h n

नया फरमान : दिल्ली के रेस्त्राओं को बोर्ड लगाना होगा कि मीट ‘झटका’ है या ‘हलाल’

परंपरागत रूप से ऊंची हिंदू जातियों का धर्म नीची जातियों के हिंदुओं और मुसलमानों का छुआ खाना खाने से भ्रष्ट हो जाता है। क्या उन्हें पाप से बचाने के लिए होटलों के साइन बोर्ड में मालिक की जाति-धर्म और वेटरों के नेमप्लेट में उनके नाम के साथ उनकी जाति का उल्लेख किया जाएगा?

बहु-जन दैनिकी

वैज्ञानिक सोच को झटका किया जाना चाहिए या हलाल?


संघ परिवार
की विचारधारा में पले-बढ़े लोगों के लिए उपरोक्त सवाल लाख टके का है। 2014 में भाजपा के पूर्ण बहुमत से विजय हासिल करने के बाद से वे इस पर गहन चिंतन कर रहे हैं। विचार इस पर भी चल रहा है देश में बचे हुए सांप्रदायिक सद्भाव को हल्के तेल में फ्राई किया जाए या कीमा बनाया जाए?

कल मैंने आपको पूर्वी दिल्ली के हाट-बाजार की कथा बताई थी। आज इन बाजारों-मोहल्लों की नियामक संस्था ‘पूर्वी दिल्ली नगर निगम’ के फैसले के बारे में बताता हूं।

पूर्वी दिल्ली नगर निगम ने गत 27 दिसंबर को आदेश जारी किया कि उसके क्षेत्र में आने वाली, कच्चा और पका चिकन और मीट बेचने वाली सभी दुकानों और रेस्तरांओं को एक बोर्ड लगवाना होगा। जिस पर साफ और बड़े अक्षरों में लिखना हो कि यहां झटका मीट मिलता है या हलाल।

पूर्वी नगर निगम पर भाजपा का कब्जा है। महापौर संघ की विचारधारा में आपादमस्तक दीक्षित बिपिन बिहारी सिंह नामक कोई व्यक्ति हैं। उन्होंने मीडिया को बताया कि “इस बारे में संबंधित अधिकारियों को निर्देश दिए गए हैं और नियम का पालन न करने वालों पर सख्त कार्रवाई करने को कहा गया है।”

पूर्वी नगर निगम के महापौर बिपिन बिहारी सिंह

भाजपा का तर्क है कि “पूर्वी दिल्ली में बड़ी संख्या में हिंदू और सिख रहते हैं। इनके धर्म में हलाल पद्धति से वध किए गए पशु का मीट खाना पाप है। इसी प्रकार मुसलमान झटका मीट खा लें तो दोजख में सड़ेंगे।”


गौरतलब है कि इस संबंध में पहले निगम की स्थाई समिति, फिर सदन से प्रस्ताव पास हुआ था। स्थायी समिति और सदन से प्रस्ताव पास होने के बाद इस संबंध में कार्यालय आदेश जारी हो चुका है, जिससे यह कानून बन गया है। झटका अथवा हलाल का जिक्र न करने वालों के खिलाफ निगम द्वारा पहले कारण बताओ नोटिस जारी किया जाएगा। इसके बाद जुर्माने का प्रावधान है।

दरअसल, पूर्वी दिल्ली नगर निगम के पार्षदों का मानना है कि लोगों को पाप से बचाना उनका परम कर्तव्य है। जनता ने उन्हें सिर्फ नाली-गली बनवाने और कूड़ा उठवाने के लिए थोड़े ही चुना है। इन इहलौकिक कामों में लेट-लतीफी,भाई-भतीजावाद, बाहुबल-भ्रष्टाचार चल रहा है, तो कोई बात नहीं। पारलौकिक कामों में कोई कोताही नहीं होनी चाहिए।

हालांकि यह पता नहीं चल सका है कि बिजली, पानी, बस-मेट्रो किराया, महिलाओं की सुरक्षा आदि दुनियावी बातें बनाकर चुनाव में उतरने वाली आम आदमी पार्टी के पार्षदों की इन अहम पारलौकिक विषयों पर क्या राय रही। उनके द्वारा कोई तगड़ा विरोध करने की सूचना अब तक नहीं मिली है।

पूर्वी दिल्ली के पटपड़गंज इलाके में चिकेन और मटन की दो अलग-अलग दुकानें, इनके साइन बोर्ड पर क्रमश: झटका और हलाल विशेष रूप से उल्लेखित है

क्या होटलों में वेटर और मालिक की जाति और धर्म लिखे बोर्ड भी लगेंगे?

हलाल और झटका मीट का बोर्ड लगाए रेस्तरांओं की योजना अगर निर्विरोध परवान चढ़ गई तो यह रास्ता हमें कहाँ ले जाएगा?

परंपरागत रूप से ऊंची हिंदू जातियों का धर्म नीची जातियों के हिंदुओं और मुसलमानों का छुआ खाना खाने से भ्रष्ट हो जाता है। क्या उन्हें पाप से बचाने के लिए होटलों के साइन बोर्ड में मालिक की जाति-धर्म और वेटरों के नेमप्लेट में उनके नाम के साथ उनकी जाति का उल्लेख किया जाएगा?

हर जाति के लिए अलग रेस्तरां, अलग स्कूल, अलग यूनिवर्सिटी, अलग ट्रेन, अलग स्पा, अलग स्विमिंग पूल, अलग ब्यूटी पार्लर की कल्पना भी कितनी खौफनाक है?

आने वाले समय क्या ऐसे दिखेंगे यमूना पार के रेस्त्रां? : पूर्वी दिल्ली नगर निगम ने उन्हें साइनबोर्ड लगा कर यह बताने का निर्देश दिया है कि वहां हलाल मीट मिलता है या झटका।

कहाँ ले जाना चाहता है राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ?

आज राजधानी दिल्ली से 3000 किलोमीटर दूर केरल के सुदूर सबरीमाला मंदिर में स्त्रियों के प्रवेश की लड़ाई चल रही है। हर जगह भारतीय जनता रोग-ग्रस्त परंपराओं और रूढ़ियों से मुक्ति के लिए आगे आ रही है। अंतर-जातीय, अंतर-धार्मिक विवाह बढ़ रहे हैं। लोग एक-दूसरे के विचारों को अधिक से अधिक जानना-समझना चाह रहे हैं। एक-दूसरे के खान-पान के तरीके, रहन-सहन को आधिकाधिक अपना रहे हैं।

यह समझना कठिन नहीं है कि इन परिवर्तनों से संघ इतना चिढ़ा हुआ क्यों है? वह हमें रक्त-शुद्धता और बौद्धिक जहालत की अंधी गली में वापस ले जाना चाहता है। इस गली से बाहर निकलने का रास्ता हमें हाल के वर्षों में फुले, आंबेडकर, भदंत बोधानंद,  पेरियार, जेएनपी मेहता, राम स्वरूप वर्मा आदि के तेजस्वी विचारों ने दिखाया है।

आइए, अंधकार रचने वाली इन ब्राह्मणवादी शक्तियों को परास्त करने के लिए इन चिंतकों के तार्किक विचारों की मशाल लेकर हम आगे बढ़ें।

तर्कबल से हीन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ जैसे संगठन को परास्त करना बहुत कठिन नहीं है। इस अपरिहार्य संघर्ष में अपनी भूमिका का निर्वहन करें, ताकि वैज्ञानिक तर्क पद्धति के विकास को सुनिश्चित किया जा सके और इंसानियत को बचाया जा सके।

(कॉपी संपादन : प्रेम बरेलवी)


फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्‍त बहुजन मुद्दों की पुस्‍तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्‍स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्‍य, सस्‍क‍ृति व सामाजिक-राजनीति की व्‍यापक समस्‍याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्‍स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +917827427311, ईमेल : info@forwardmagazine.in

फारवर्ड प्रेस की किताबें किंडल पर प्रिंट की तुलना में सस्ते दामों पर उपलब्ध हैं। कृपया इन लिंकों पर देखें 

बहुजन साहित्य की प्रस्तावना 

दलित पैंथर्स : एन ऑथरेटिव हिस्ट्री : लेखक : जेवी पवार 

महिषासुर एक जननायक’

महिषासुर : मिथक व परंपराए

जाति के प्रश्न पर कबी

चिंतन के जन सरोकार

लेखक के बारे में

प्रमोद रंजन

प्रमोद रंजन एक वरीय पत्रकार और शिक्षाविद् हैं। वे आसाम, विश्वविद्यालय, दिफू में हिंदी साहित्य के अध्येता हैं। उन्होंने अनेक हिंदी दैनिक यथा दिव्य हिमाचल, दैनिक भास्कर, अमर उजाला और प्रभात खबर आदि में काम किया है। वे जन-विकल्प (पटना), भारतेंदू शिखर व ग्राम परिवेश (शिमला) में संपादक भी रहे। हाल ही में वे फारवर्ड प्रेस के प्रबंध संपादक भी रहे। उन्होंने पत्रकारिक अनुभवों पर आधारित पुस्तक 'शिमला डायरी' का लेखन किया है। इसके अलावा उन्होंने कई किताबों का संपादन किया है। इनमें 'बहुजन साहित्येतिहास', 'बहुजन साहित्य की प्रस्तावना', 'महिषासुर : एक जननायक' और 'महिषासुर : मिथक व परंपराएं' शामिल हैं

संबंधित आलेख

फुले, पेरियार और आंबेडकर की राह पर सहजीवन का प्रारंभोत्सव
राजस्थान के भीलवाड़ा जिले के सुदूर सिडियास गांव में हुए इस आयोजन में न तो धन का प्रदर्शन किया गया और न ही धन...
भारतीय ‘राष्ट्रवाद’ की गत
आज हिंदुत्व के अर्थ हैं– शुद्ध नस्ल का एक ऐसा दंगाई-हिंदू, जो सावरकर और गोडसे के पदचिह्नों को और भी गहराई दे सके और...
जेएनयू और इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के बीच का फर्क
जेएनयू की आबोहवा अलग थी। फिर इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में मेरा चयन असिस्टेंट प्रोफ़ेसर के पद पर हो गया। यहां अलग तरह की मिट्टी है...
बीते वर्ष 2023 की फिल्मों में धार्मिकता, देशभक्ति के अतिरेक के बीच सामाजिक यथार्थ पर एक नज़र
जाति-विरोधी फिल्में समाज के लिए अहितकर रूढ़िबद्ध धारणाओं को तोड़ने और दलित-बहुजन अस्मिताओं को पुनर्निर्मित करने में सक्षम नज़र आती हैं। वे दर्शकों को...
‘मैंने बचपन में ही जान लिया था कि चमार होने का मतलब क्या है’
जिस जाति और जिस परंपरा के साये में मेरा जन्म हुआ, उसमें मैं इंसान नहीं, एक जानवर के रूप में जन्मा था। इंसानों के...