स्वामी अछूतानन्द ‘हरिहर’ (6 मई 1879 -20 जुलाई 1933)
कहावत है कि बारह साल में घूरे के भी दिन फिर जाते हैं। किसी भी चीज को अधिक दिन तक दबाकर नहीं रखा जा सकता। एक दिन वह सारे दबाव तोड़कर बाहर आती है। भारत में हजारों साल से एक बड़ी आबादी को दबाकर रखा गया। मनुष्यता की श्रेणी से उनका बहिष्कार कर उनसे उनके सारे मानवीय अधिकार छीन लिए गए। उनको गुलामों की जंजीरों में जकड़कर जानवरों से भी बदतर स्थिति में रखा गया। जैसे-जैसे युग पर युग बदलते गए और राजशाहियां बदलती गईं, उनकी गुलामी की अवधि भी बढ़ती चली गई। इस बीच उनके अन्दर क्रोध और विद्रोह की चिंगारियां फूटती रहीं, जो समय-समय पर बाहर भी आईं, पर उनको निर्ममता से दबा दिया गया। हालाँकि वो दबी रहीं, समाप्त नहीं हुईं। किन्तु, भारत के इतिहास में ऐसे दौर भी आए, जब उन पर गुलामी का दबाव कम हुआ[1], और उनका क्रोध और विद्रोह बाहर निकल कर आया। उसने संघर्ष का मार्ग प्रशस्त किया और उस मार्ग ने बीसवीं सदी में क्रान्ति के एक विशाल राजमार्ग का निर्माण किया।
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