भिखारी ठाकुर के जीवन पर आधारित संजीव के उपन्यास ‘सूत्रधार’ के नायक भिखारी ठाकुर अपने प्रति होने वाले जातिगत पक्षपातों पर रुआंसा होकर अविनाश चन्द्र विद्यार्थी से कहते हैं–
‘जिस साहित्य और साहित्यकार को वे इतनी बड़ी चीज मानते आये थे, वहां भी कनफुसुकिया और चपड़ चालाकी, वही डाह, वही ‘बाभन–सूद’ चलता है क्या! रामजी हे रामजी! उसी से बचने के लिए साहित्य और कला में आये और यहां भी वही…! चौबे जी की तरह विद्वान होते तो… नहीं नहीं, चौबे जी की तरह विद्वान ब्राह्मण होते तो और बात थी, खाली ‘बाभन’ होते तो भी चलता!’
(‘सूत्रधार’ पृ.304) बताते हैं, अंश सत्य घटना पर आधारित है।
साहित्य अकादेमी के सन् 1955 से लेकर 2017 तक के साहित्य अकादेमी सम्मान प्राप्त करनेवालों की वर्षवार, पुस्तकवार और मजबूरन जातिवार सूची दी जा रही है। खुदर्बीन लेकर ढूंढ़िये, सूची में एक भी पिछड़े, शूद्र, अतिशूद्र, अल्पसंख्यक (नारी या पुरुष) का नाम है? साहित्य अकादेमी के कर्ता–धर्ता, विद्वान और भारत सरकार के लोग क्या बताने की कृपा करेंगे कि क्यों नहीं है! क्या विगत 63-64 सालों में एक भी जन्मना गैर द्विज साहित्यकार के साहित्य को इस सम्मान योग्य नहीं पाया गया? और तो और आचार्य चतुरसेन शास्त्री, फणीश्वरनाथ रेणु और राजेन्द्र यादव को भी नहीं? जब रेणु और राजेन्द्र ही नहीं माने गये तो दूसरों का क्या!

आश्चर्य की बात है कि इस सूची में कोई मुसलमान लेखक भी नहीं है– राही मासूम रजा, शानी, बदी उज्जमा, आबिद सुरती… कोई नहीं। सूची में जिन चार महिला लेखकों के नाम हैं, उनमें एक भी पिछड़े, दलित (शूद्र, अतिशूद्र), अल्पसंख्यक परिवारों की नहीं (नासिरा शर्मा भी शर्मा (ब्राह्मण) ही हैं, अल्पसंख्यक में गण्य नहीं हो सकतीं।
साहित्य अकादेमी सम्मान (हिन्दी)
वर्ष | नाम | पुस्तक | जाति |
---|---|---|---|
1955 | माखनलाल चतुर्वेदी | /हिम तरंगिनि (कविता) | ब्राह्मण |
1956 | वासुदेव शरण अग्रवाल | पद्मावत संजीवनी व्याख्या (टीका) | वैश्य |
1957 | आचार्य नरेन्द्र देव | बौद्ध धर्म दर्शन | खत्री |
1958 | राहुल सांकृत्यायन | मध्य एशिया का इतिहास(इतिहास) | ब्राह्मण |
1959 | रामधारी सिंह ‘दिनकर’ | संस्कृति के चार अध्याय (शोध) | भूमिहार ब्राह्मण |
1960 | सुमित्रानंदन पंत | कला बौर बूढ़ा चांद (कविता) | ब्राह्मण |
1961 | भगवतीचरण वर्मा | भूले बिसरे चित्र(उपन्यास) | कायस्थ |
1963 | अमृतराय/प्रेमचन्द्र | कलम का सिपाही (जीवनी) | कायस्थ |
1964 | अज्ञेय | आंगन के पार द्वार(कविता) | ब्राह्मण |
1965 | नगेन्द्र | रस सिद्धान्त (कविता समालोचना) | ब्राह्मण |
1966 | जैनेन्द्र कुमार | मुक्तिबोध (उपन्यास) | जैन |
1967 | अमृतलाल नागर | अमृत और विष (उपन्यास) | ब्राह्मण |
1968 | हरिवंश राय ‘बच्चन’ | दो चट्टानें (कविता) | कायस्थ |
1969 | श्रीलाल शुक्ल | राग दरबारी(उपन्यास) | कायस्थ |
1970 | रामविलास शर्मा | निराला की साहित्य साधना(जीवनी) | ब्राह्मण |
1971 | नामवर सिंह | कविता के नये प्रतिमान (साहित्य आलोचना) | राजपूत |
1972 | भवानी प्रसाद मिश्र | बुनी हुई रस्सी (कविता) | ब्राह्मण |
1973 | हजारी प्रसाद द्विवेदी | आलोक पर्व (आलेख संग्रह) | ब्राह्मण |
1974 | शिवमंगल सिंह सुमन | माटी की बारात(कविता) | राजपूत |
1975 | भीष्म साहनी | तमस (उपन्यास) | खत्री |
1976 | यशपाल | मेरी तेरी उसकी बात(कविता) | खत्री |
1977 | शमशेर बहादुर सिंह | चुका भी हूं नहीं मैं (कविता) | जाट |
1978 | भारत भूषण अग्रवाल | उतना वह सूरज है (कविता) | वैश्य |
1979 | सुदामा पाण्डेय ‘धूमिल’ | कल सुनना मुझे(कविता) | ब्राह्मण |
1980 | कृष्णा सोबती | जिन्दगीनामा(उपन्यास) | खत्री |
1981 | त्रिलोचन | ताप के ताये हुए दिन (कविता) | राजपूत |
1982 | हरिशंकर परसाई | विकलांग श्रद्धा का दौर (व्यंग्य) | ब्राह्मण |
1983 | सर्वेश्वर दयाल सक्सेना | खूंटियों पर टंगे लोग (कविता) | कायस्थ |
1984 | रघुवीर सहाय | लोग भूल गये हैं(कथा संग्रह) | कायस्थ |
1985 | निर्मल वर्मा | कव्वे और काला पानी (कथा संग्रह) | खत्री |
1986 | केदारनाथ अग्रवाल | अपूर्वा (कविता) | वैश्य |
1987 | श्रीकान्त वर्मा | मगध (कविता) | कायस्थ |
1988 | नरेश मेहता | अरण्य (कविता) | ब्राह्मण |
1989 | केदारनाथ सिंह | अकाल में सारस (कविता) | राजपूत |
1990 | शिवप्रसाद सिंह | नीला चांद (उपन्यास) | राजपूत |
1991 | गिरजाकुमार माथुर | मैं वक्त के हूं सामने (कविता) | कायस्थ |
1992 | गिरिराज किशोर | ढाई घर(उपन्यास) | वैश्य |
1993 | विष्णु प्रभाकर | अर्द्धनारीश्वर(उपन्यास) | वैश्य |
1994 | अशोक वाजपेयी | कहीं नहीं वहीं (कविता) | ब्राह्मण |
1995 | कुँवर नारायण | कोई दूसरा नहीं (कविता) | मारवाड़ी जैन |
1996 | सुरेन्द्र वर्मा | मुझे चांद चाहिए(उपन्यास) | कायस्थ |
1997 | लीलाधर जगूड़ी | अनुभव के आकाश में चांद (कविता) | ब्राह्मण |
1998 | अरूण कमल | नये इलाके में(कविता) | ब्राह्मण |
1999 | विनोद कुमार शुक्ल | /दीवार में एक खिड़की रहती है(उपन्यास) | ब्राह्मण |
2000 | मंगलेश डबराल | हम जो दिखते हैं (कविता) | ब्राह्मण |
2001 | अलका सरावगी | कलिकथा: वाया बाईपास (उपन्यास) | मारवाड़ी |
2002 | राजेश जोशी | दो पंक्तियों के बीच (कविता) | ब्राह्मण |
2003 | कमलेश्वर | कितने पाकिस्तान(उपन्यास) | कायस्थ |
2004 | वीरेन डंगवाल | दुश्चक्र में स्रष्टा(कविता) | ब्राह्मण |
2005 | मनोहर श्याम जोशी | क्याप (उपन्यास) | ब्राह्मण |
2006 | ज्ञानेन्द्रपति | संशयात्मा (कविता) | ब्राह्मण |
2007 | अमरकान्त | इन्हीं हथियारों से (उपन्यास) | कायस्थ |
2008 | गोविन्द्र मिश्र | कोहरे में कैद रंग(उपन्यास) | ब्राह्मण |
2009 | कैलाश वाजपेयी | हवा में हस्ताक्षर (कविता) | ब्राह्मण |
2010 | उदय प्रकाश | मोहनदास (कहानी) | राजपूत |
2011 | काशीनाथ सिंह | रेहन पर रग्घू (उपन्यास) | राजपूत |
2012 | चंद्रकान्त देवताली | पत्थर फेंक रहा हूं (कविता) | ब्राह्मण |
2013 | मृदुला गर्ग | मिल जुल मन (उपन्यास) | वैश्य |
2014 | रमेश चन्द्र शाह | विनायक(उपन्यास) | वैश्य |
2015 | रामदरस मिश्र | आग की हंसी (कविता) | ब्राह्मण |
2016 | नासिरा शर्मा | पारिजात (उपन्यास) | ब्राह्मण |
2017 | रमेश कुंतल मघ | विमिथकसरित्सागर | ब्राह्मण |
2018 | चित्रा मुद्गल | नाला सोपारा पो.बा.नं.203 (उपन्यास) | ब्राह्मण |
बहुजन विमर्श को विस्तार देतीं फारवर्ड प्रेस की पुस्तकें
साहित्य अकादेमी कोई अमूर्त संस्था नहीं है। इसके निदेशक, सचिव, पदाधिकारी, जूरी के सदस्य हाड़ मांस के पुतले होते हैं। इस जात–पात के कोढ़ से ग्रस्त समाज में कोई पक्षपात विहिन निर्णय नहीं हो पायेगा? सम्मान के जूरी, संस्तुतिकर्ता या निर्णायक मंडल के सदस्य कौन लोग होते आये हैं जो जातिवाद के विरुद्ध और साहित्य, कला, संस्कृति और मानवता के पक्ष में अपने लेखन और भाषण में बढ़–चढ़ कर बोलने वाले इस बिंदु पर आकर न्याय के पक्ष में आवाज उठाने में लाचार क्यों हो जाते हैं–
यहां तक आते–आते सूख जाती हैं कई नदियां
हमें मालूम है पानी कहां ठहरा हुआ होगा?
तर्क देने वालों के हजारहा कुतर्क हो सकते हैं, मसलन छूटे हुए नामों में निराला, मुक्तिबोध, नागार्जुन, दुष्यन्त कुमार जैसे अनेक नाम हैं। जहां तक निराला का प्रश्न है, वे ‘ब्राह्मण समाज में ज्यों अछूत’ बनकर रहे’।
आज अमीरों की हवेली
किसानों की होगी पाठशाला
धोबी, पासी, चमार, तेली
खोलेंगे अंधेरे का ताला
कैसे स्वीकार्य होते!
राहुल सांकृत्यायन की स्थिति भी कोई बेहतर न थी। उनका निष्कर्ष था, हिन्दुस्तान तो सबसे बड़े नरक में है, क्योंकि इसके ऊपर बिलायती जोकों की गुलामी भी है और अपनी भी!’ ‘सतमी के बच्चे’ जैसी कहानियाँ और उनका पूरा साहित्य साक्षी है। ऐसे राहुल जी को साहित्य अकादेमी सम्मान मिल गया तो इसके पीछे जवाहर लाल नेहरू थे। नागार्जुन तो खुलेआम सामाजिक न्याय और दबे–कुचले लोगों के पक्षधर थे। उन्होंने ‘सूअर’ पर भी कविता लिखी– यह भी तो मादरे हिन्द की बेटी है। नागार्जुन को यह कहकर हटाया गया कि उन्हें मैथिली में पुरस्कार प्राप्त हो चुका है। नागार्जुन मैथिली से ज्यादा हिन्दी के साहित्यकार थे। इस भोड़े बहाने के बरक्स नोबेल पुरस्कार को रखते हैं– मैडम क्यूरी को दो–दो बार नोबेल मिल चुका है। औरों को भी किसी न किसी बहाने छांटा गया होगा, निष्पक्ष द्विजों को भी। हमें तो लगता है, आज प्रेमचन्द भी होते तो उन्हें भी अकादेमी ने इसी विनाह पर इस योग्य माना होता। ‘दुष्यंत’ और ‘अदम’ जैसे कितने जन्मना द्विज, जनता के कवि थे, मगर ऐसे सारे जनपक्षधर अकादेमी द्वारा नकारे गए। ‘ऐसे अनेक साहित्यकार हैं, जिन्हें अकादेमी ने सम्मानित किया भी तो ज्यादातर उनकी दोयम दर्जे या नखदंत विहीन कृतियों को सम्मानित किया, जबकि उनकी तेजस्वी कृतियों को छोड़ दिया। साहित्य अकादेमी का काम क्या तेजस्विता पर धूल डालना भर रह गया है? सारा आयोजन–प्रयोजन अच्छे साहित्यकार को निष्प्रभ और हाशिए के बाहर करने जैसा क्यों लगता है?
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ऐसा नहीं है कि वंचित जनपक्षधर, ओबीसी, स्त्री, दलित और अल्पसंख्यक साहित्य अकादेमी के सम्मान के लिए मरे जा रहे हैं, पर अगर हों तो गलत क्या है? तुम पियो तो पुण्य, हम पियें तो पाप! परीक्षाओं और साक्षात्कारों में क्यों पूछा जाता है कि अमुक लेखक को कितने सम्मान मिले हैं, किस कृति को अमुक–अमुक पुरस्कार या सम्मान मिला है, विदेश यात्राओं और दीगर चीजों पर यह मुद्दा प्रभाव डालता है। सबसे बुरा यह कि जनता में वही गलत संदेश जाता है। कुल मिलाकर यह भ्रम या गलत संदेश की स्थिति फैलती है कि एक निर्णय रोजी–रोटी और सम्मान से जीने के लिए कई–कई निर्णयों को प्रभावित करता है।
ऐसा संदेश क्यों जाता है कि पिछड़े, दलित, स्त्री, अल्पसंख्यक साहित्य अकादेमी से दूर–दूर रहें, यहां उनके लिए कोई स्थान नहीं है, यह सिर्फ और सिर्फ जन्मना सवर्णों के लिए आरक्षित है।
ध्रुव और उत्तम की वह मिथकीय कथा याद आती है जहां पिता की गोद में बैठने को गए ध्रुव को उत्तम की मां यह कहकर वंचित करती है कि गोद में बैठने के लिए तुम्हें मेरी कोंख से जन्म लेना चाहिए था।
अगर ऐसा नहीं है तो क्या अकादेमी एक श्वेत पत्र जारी करेगी– सम्मानित लेखक, पुस्तक, वर्ष के साथ–साथ यह भी कि विचारार्थ अन्य किन–किन लेखकों की किन–किन कृतियों को शामिल किया गया, जूरी के सदस्य कौन थे, निदेशक कौन, संस्तोता कौन, उनमें पात्रता थी या नहीं चयन/निर्णय करने की? क्या निर्णायक मंडल को प्रकाशित सभी श्रेष्ठ कृतियों की जानकारी थी? ऐसा इसलिए कि कम–अज–कम पता तो चले कि वे अर्हतायें कौन–कौन सी हैं जो उन्हें प्राप्त करनी चाहिए थी। ज्यादा नहीं, विगत 10 वर्षों की सूची जारी करें।
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ऐसा क्या हो गया कि सारी बौद्धिक प्रतिभा द्विजों तक ही केन्द्रित हो गई और विगत 63 वर्षों में एक भी गैर द्विज इस स्तर तक न पहुंच सका? प्रगतिशील माने जाने वाले एक शीर्ष पत्रकार ने तो एक बार यहां तक कहा था कि सभी क्षेत्रों में श्रेेष्ठ प्रतिभायें ब्राह्मण वंश से ही आती हैं। क्या मतलब…? वर्गों की तरह वर्णों में भी साहित्य बंटा होता है और गैर द्विजों पर घृणा से थूकते थे दुर्वासागण हमेशा प्रचारित–प्रसारित–पूजित होते रहते हैं।
साल–दर–साल यह सब स्वस्थ साहित्य के नाम पर चलाया जाता रहा और कोई चूं तक नहीं करता कि कहीं उनका नाम लिस्ट में आते–आते निकाल न दिया जाये।
साहित्य अकादेमी सम्मान के इस मत्स्य न्याय के पक्ष में यह भी तर्क दिए जा सकते हैं कि राधाकृष्ण, धर्मवीर भारती, रांगेय राघव, मोहन राकेश, शरद जोशी, सुरेन्द्र चैधरी आदि सवर्ण प्रतिभायें भी तो थीं जिन्हें अकादेमी सम्मानित न कर सकी, कि भारत की प्रायः आधी आबादी वाली हिन्दी के लिए एक सम्मान है और शेष भाषायें, जिनमें कतिपय भाषाओं के बोलने वालों की कुल संख्या कुछ एक लाख ही है, के लिए भी एक सम्मान, तो सबको अकादेमी कैसे मिलती! पूछा जाए, क्यों? एक ही वर्ष में सम्मान एकाधिक लोगों को देने का नियम भी तो बनाया जा सकता है। ज्ञानपीठ ने अपना सम्मान बांटा या नहीं? नोबेल पुरस्कार तो प्रायः हर साल बटते देखे गए हैं। अपनी इसी असूझ मात्र की मारी होती अकादेमी तो ऐसी दुविधायें दूर की जा सकती हैं, पर नहीं।
मजेदार बात है कि अकादेमी निराला की साहित्य–सर्जना का सम्मान नहीं करती, वहीं ‘निराला की साहित्य साधना’ को सम्मान योग्य मानती है। कभी–कभी लगता है, यह सब बहुत सचेत भाव से नहीं होता होगा, किंचित स्वतः स्फूर्त भाव से होने लगा होगा। तो क्या अतिसंख्य लोगों का ऐसा ही मानना है? अपने अंधकूप कम्फर्ट जोन के बाहर आकर देखें तो जन्मगत आधारों की धुरी धसकने लगी है। अब, जबकि बौद्धिकता की नई–नई अर्गलायें, आयाम और वितान खुलने लगे हैं, साहित्य अकादेमी या ऐसी तमाम संस्थायें अपने वर्गों–वर्णों तक ही सीमित रखकर उन्हें बौद्धिक दारिद्रय में कैद रखने का सांस्कृतिक अपराध नहीं कर रही हैं? एक बार जरा मुड़कर देखे तो उसे पता चलेगा कि रोकने की इतनी कोशिशों के बावजूद क्या रेणु, राजेन्द्र यादव, राही मासूम रजा, रांगेय राघव आदि के साहित्य की स्वीकार्यता को अकादेमी रोक पायी। वे आज भी लोकप्रिय हैं जबकि अकादेमी के सम्मानित अधिकतर साहित्य को कोई पूछता भी नहीं।
(कॉपी संपादन : एफपी डेस्क, इमामुद्दीन )
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दलित पैंथर्स : एन ऑथरेटिव हिस्ट्री : लेखक : जेवी पवार