis to gain substantial strength in the Lok Sabha. Her shabby treatment to Chandrashekhar clearly shows that she wants no popular leader around her. Nor does she want to enter into alliance with other Bahujan parties like that of Sharad Yadav, Ambedkarite Party of India. She should remember it is because of Kanshiramji who created BAMSEF that she has a committed cadre. She brought about no fundamental difference in the lives of the Bahujan community in UP. Had she done something like what kejariwal had done in Delhi, her popularity would have soared. Even if she gets large number of seats in the Lok Sabha she will not be able to do anything for the Bahujan community because she has too many skeletons in her cupboard. ANd, evetually, it would be Bahujan movement and leadership
that will get discredited. Nobody should underestimate the power of Manuvadi forces who have absorbed young and promising Bahujan leaders like Paswan, Nitin Kumar, Athawale etc. by allurement of office, power and what not. None could remain clean and remain honest to the Bahujan cause except Sharad Yadav.