बसपा सुप्रीमो मायावती ने 16 सितंबर 2018 को लखनऊ स्थित अपने आवास पर संवाददाता सम्मेलन किया। जिसमें उन्होंने कहा कि चंद्रशेखर या भीम अार्मी से मेरा कोई लेना-देना नहीं। उन्होंने चंद्रशेखर रावण या भीम आर्मी का सीधे-सीधे नाम नहीं लिया।
चंद्रशेखर रावण द्वारा मायावती जी को बुआ कहकर या खून का रिश्ता बताकर व्यक्तिगत रिश्ते या सामाजिक रिश्ता कायम करने की कोशिश को भी उन्होंने सिरे से खारिज कर दिया। मायावती ने साफ शब्दों में कहा कि उनका इस तरह के लोगों से कोई लेना-देना नहीं है। उन्होंने आक्रामक तेवर में भीम आर्मी और चंद्रशेखर जैसे लोगों को राजनीतिक धंधा करने वाला भी कहा।
याद रहे कि इस पहले भी बसपा सुप्रीमो चंद्रशेखर और भीम आर्मी के बारे में आक्रामक रूख प्रकट कर चुकी हैं। यहां तक कि वे भीम आर्मी को दलितों को बांटने वाला भी कह चुकी हैं। उन्होंने कभी भी चंद्रशेखर पर रासुका लगाने या उनकी रिहाई का के संदर्भ में एक शब्द भी नहीं बोला। प्रश्न यह है कि आखिर मायावती भीम आर्मी से इतनी दूरी क्यों बनाकर रखना चाहती हैं, वे क्यों भीम आर्मी और चंद्रशेखर के प्रति इतनी आक्रामक हैं?
सबसे पहले इस यहां इस तथ्य को रेखांकित कर लेना चाहिए कि बसपा पार्टी का मतलब मायावती या दूसरे शब्दों में मायावती का मतलब बसपा पार्टी हो चुका है, स्वतंत्र व्यक्तित्व रखने वाले किसी भी नेता के लिए बसपा में कोई जगह नही रह गई है। उत्तर प्रदेश में दलित 21 प्रतिशत हैं, यह दलित मायावती की राजनीतिक पूंजी हैं। इनके वोटों के इर्द-गिर्द ही वह अन्य वोट जुटाकर मुख्यमंत्री बनती हैं या सत्ता प्राप्त करती हैं। इसमें एक विशेष तथ्य यह भी है कि दलितों की कुल संख्या का करीब 55 प्रतिशत एक विशेष दलित जाति है, जिस जाति को कहीं जाटव, कहीं चमार और कहीं धुसिया नाम से जाना जाता है। मायावती और चंद्रशेखर दोनों इसी जाति के हैं और दोनों पश्चिमी उत्तर प्रदेश के उस क्षेत्र के भी है, जहां बसपा सबसे ताकतवर मानी जाती है।
पश्चिमी उत्तर प्रदेश में चंद्रशेखर दलितों और विशेषकर जाटवों के बीच तेजी से लोकप्रिय हो रहे हैं और उनकी यह लोकप्रियता अन्य क्षेत्रों में भी बढ रही है। इतना ही नहीं, मुसलमानों के बीच भी भीम आर्मी एवं चंद्रशेखर की लोकप्रियता बढ़ रही है। मुसलमान भीम आर्मी जैसे संगठनों के साथ जुड़ने में अपनी सुरक्षा देख रहे हैं। यह सब मायावती जी के लिए खतरे की घंटी है। मायावती जी के बरक्स चंद्रशेखर पहली बार एक वैकल्पिक राजनीतिक केंद्र के रूप में दलितों के बीच देखे जा रहे है, विशेषकर युवाओं के बीच। चंद्रशेखर की यह लोकप्रियता मायावती जी के राजनीतिक वर्चस्व के लिए खतरा बन सकती है, इसकी घबराहट शब्बीरपुर की घटना के बाद से ही दिखाई देने लगी थी। इस घबराहट को उनके द्वारा भीम आर्मी और चंद्रशेखर के संबंध में दिए गए उस समय के बयानों से में भी देखा जा सकता है।
सतह पर दिखने वाले इस तथ्य से भी गंभीर खतरा मायावती को एक और दिखाई दे रहा है। उनकी पार्टी चार बार उत्तर प्रदेश की सत्ता में रह चुकी है,वह चार बार मुख्यमंत्री रह चुकी हैं, लेकिन कोई भी शायद इस तथ्य से इंकार कर सके कि दलितों की आशा-आकांक्षाएं पूरी नहीं हुई। इस दौरान उनके सपने और चाहतें तो बढ़ीं, लेकिन वे पूरी नहीं हुईं। उनके भीतर सामाजिक समानता की जो तीव्र इच्छा पैदा हुई, वह भी पूरी नहीं हुई। आर्थिक तौर पर दलितों की स्थिति में कोई विशेष परिवर्तन जमीनी स्तर पर नहीं आया। जमीनी स्तर पर उनके जातीय उत्पीड़न में भी कोई विशेष परिवर्तन नहीं दिखाई दे रहा है, बल्कि चेतना बढने से यह और दुखदायी हुआ है। इस सब का परिणाम यह हुआ है कि दलितों, विशेषकर दलित युवाओं के बीच असंतोष-आक्रोश तेजी से बढ़ रहा है, जिसकी सबसे मुखर अभिव्यक्ति 2 अप्रैल को भारत बंद के दौरान हुई थी। भीम-आर्मी इस असंतोष-आक्रोश को अभिव्यक्ति देती है, क्योेंकि वह जमीनी स्तर दलितों के साथ खड़ा होकर जनसंघर्ष की बात करती है,जिससे बसपा और मायावती अपने को बहुत दूर कर चुके हैं। यह प्रक्रिया एक बड़े आंदोलन को जन्म दे सकती है, जो बसपा और मायावती की राजनीति के लिए खतरा पैदा कर सकता है।
बसपा सुप्रीमो मायावती भीम आर्मी और चंद्रशेखर को तात्कालिक और दीर्घकालिक दोनों रूपों में अपने लिए खतरा मानती हैं, जिसकी अभिव्यक्ति उन्होंने अपने संवाददाता सम्मेलन में किया।
(कॉपी संपादन- एफपी डेस्क)
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